प्रेरणा
अमेरिका के ‘फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन’ (एफबीआई) द्वारा अडाणी पर लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोपों ने अव्वल तो सरकार और सेठ के सर्वज्ञात निकट संबंधों को एक बार फिर उजागर कर दिया है। दूसरा और सर्वाधिक शर्मनाक खुलासा देश की सत्तारूढ़ राजनीतिक पार्टी द्वारा अडाणी को बचाने में की जा रही बेशर्म मशक्कत है। क्या है, यह गोरखधंधा?
फिर एक बार अडाणी की इज्जत और देश की बेइज्जती आमने-सामने है। सबसे पहले ‘हिंडनबर्ग’ ने अडाणी की कंपनियों पर दुनिया का ‘सबसे बड़ा वित्तीय धोखा’ देने का आरोप लगाया था। जैसे ही ‘हिंडनबर्ग’ की रिपोर्ट सामने आई, अडाणी कंपनी के एक आला अधिकारी ने वीडियो पर भारतीय झंडे के साथ खड़े होकर दुनिया को संदेश दिया कि अडाणी को बदनाम करने का मतलब भारत को बदनाम करना है ! मोदी सरकार ने हर तरह से इसका समर्थन किया। अब बाजी पलट गई है। अब अमेरिकी सरकार सामने है जो कह रही है कि अडाणी व उनके भतीजे सागर अडाणी ने ‘घूस देने का अभियान’ चला रखा है।
मोदी सरकार के भारत में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा नहीं रह गया है। इसलिए उसे यह समझना मुश्किल हो रहा है कि भारत में किसी ठेके के एवज़ में, भारत की एक कंपनी ने, भारत सरकार और उसके अधिकारियों को घूस दी तो उसमें अमेरिका की अदालत को बीच में पड़ने की क्या जरूरत है? जब हमें कोई दिक्कत नहीं है तब अमेरिका के न्याय विभाग और अमेरिका की शेयर बाजार नियामक संस्था के पेट में क्यों दर्द हो रहा है? सरकार के सिपाहियों ने तुरंत मोर्चा संभाल लिया : अमेरिका भारत के विकास से चिढकर हमारे अंदरूनी मामलों में दख़ल दे रहा है!
चलिए, हम जरा इस मामले को समझ लें। अडाणी कंपनी के लगभग 75% शेयर परिवार के पास ही हैं। बाकी 25% शेयरों में सबसे बड़ा निवेश विदेशी कंपनियों का है। ‘हिंडनबर्ग’ का पहला आरोप यह था बाजार में कृत्रिम अभाव खड़ा करके अडाणी कंपनी ने अपने शेयरों के भाव बढ़ाए हैं। अडाणी समूह की कंपनियों में सबसे बड़ी निवेशक कंपनी अमेरिका की ‘जीक्यूजी पार्ट्नर्ज़’ है। इसका कुल एक्सपोज़र 9.7 बिलियन डॉलर है जो अडाणी के कुल निजी निवेश का 6.1% है।
अमेरिका में एक कानून है जिसे ‘फ़ॉरेन करप्ट प्रैक्टिसेज़ एक्ट’ कहते हैं। अमेरिकी कम्पनियों के लिए बने इस कानून में कहा गया है कि अमेरिका का निवेश, दूसरे देशों में भ्रष्टाचार के लिए इस्तेमाल करना क़ानूनी जुर्म है। बस, जोर-जोर से आवाज उठाई गई कि यह कानून अमेरिकी कंपनियों के लिए है तो इसके तहत अडाणी परिवार की किसी कंपनी को कैसे फंसा सकते हैं? कुछ नामी-गिरामी वकील भी अकारण इस फटे में टांग अड़ाते हुए मीडिया में आए। सब कहने लगे : अडाणी पर लगे सारे आरोप बे-बुनियाद हैं ! अडाणी ने, भारत सरकार ने और भारतीय मीडिया ने अपना फ़ैसला सुना दिया : सब चंगा सी!
