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उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की धरती पर नफरत का नाश होगा, मोहब्बत जिंदाबाद रहेगी

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कृष्णकांत

सीना 56 इंच का हो तो क्या फर्क पड़ता है अगर उसमें हृदय न हो ? जब राजीव गांधी की हत्या हुई तो अटल बिहारी वाजपेयी बड़े भावुक हुए और एक राज खोला – ‘आज अगर मैं जिंदा हूं तो राजीव गांधी की बदौलत.’ 1988 की बात है. अटल बिहारी सांसद हुआ करते थे. उनको किडनी की बीमारी हो गई. इसके बारे में बहुत कम लोगों को पता था. इसका इलाज विदेश में हो सकता था लेकिन उनके पास इतने पैसे नहीं थे कि कहीं विदेश जाकर ढंग से इलाज करा लें.

यह बात कहीं से राजीव गांधी को पता चली. राजीव गांधी ने अटल को बुलवाया और उनसे आग्रह किया कि आप न्यूयार्क में हो रहे संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन में शामिल होंगे तो मुझे खुशी होगी. आप प्रतिनिधिमंडल में शामिल हो जाइए. अटल न्यूयार्क गए तो राजीव गांधी ने वहां उनके इलाज की भी व्यवस्था करा दी. अटल स्वस्थ होकर वापस लौटे.

जब राजीव गांधी की हत्या हुई तो अटल बिहारी वाजपेयी ​ने करण थापर से एक इंटरव्यू में भावुक होते हुए कहा – ‘राजीव गांधी की असमय मौत मेरे लिए व्‍यक्तिगत क्षति भी है. राजीव जी ने कभी भी राजनीतिक मतभेदों को आपसी संबंधों पर हावी नहीं होने दिया. मैंने अपनी बीमारी की बात ज्‍यादातर लोगों को नहीं बताई थी लेकिन राजीव गांधी को किसी तरह से इस बारे में पता चल गया. उसके बाद उनकी मदद के कारण ही मैं स्‍वस्‍थ हो पाया.’

जब सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठाकर भाजपाई नंगा नाच रहे थे. इस मसले पर अटल चुप थे. पत्रकारों ने पूछा कि आप कुछ क्यों नहीं बोल रहे ? उन्होंने कहा कि ‘मेरा मुंह मत खुलवाओ. जब प्रधानमंत्री राजीव ने विदेश भेजकर मेरा इलाज करवाया था, तब यह सोनिया गांधी ही थीं जो समय-समय पर मेरा हालचाल लेने मेरे घर आती थी. मैं चुप रहूं, यही बेहतर है.’ आज राजीव गांधी की जयंती पर यह कहानी फिर याद आई.

उस दौर तक नेता सौम्य, शालीन, उदार और कम से कम सार्वजनिक जीवन में आदर्श स्थापित करने की कोशिश करते थे. वह दौर अब जा चुका है. उन्हीं राजीव गांधी की पत्नी और विपक्ष की दिग्गज नेता सोनिया गांधी कोरोनाग्रस्त थी, अस्पताल से निकली तो एक बोगस केस में ईडी ने उनसे तीन दिन पूछताछ की, वह भी अपने दफ्तर बुलाकर. केस भी ऐसा जो कई साल पहले बंद हो चुका था. सिर्फ सोनिया गांधी ही नहीं, आज सत्ता हर विपक्षी नेता को निशाना बना रही है.

इस देश ने अपना सफर वहां से शुरू किया था जहां नेहरू ने अपने धुर विरोधी श्यामा प्रसाद मुखर्जी को अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया था. बावजूद इसके कि मुखर्जी समेत पूरा संघ आज़ादी के आंदोलन से दूर रहकर अंग्रेजों का साथ दे रहा था. सरदार पटेल की चिट्ठियों से पता चलता है कि ये लोग दंगा-फसाद में भी लिप्त थे, फिर भी इनका सम्मान किया गया. आज हम वहां पहुंच गए हैं, जहां पार्टी तो छोड़िये आम लोग भी अगर सरकार से असहमति जतायें तो उनको दण्डित किया जाता है.

उस्ताद बिस्मिल्लाह खान

वे ऐसे बनारसी थे जो गंगा में वज़ू करके नमाज पढ़ते थे और सरस्वती का स्मरण करके शहनाई की तान छेड़ते थे. वे ऐसे संत थे जिनकी शहनाई की गूंज के साथ बाबा विश्वनाथ मंदिर के कपाट खुलते थे. वे ऐसे मुसलमान थे जो सरस्वती की पूजा करते थे. वे ऐसे पांच वक्त के नमाज़ी थे जो संगीत को ईश्वर की साधना मानते थे. वे इस्लाम के ऐसे पैरोकार थे जो अपने मजहब में संगीत के हराम होने के सवाल पर हंस कर कह देते थे, ‘क्या हुआ इस्लाम में संगीत की मनाही है, क़ुरान की शुरुआत तो ‘बिस्मिल्लाह’ से ही होती है.’

उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान आधुनिक भारत के संत कबीर थे, जिनके लिए मंदिर मस्जिद और हिंदू-मुसलमान का फ़र्क मिट गया था. कहते हैं कि संत कबीर का देहांत हुआ तो हिंदू और मुसलमानों में उनके पार्थिव शरीर के लिए झगड़ा हो गया था. उसी तरह जब उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान का देहांत हुआ तो हिंदू और मुसलमानों का हुजूम उमड़ पड़ा. शहनाई की धुनों के बीच एक तरफ मुसलमान फातिहा पढ़ रहे थे तो दूसरी तरफ हिंदू सुंदरकांड का पाठ कर रहे थे.

आजादी की पहली रात को जिस बिस्मिल्लाह खान की शहनाई लाल किले पर गूंजी थी, आजादी की वह सुरीली तान भारत माता से कोई छीन सकता है ? जिसने उम्र भर मां गंगा को शहनाई की धुन सुनाई हो, क्या मां गंगा अपने उस बेटे को भुला देंगी ? जिस हनुमान मंदिर में आधी सदी तक बिस्मिल्लाह खान शहनाई बनकर गूंजते रहे हों, वे हनुमान जी बिस्मिल्ला को भुला देंगे ? जो शहनाई की धुन आजाद भारत में हर सुबह की ‘मंगल ध्वनि’ बन गई, क्या उसे हिंदुस्तानी संगीत से इसलिए अलग किया जा सकता है कि वह धुन बिस्मिल्लाह खान की सांसों से निकलती है ?

उसके बिना तो हिंदुस्तान बेसुरा हो जाएगा ! नफरत भरी सियासत लाख कोशिश कर ले, ऐसा मुमकिन नहीं है. यह तो सिर्फ ​एक बिस्मिल्लाह की कहानी है. जो लोग गंगा-जमुनी तहजीब का मजाक उड़ा रहे है, वे हिंदुस्तान से अपरिचित लोग हैं जिन्हें नफरत के सिवा कुछ दिखाई नहीं देता.

हिंदुस्तान की धरती में जितने गांधी हैं, उतनी ही संख्या में अशफाक मौजूद हैं. आपको लगता है कि हनुमान गढ़ी और रामजन्म भूमि के बाहर कलगी, कुमकुम, चंदन बेचने वाले जुम्मन को राम वहां से जाने देंगे ? तुलसी के राम ने तो ऐसा संदेश कभी नहीं दिया था. यह ऐसा हिंदुस्तान बन गया है कि राही मासूम रजा जिधर जाएगा, महाभारत और कृष्ण उसके साथ चले जाएंगे.

स्थिति का अंदाजा ऐसे लगाइए कि अगर कोई मुसलमान नास्तिक है तो हजारों बरस बूढ़े महर्षि चार्वाक उसके साथ खड़े हैं – यावत जीवेत, सुखं जीवेत… जब तक रहो, मस्ती से जियो. अगर कोई मुसलमान आस्तिक है तो उसके पहलू में कोई गांधी भजन गाता मिलेगा – ईश्वर अल्लाह तेरो नाम…

कोई नफरत का कारोबारी इतना बड़ा नहीं हो सकता कि कृष्ण से रसखान छीन ले जाए. आपमें इतनी क्षमता नहीं है कि आप लाखों मंदिरों में गूंजता हुआ ‘मन तड़पत हरि दर्शन को आज’ बंद करा देंगे. इस देश की हवा इतनी सुरीली है तो तानसेन के साथ बड़े गुलाम अली खां से लेकर रहमान तक के सुर इन हवाओं में मौजूद हैं. इस देश की भाषा की तस्वीर अमीर खुसरो के बगैर बदरंग हो जाती है.
इस देश की शहादतों का इतिहास लिखा जाता है तो मंगल पांडेय के साथ बहादुरशाह जफर खड़ा हो जाता है जिसके हाथ में उसके बेटों के कटे हुए सिर हैं. भगत सिंह के साथ अशफाक को खड़ा किये बगैर भारत का इतिहास विकृत हो जाता है.

फ़ैज़ और जॉन एलिया जिस्म से सरहद पार चले गए लेकिन उनका शायर इधर ही छूट गया. ग़ालिब और मीर की क़ब्रें इधर रह गई थीं, लेकिन ग़ालिब और मीर यहां से वहां तक अदब के निर्विवाद पूर्वज हैं. फेहरिस्त लंबी है. यहां कम कहा, ज्यादा समझना.

जब हम असली भारत की तस्वीर दिखाते लेख पोस्ट करते हैं तो कुछ लोगों को मिरची लग जाती है. समरसता हिंदुस्तान की मिट्टी में है. नफरत और बंटवारे की सियासत हिटलर से उधार आई है. हिटलर मर गया लेकिन उससे उधार ली हुई नफरत को कुछ लोग अपने मन में पाले घूम रहे हैं. अगर आप सोचते हैं कि आप मुसलमानों से लड़कर धर्म या देश की रक्षा कर रहे हैं तो वह आपका भ्रम है जो आपको नफरत की घुट्टी में घोलकर पिलाया गया है. ऐसे विचार पर अमल करना इस देश की आत्मा पर हमला करना है.

जिस धरती पर उस्ताद बिस्मिल्लाह खान जैसे संगीत के संत पैदा हुए हों, उस धरती पर नफरत का नाश होगा, मोहब्बत जिंदाबाद रहेगी. आज उस्ताद को याद करने का दिन है. सलाम !

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