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अब साहित्यकारों को जलानी पड़ेगी जनमुक्ति की मशाल

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मुनेश त्यागी

     जब लेख, भाषण और कविताएं नख, सिख, बाल, गाल और चांद तक सीमित रहती है और सामंती, पूंजीवादी, जातिवादी और सांप्रदायिक कोढ को ढकने की बात करती हैं, हजारों साल के शोषण, अन्याय, जुल्म, अत्याचार, अंधविश्वासों और धर्मांधता से मुख्य मोडे रखती हैं और उनके बारे में कुछ नही कहती, उनकी तरफ कोई इशारा नही करती, उनके बारे में कुछ नही बोलती, उनका कोई भंडाफोड़ नहीं करती, तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।

     मगर जब कविताएं गरीबी, भुखमरी, अन्याय, शोषण, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, अंधविश्वासों और अवैज्ञानिकता एवं धर्मांधता, जुल्मो-सितम, बेरोजगारी, मंहगाई और भ्रष्टाचार के बारे में होने लगती हैं, तो बहुत सारे लोग नाक भौं सिकोड़ने लगते हैं और उनको कविता में राजनीति की बू आने लगती है।

     मगर अब हालात बदल रहे हैं। अब साहित्य लेख और कविताएं पुराने ढर्रे में बंधे रहना नहीं चाहतीं, अब वे समाज के बारे में, देश के, दुनिया के बारे में, आदमी के बारे में सांप्रदायिकता, अंधविश्वासों और धर्मांधता, जातिवाद, शोषण, जुल्म, अन्याय और गैरबराबरी के बारे में कुछ कहना चाहती हैं। वे अब पुराने ढर्रे को छोड़कर किसानों, मजदूरों और आमजन की बात कहना चाहती हैं। वे सबको रोटी, सबको कपड़ा, सबको मकान, सबको शिक्षा, सबको स्वास्थ्य, सबको रोजगार, सबको सुरक्षा और सबको शुद्ध जल और वायु एवं धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद एवं वैज्ञानिक संस्कृति की बात करने लगी हैं और इनके बारे में सब कुछ बोलना चाहती हैं, उनकी जनविरोधी और समाजविरोधी परत दर परत उधेड़ कर रख देना चाहती हैं और हजारों साल से छिपी हुई सच्चाई को जनता के सामने ला देना चाहती हैं।

     ऐसा लगता है कि जैसे अब लेख, भाषण और कविता आधुनिक जमाने की भाषा में सब कुछ बता देना चाहती हैं। अब वे समता, समानता, बराबरी, न्याय, आजादी, जनवाद समाजवाद, भाईचारे और साम्यवाद के बारे में बोलना चाहते हैं। आज का साहित्य बता रहा है कि वह पुरानी दास्तां, गुलामी और बेडियों के साम्राज्य को तोड़ देना चाहता है और समता, समानता, भाईचारे, जनता के जनवाद, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता की नई सुबह में सांस लेना चाहता है और जनता को बौना बनाने वाले अंधविश्वास, पाखंड और धर्मांधता का पूर्ण रूप से भंडाफोड़ करना चाहता है और जनता को बौद्धिक रूप से आजाद और सबल बनाना चाहता है।

    जैसा भगत सिंह ने कहा था कि हमें जनता को सीधी और सरल भाषा में बताना पड़ेगा कि अब राज्य और सरकार का, उसकी नीतियों का स्वरूप जनकल्याणकारी नही रह गया है। अब उसने पाला बदल लिया है और वह देशी-विदेशी पूंजीपतियों और धन्ना सेठों की हमदर्द, सहायक और सहयोगी बन गई है। उसे जनता की तकलीफों और बुनियादी समस्याओं जैसे रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, बिजली, पानी, शुद्ध वायु और सुरक्षा से कुछ लेना देना नही है। अब वह अमीरों की तिजोरियां भरने में लगी है, अब उसने  शोषकों और लुटेरों का पक्ष ले लिया है और वह बिल्कुल पूंजीपति और सामंत वर्ग के साथ खड़ी हो गई है। मोदी सरकार ने सरकार के निष्पक्ष रहने की पहेली को बुझा दिया है। अब मोदी सरकार किसानों, मजदूरों, नौजवानों और विद्यार्थियों की सरकार न रह कर, खुलेआम अडानी, अंबानी, बिरला, टाटा और देशी-विदेशी पूंजीपति लुटेरों और धन्नासेठों की हो गई है। अब उसने संविधान के सिद्धांतों और कार्यक्रम को पूरी रूप से बदल दिया है उसने धर्मनिरपेक्षता, जनता के जनवाद और समाजवादी मूल्यों को लगभग मिट्टी में मिला दिया है। इस तरह से पाला बदल लेने में उसे कोई शर्म या लिहाज भी नहीं रह गई है।