काश ऐसा होता कि शुतुर्मुर्ग रेत में सर घुसाता और आंधी खत्म हो जाती ! लेकिन ऐसा होता नहीं है। अमेरिका से आंधी उठी तो केनिया ने अडाणी के साथ के एयरपोर्ट और वैकल्पिक ऊर्जा के कई सौदे रद्द करने की घोषणा कर दी। श्रीलंका की नयी वामपंथी सरकार ने कहा कि वह अडाणी के साथ बंदरगाह और पवन ऊर्जा के अनुबंध का पुरावलोकन कर रही है। बांग्लादेश ने भी एक कमिटी का गठन किया है जो अडाणी के साथ हसीना सरकार के सारे सौदों की जांच करेगी। फ़्रांस और जर्मनी जैसे देशों ने भी कहा है कि वे अडाणी कंपनियों में अपने निवेश पर फिर से विचार कर रहे हैं।
अडाणी और उसकी सहयोगी अमेरिकी कंपनी ‘अज़ुर’ पर भारत में राज्य सरकारों को लगभग 2200 करोड़ रुपयों की घूस देने का आरोप है। घूस खाने वाले राज्यों में ओडिशा, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़, जम्मू-कश्मीर और आंध्रप्रदेश के नाम हैं। आंध्रप्रदेश को 2021-23 के बीच लगभग 1700 करोड़ रुपयों की घूस देने का आरोप है। मोदी सरकार की सहयोगी आंध्रप्रदेश की चंद्रबाबू नायडू सरकार इस बात की जांच कर रही है कि क्या अडाणी के साथ हुए महंगे ऊर्जा सौदों को रद्द किया जा सकता है? मतलब यह कि फ़ाईनान्स व सरकार दोनों में हलचल मची है।
अब आइए, यह भी देख लेते हैं कि आख़िर कैसे भारत की इज्जत अडाणी के नाम के साथ जुड़ गई है ! जनवरी 2023 में ‘हिंडनबर्ग’ ने अपनी रिपोर्ट में अडाणी पर “कॉर्पोरेट इतिहास में सबसे बड़ा घोटाला” करने का आरोप लगाया था। कुछ लोग इसे लेकर सुप्रीमकोर्ट पहुंचे जिसने इन आरोपों की जांच की जिम्मेवारी ‘सेबी’ को सौंपी। ‘सेबी’ का हाल यह है उसकी प्रमुख एक ऐसी महिला है जिसे नौकरशाही की बजाए निजी क्षेत्र से लाकर वहां बिठाया गया है। ऐसा ‘सेबी’ के इतिहास में कभी नहीं हुआ था। यह क्यों हुआ, सरकार कैसे इसका आौचित्य सिद्ध करती है, ‘सेबी’ प्रमुख की कुर्सी पर बिठाई गई श्रीमती माधवी बुच की ऐसी क्या योग्यता है, आदि महत्वपूर्ण सवालों को सुप्रीमकोर्ट ने नज़रंदाज़ किया।
अगस्त 2024 में ‘हिंडनबर्ग रिसर्च’ ने फिर एक विस्फोटक रिपोर्ट जारी की कि ‘सेबी’ चीफ़ माधवी बुच को अडाणी समूह के सौदों की जांच सौंपना कैसे ‘कॉन्फ़्लिक्ट ऑफ़ इंटरेस्ट’ (स्वार्थ की टकराहट) का मामला बनता है। उसने बताया कि माधवी बुच का अडाणी समूह की कम्पनियों में निजी निवेश था। यह ऐसा आरोप था जिसके आधार पर कोई भी सरकार पहला काम यह करती कि माधवी बुच को ‘सेबी’ प्रमुख के पद से हटा देती और सारे मामले की जांच शुरू करवा देती। ऐसा चलन भी रहा है कि राष्ट्रीय महत्व के ऐसे मुद्दों पर सुप्रीमकोर्ट स्वतः संज्ञान लेकर जांच का आदेश देता है, लेकिन यहां तो सुप्रीमकोर्ट ने चुप्पी साध ली। अब कौन कहे कि किसकी जांच किसे करनी है?
