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रोहिणी आयोग की अनुशंसा पर एक बार फिर पिछड़ा वर्ग की हकमारी का सवाल

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सचिन राजुरकर

एक बार फिर पिछड़ा वर्ग और उसके हक की हकमारी का सवाल सामने आया है। इस बार यह जी. रोहिणी कमीशन की शक्ल अख्तियार किए हुए है और निशाने पर ओबीसी की एकता है। जाहिर तौर पर इसके राजनीतिक निहितार्थ हैं, क्योंकि इस साल और अगले साल अनेक राज्यों में चुनाव के साथ-साथ अगले साल लोकसभा का चुनाव भी होना है। कहने की आवश्यकता नहीं कि एक बार फिर पिछड़ा वर्ग व उसका सवाल राजनीति के केंद्र में है।

ध्यातव्य है कि मंडल आयोग की सिफारिशों के अनुसार 1990 में सरकारी सेवाओं में पिछड़ा वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण शुरू किया गया था। लेकिन मंडल आयोग की सिफारिशों के खिलाफ कुछ ‘विशिष्ट’ लोगों ने 1992 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर किये। इसके फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने 27 प्रतिशत आरक्षण को बरकरार रखा, लेकिन उसने ओबीसी समुदाय को दो वर्गों में विभाजित कर दिया। एक वर्ग क्रीमीलेयर और दूसरा गैर-क्रीमीलेयर। यह ओबीसी की एकता को खंडित करने की पहली कोशिश साबित हुई। तर्क यह दिया गया कि तीन हजार से अधिक जातियों वाले ओबीसी समुदाय में आरक्षण का लाभ जरूरतमंदों को मिले। 

इस बीच 1990 में जब मंडल कमीशन लागू किया गया तब देश में जिस तरह का आंदोलन देखने को मिला, उसने एक बात तय कर दिया कि पहले से कब्जा जमाए लोग इतनी आसानी से ओबीसी को उसका वाजिब हक नहीं देने वाले हैं। वी.पी. सिंह सरकार द्वारा संसद में एलान किए जाने के बावजूद आरक्षण को लागू होने में करीब तीन साल का समय लगा और वह भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद। सनद रहे कि यह केवल सरकारी नौकरियों में आरक्षण का सवाल था। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण के बारे में तो तब सोचा ही नहीं गया। इसके लिए बाकायदा आंदोलन चलाए गए तब जाकर वर्ष 2006 में डॉ. मनमोहन सिंह सरकार द्वारा तत्कालीन शिक्षा मंत्री अर्जुन सिंह के कारण उच्च शिक्षण संस्थानों में ओबीसी को आरक्षण का लाभ मिलना शुरू हुआ।

जस्टिस जी. रोहिणी

इस बीच देश के अनेक राज्यों में ओबीसी गोलबंद हुए। उनकी राजनीतिक हिस्सेदारी के सवाल भी सामने आए। तब यह कहा जाने लगा कि ओबीसी में उन्नत जातियों को आरक्षण का सबसे अधिक लाभ मिलता है। इसलिए इस मांग को उठाया गया था कि सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर ओबीसी का उप-वर्गीकरण किया जाना चाहिए। पहले इसकी जवाबदेही राष्ट्रीय ओबीसी आयोग को सौंपी गई। उस समय 2 मार्च, 2015 को सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक आधार पर ओबीसी को समूह ए-अति पिछड़ा, समूह बी-अधिक पिछड़ा और समूह सी-पिछड़ा के रूप में वर्गीकृत करने की सिफारिश करते हुए एक रिपोर्ट भी प्रस्तुत किया गया थ। यह एक आजमायी हुई तरकीब थी। खासकर बिहार में इस तरह का विभाजन कर्पूरी ठाकुर के द्वारा 1979 में ही मुंगेरीलाल आयोग की अनुशंसा के अनुरूप ओबीसी को अनुसूची-एक और अनुसूची-2 के रूप में किया गया था और आज भी वहां यही व्यवस्था लागू है।

