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एक बार फिर दक्षिण के राज्यों में गर्माने लगा है परिसीमन का मुद्दा

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लोकसभा की सीटों के परिसीमन का मुद्दा एक बार फिर से दक्षिण के राज्यों में गर्माने लगा है।  इस बार यह शुरुआत उस राज्य के मुख्यमंत्री की ओर से की गई है, जिनकी बैसाखियों के बल पर एनडीए सरकार दिल्ली में राज कर रही है। 

जी हां, आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री, चंद्रबाबू नायडू ने आंध्र प्रदेश में इसे ‘जनसांख्यिकी संकट’ करार देते हुए प्रदेश की तुलना जापान से कर दी है, और प्रदेश को चेताया है कि यह कम जन्मदर और बूढ़ी होती आबादी के आसन्न संकट के मुहाने पर खड़ा है। 

इसके लिए उनकी सरकार ने पहले ही अगस्त माह में दो दशक पुरानी ग्राम पंचायत और शहरी निकायों में दो बच्चों से अधिक पर प्रतिबंध वाली शर्त को हटा दिया है। 

सरकार ने आन्ध्र प्रदेश नगर निगम अधिनियम-1955, एपी नगरपालिका एक्ट 1965 और एपी पंचायत राज एक्ट 1994 में किसी व्यक्ति को दो बच्चों से ज्यादा का पिता होने पर चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध की शर्त को ख़ारिज कर दिया था।  

लेकिन अब नायडू एक ऐसा फैसला लेने पर विचार कर रहे हैं, जो बेहद विवादास्पद साबित हो सकता है। इसके तहत जिन व्यक्तियों के दो से अधिक बच्चे होंगे, सिर्फ वे लोग ही स्थानीय निकायों के चुनाव में अपनी उम्मीदवारी की पात्रता के योग्य माने जायेंगे।  

सुनने में यह विचार बेहद विवादास्पद और प्रतिगामी लग सकता है, और इसके खिलाफ अदालतों में याचिकायें भी डाली जा सकती हैं।  लेकिन बड़ा सवाल है कि चंद्रबाबू जैसे पूंजी परस्त और आधुनिकतम सोच रखने वाले मुख्यमंत्री को आखिर यह सब क्या सूझ रही है? 

इसके अगले दिन ही तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने 31 जोड़ों के विवाह के अवसर पर अपने भाषण में विवाहित जोड़ों को आशीर्वाद के तौर पर 16 बच्चों का माता-पिता होने की बात कही।  यह बात उन्होंने इस सूक्ति को उधृत करते हुए कही, “पथिनारम पेत्रु पेरू वाज्ह्वु” अर्थात (16 प्रकार के धन और संपत्ति के साथ फलो-फूलो)। 

उन्होंने एक प्राचीन तमिल आशीर्वाद को दोहराते हुए कहा, ‘पधिनारुम पेत्रु पेरुवाझ्वु वाझ्गा’, जिसका अर्थ है ‘आप 16 बच्चे पैदा करें और एक खुशहाल जीवन जियें’।

उन्होंने आगे कहा, “आजकल हम किसी को भी जीवन में 16 बच्चों के धन-धान्य के साथ फलने-फूलने का आशीर्वाद नहीं देते।  हम हमेशा लोगों को सीमित परिवार के साथ खुशहाल जीवन जीने का वरदान दिया करते हैं।

लेकिन जब हम पाते हैं कि संसद में इसकी वजह से हमारी सीटें घट रही हैं, तो हमें सोचने को मजबूर होना पड़ रहा है कि हम छोटा परिवार किसलिए रखें। इस परिसीमन ने हमें सोचने पर विवश कर दिया है कि क्यों न हम 16 बच्चों वाला परिवार बनें।”

बता दें कि संसद में मौजूदा सांसदों की संख्या पिछली बार 1971 में परिसीमन में माध्यम से तय हुई थी, जिसे 1976 में परिसीमन आयोग के माध्यम से तय किया गया था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी कानून के तहत इस पर 2001 तक रोक लगा दी थी। 

एक और संसोधन से इसे 2026 तक के लिए रोक दिया गया था। तब यह आकलन था कि इस बीच सभी राज्यों में शिक्षा, स्वास्थ्य और परिवार नियोजन के बारे में जागरूकता इस हद तक स्थापित कर ली जायेगी कि देश में जनसंख्या की दर समान रूप से बढ़ेगी।  

लेकिन ऐसा न हो सका। उत्तर और पूर्वोत्तर भारत जनसंख्या में असामान्य वृद्धि का शिकार बने, और दूसरी तरफ शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योगधंधों के मामले में वे देश के बाकी हिस्से से लगातार पिछड़ते चले गये।  दूसरी तरफ, दक्षिण और पश्चिम भारत की आबादी में वृद्धि दर में भारी गिरावट देखने को मिली।  

उदाहरण के लिए, तमिलनाडु में टीएफआर जो 2010 में 1.8 थी, वह 2020 में घटकर 1.4 हो चुकी थी, जो कि प्रतिस्थापन टीएफआर की दर 2.1 से काफी नीचे है। 2.1 वह दर है, जिसमें जनसंख्या स्थिर बनी रहती है, और यही हाल समूचे दक्षिण भारत का है।  