अमेरिकी नियामक संस्था ने यह भी आरोप लगाया कि अमेरिका में अडाणी के अफ़सरों पर पड़े छापों की जानकारी अडाणी ने ‘सेबी’ को नहीं दी, जो कि क़ानूनन अपराध है। इन छापों की जानकारी अंतरराष्ट्रीय व राष्ट्रीय अख़बारों में छपी, फिर भी ‘सेबी’ ने इसका संज्ञान लेना जरूरी नहीं समझा। अदालत, सरकार, ‘सेबी’ जैसी संस्थाओं के रवैये से भारत सरकार और उसकी संस्थाओं की साख शक के घेरे में है।
भारतीय शेयर बाज़ार की दुनिया में अच्छी साख रही है। ‘सेबी’ को प्रोफेशनल संस्थान माना जाता रहा है। यह सच है कि घोटाले सभी बाज़ारों में होते हैं, हमारे यहां भी हुए हैं, लेकिन ‘सेबी’ की साख इससे बनती है कि इन घोटालों के बाद उसने क्या क़ानूनी कार्यवाही की और ऐसे घोटाले दोबारा न हों, इसकी क्या व्यवस्था बनाई? यहां तो ‘सेबी’ ने सुप्रीमकोर्ट से कहा कि उसे अडाणी की कंपनियों में दुनियाभर से निवेश कर रही कंपनियों की कोई जानकारी मिल नहीं पा रही है। कोर्ट ने नहीं पूछा कि यदि ‘सेबी’ को ऐसी जानकारी नहीं मिल पा रही है तो उसकी जरूरत क्या है?
इस घूसकांड के केंद्र में एक दूसरी भारतीय कंपनी ‘भारतीय सौर ऊर्जा निगम’ (एसईसीआई) भी है जिसने अडाणी कम्पनी का महंगी सौर ऊर्जा का टेंडर पास किया है। ‘एसईसीआई’ ने क्या इस टेंडर की व्यवहारिकता की जांच नहीं की? उसने कैसे माना कि इतनी महंगी बिजली का बोझ जनता पर डालना उचित है? फिर हुआ यह कि कुछ राज्यों ने अडाणी और अमेरिकी कंपनी ‘अज़ुर’ से महंगी सौर ऊर्जा ख़रीदने से मना कर दिया, तो घूस को आजमाया गया। यह योजना खुले आम बनी। इसका पावर पोईंट प्रेज़ेंटेशन बनाया गया जो अमेरिकी अधिकारियों को छापों के दौरान मिला। यह भी हुआ कि घूस मिलते ही सभी राज्य सरकारें महंगी सौर ऊर्जा ख़रीदने के लिए राज़ी हो गयीं।
अब तक जो हुआ उससे दो चीजें साफ़ हुईं हैं। पहली, चाहे कुछ भी हो जाए, अडाणी पर कोई कार्यवाही नहीं होगी तथा दूसरी, केंद्र सरकार का ही नहीं, मुख्य विपक्षी सरकारों का नाम भी इस घूसकांड में आया है। कहानी बता रही है कि हमाम में सब नंगे हैं। घूस उन लोगों को देनी पड़ती है जिनकी सहमति खरीदनी होती है। तो जांच तो उन सारी सरकारों की होनी चाहिए जिनका अडाणी के साथ कोई भी करार हुआ है।
कहा गया है कि भ्रष्टाचार की नदी ऊपर से शुरु होती है और पूरे समाज को गंदा करती नीचे तक पहुंचती है। शोक व शर्म यह है कि आज हमने उस गंदगी के साथ जीना सीख लिया है। नए हिंदुस्तान का नारा है : भले भ्रष्टाचार की गंदगी में सनी हो, लेकिन हिंदू नाक ऊपर उठी रहनी चाहिए!