     प्रेमचंद ने भी कहा है कि अब लेखनी चलाते समय लेखक कवि और भाषण कर्ता को समता, समानता, भाईचारे, जनवाद, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद की बात करनी होगी। उसे अन्याय, शोषण, जुल्म, गैर बराबरी, छुआछूत, छोट-बढ़ाई और ऊंच-नीच की मानसिकता से छुटकारा पाना होगा और उनसे नफरत करनी होगी, जब तक लेखक, भाषणकर्ता और कवि इन अमानवीय विचारों से नफरत नहीं करेगा, इन जन विरोधी मूल्यों का खुलकर भंडाफोड़ नहीं करेगा, तब तक वह जनप्रिय, जनवादी और जनता के कल्याण के लिए साहित्य की रचना नही कर सकता, तब तक वह राजनीति के आगे आगे चलने वाली मशाल नहीं बन सकता।

    उपरोक्त विवरण और सच्चाई के आलोक में हम पूर्ण रूप से मुतमईन होकर कह सकते हैं कि साहित्यकारों को भी शोषण, जुल्म, अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचार, कदाचार और लगातार बढ़ती राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक असमानता का, लगातार बढ़ रही धर्मांधता और अंधविश्वासों के साम्राज्य का विरोध करना पड़ेगा, इनसे नफरत करनी पड़ेगी और हमें इंसाफ, भाईचारा, समता, समानता, जनता के जनवाद और समाजवादी व्यवस्था की हिमायत में खड़ा होना होगा और इन्हें जनता की वाणी बनाना होगा और इनको अपने लेखन, कविता और भाषण के केंद्र में लाना होगा। इसके लिए हमारा विरोध भी होगा, हमें मानसिक रूप से उस स्थिति के लिए भी अपने को तैयार करना होगा।

    इसके बिना काम नहीं चलने वाला है। इसके बिना हम पूंजीवादी लुटेरों सांप्रदायिक और जातिवादी तत्वों की जाने अंजाने तरफदारी ही कर सकते हैं मगर इसके बिना हम किसानों, मजदूरों, जनता, विद्यार्थीयों, नौजवानों और महिलाओं के कल्याण की बात नहीं कर सकते और हमारा रचा हुआ साहित्य लगभग बेईमानी हो जाएगा। 

     अब हमारे साहित्य को जन समर्थक बनना पड़ेगा, इसके बिना कोई काम नहीं चलेगा। अब हमें बीच का रास्ता छोड़कर, गरीबी, भुखमरी, शोषण, अन्याय के किसानों, मजदूरों, नौजवानों, विद्यार्थियों और महिलाओं के पक्ष में खड़ा होना होगा और उनका पक्ष लेना होगा और हमें जन पक्षीय लेखन के खतरे उठाने पड़ेंगे। उनकी बात जमाने को और जनता को बतानी होगी और जनता को, उसके कल्याण के लिए आंदोलित करना होगा और एकताबध्द करना होगा और इनके पक्ष में खड़ा करना होगा। अब हम केवल कलम घसीटू नहीं रह सकते। अब हम गोलमोल भाषा का प्रयोग करके, बीच में रहने का बहाना बनाकर जनता को धोखा नहीं दे सकते। हमें किसान, मजदूर वर्ग और सच्चाई के हित में अपना लेखन करना होगा। 

     हमें अपना सृजन जारी रखते हुए किसानों मजदूरों के वर्गीय आंदोलनों में जाना होगा, इससेे हम किसानों मजदूरों और गरीब और शोषित जनता की समस्याओं को नजदीक से देख पाएंगे और इससे हमारे लेखन में जीवंतता आएगी। हमें  अपने लेखन, भाषण और कविता के साथ सामाजिक आर्थिक, राजनैतिक परिवर्तन की क्रांतिकारी लड़ाई भी लड़नी होगी और इसके लिए हमें शोषित पीड़ित वर्ग किसानों मजदूरों के साथ कतारबद्ध होना पड़ेगा। अब साहित्यकारों को जनमुक्ति की मशाल जलानी पड़ेगी।

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