ऐसी ही व्यवस्था की मांग राष्ट्रीय स्तर पर लागू करने की मांग लंबे समय से की जाती रही है। इस मांग पर विचार करते हुए 2 अक्टूबर, 2017 को केंद्र सरकार ने दिल्ली हाई कोर्ट की सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जी. रोहिणी की अध्यक्षता में चार सदस्यीय आयोग का गठन कर दिया। इस आयोग को ओबीसी की केंद्रीय सूची में विभिन्न प्रविष्टियों, उनमें मौजूद त्रुटियों का अध्ययन करने और उनमें सुधार का सुझाव देने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। इसके अलावा, ओबीसी के बीच लाभों के असमान वितरण की जांच करना और इस आयोग को वैज्ञानिक तरीके से उप-वर्गीकरण के लिए प्रक्रिया, मानदंड, शर्तें व नियमावली सुझाना इसकी जिम्मेदारियों में शामिल था।

जब इसका गठन किया गया था तब एक साल के भीतर एक रिपोर्ट सौंपने की उम्मीद की गई थी। हालांकि, ओबीसी आरक्षण मुद्दे की राजनीतिक संवेदनशीलता के कारण, समिति के कार्यकाल को 14 बार बढ़ाया गया था। आख़िरकार छह साल बाद गत 31 जुलाई, 2023 को लोकसभा और राज्यसभा में चर्चा किए बिना ही रिपोर्ट राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंप दी गई।

जाहिर तौर पर अभी तक रोहिणी आयोग द्वारा तैयार रिपोर्ट लोगों के बीच सार्वजनिक नहीं किया गया है, लिहाजा अभी केवल कयासबाजियां लगाई जा रही हैं। लेकिन यह फैसला अभी केंद्र सरकार को लेना है कि वह इसे सार्वजनिक करेगी अथवा नहीं। सार्वजनिक होने के बाद ही यह स्पष्ट हो सकेगा कि रिपोर्ट तैयार करते समय आयोग ने किस तरीके से ओबीसी समुदायों का अध्ययन किया है और किस तरह के तथ्यों के आधार पर अपने निष्कर्ष बिंदुओं तक वह पहुंची है।  

लेकिन अब सियासी गलियारे में जिस तरह की सूचनाएं मिल रही हैं, यदि उनके ऊपर गौर करें तो यह मुमकिन है कि केंद्रीय सूची में ओबीसी की तीन हजार से ज्यादा जातियों को आरक्षण से लाभ पाने वाली और आरक्षण से लाभ नहीं पाने वाली जातियों में वर्गीकृत किया जाएगा। आरक्षण के लाभ से वंचित अति पिछड़ी ओबीसी जातियों को 27 फीसदी कोटे में तरजीह मिलने की संभावना है। यह भी संभावना है कि ओबीसी आरक्षण को तीन या चार समूहों में विभाजित कर दिया जाय! तीन समूहों में विभाजित करने पर 1500 पिछड़ी जातियों को दस प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा। लगभग एक हजार जातियां, जो एक या दो बार आरक्षण का लाभ उठा चुकी हैं, उन्हें 10 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा और लगभग 150 जातियां, जो आरक्षण से लाभान्वित हुई हैं, उन्हें 7 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा। हालांकि चर्चा यह भी है कि ओबीसी को 4 समूहों में विभाजित किया जा सकता है और 10 प्रतिशत, 9 प्रतिशत, 6 प्रतिशत और 4 प्रतिशत आरक्षण के आधार पर पूरे समुदाय को उप-वर्गीकृत किया जा सकता है।

हालांकि मुख्य उद्देश्य ओबीसी वर्ग की कमजोर जातियों को मजबूत समाज के बराबर लाना है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण है। लेकिन कई राज्यों में 27 प्रतिशत आरक्षण पूरी तरह से लागू नहीं किया गया है। यहां तक कि केंद्र सरकार के स्तर पर भी ओबीसी की भागीदारी बहुत कम है। इसलिए इस परिस्थिति में सरकार को रोहिणी आयोग की अनुशंसा को ध्यान में न रखते हुए ओबीसी का वैज्ञानिक अध्ययन कराना चाहिए और जातिगत जनगणना के आंकड़ों के अनुसार ही ओबीसी का वर्गीकरण किया जाए, तभी सभी को न्याय मिलेगा।

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