दक्षिण के राज्यों की सबसे बड़ी चिंता यह है कि औद्योगिक उत्पादन के साथ वे देश की जीडीपी और जीएसटी में सबसे बढ़-चढ़कर योगदान दे रहे हैं, लेकिन उत्तर की तुलना में घटती आबादी के चलते विधायिका में ही नहीं बल्कि केंद्र सरकार के द्वारा वित्तीय आवंटन में भी उन्हें भेदभाव का शिकार होना पड़ेगा।    

सोचिये यदि आज भी उत्तर प्रदेश की लोकसभा की 80 सीटों पर जीत हासिल कर किसी भी राजनीतिक दल के लिए राष्ट्रीय राजनीति में अपने परचम को लहराना कितना आसान हो जाता है, तो परिसीमन के बाद उत्तर भारत की लोकसभा सीटों को जीतने के लिए सरे दल कितना ऐड़ी-चोटी का जोर लगा सकते हैं। 

इसी के मद्देनजर, नेहरु से लेकर नरेंद्र मोदी तक उत्तर प्रदेश को अपनी कर्मभूमि बनाते आये हैं। 2026 में यदि परिसीमन के बाद उत्तर प्रदेश में लोकसभा की कई सीटें 80 से बढ़कर 143 हो जाती है, तो इसका महत्व कितना अधिक बढ़ जायेगा?

इसी तरह पड़ोसी राज्य बिहार भी 40 के बजाय दुगुने के करीब 79 लोकसभा सीट पर काबिज हो जायेगा। अकेले ये दो राज्य देश में 222 लोकसभा सीटों का प्रतिनिधित्व करने लगेंगे, जबकि केरल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक मिलकर भी 164 सीटों पर ही अपनी हिस्सेदारी का दावा कर पाएंगे।   

वर्तमान में यूपी और बिहार लोकसभा की कुल 543 सीटों में से 80+40=120 सीटों का प्रतिनिधित्व करते हैं। अक्सर जिस दल या गठबंधन को इन दो राज्यों में बढ़त हासिल होती है, उसे देश की कमान संभालने का मौका मिलता आया है। 

जबकि दक्षिण के पांच राज्यों तमिलनाडु (39), केरल (20), कर्नाटक (28), आंध्र प्रदेश (25) और तेलंगाना (17) सीट मिलकर कुल 129 की संख्या का निर्माण करते हैं, लकिन हिंदी भाषी प्रदेशों का दबदबा जो आजादी के बाद रहा, वो आजतक कायम है, और आगे भी यही क्रम बने रहने की संभावना है।  

अनुमान है कि 2026 में परिसीमन के बाद लोकसभा की संख्या 846 के करीब हो सकती है, जिसमें दक्षिण भारत के अलावा पूर्वोत्तर के राज्यों का प्रतिनिधित्व वर्तमान की तुलना में और भी कम हो जाने वाला है। इसका अर्थ हुआ कि देश की राजनीति और अर्थनीति के निर्धारण में इन राज्यों की भूमिका पहले से भी कम हो सकती है। 

इसको लेकर सबसे अधिक दक्षिण के राज्य बैचेन हैं। इसकी ठोस वजह भी है।  

90 के दशक से पूर्व लगभग समान आर्थिक विकास के साथ उत्तर और दक्षिण भारत में कोई खास अंतर नहीं था, उल्टा पंजाब और दिल्ली जैसे प्रदेश आर्थिक तौर पर काफी सशक्त थे। लेकिन 90 के दशक से दक्षिण के राज्यों ने शिक्षा और स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान देते हुए कमजोर और वंचित तबकों के उत्थान पर विशेष जोर दिया। 

कह सकते हैं कि 70 के दशक से ही इन राज्यों की ओर से जो प्रयास किये गये, 90 के दशक से उसका फल इन प्रदेशों को प्राप्त होने लगा। 

समय के साथ इन प्रदेशों का आर्थिक विकास तेजी से जोर पकड़ता चला गया। देश का आईटी हब बनने के साथ-साथ विदेशी निवेश भी इन प्रदेशों में हुआ और बेहतर शिक्षा का परिणाम वहां की जनसंख्या में कमी में देखने को मिला। 

आज तमिलनाडु, कर्नाटक और तेलंगाना की विकास दर देश में सर्वाधिक है, और उत्तर एवं पूर्वी भारत से आने वाले श्रमिकों के बल पर इन राज्यों ने देश की जीडीपी में उल्लेखनीय योगदान दिया है।  

लेकिन उच्च शिक्षा और सीमित परिवार का नुकसान उन्हें अब परिसीमन के रूप में मिल रहा है। उनका तर्क है कि उन्होंने देश की जरूरत के मुताबिक उन योजनाओं को अपने राज्यों में लागू किया, और सफलता अर्जित की है। 

आज ईनाम के बदले में उन्हें ही दण्डित किया जाने वाला है, जबकि उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्य आबादी में विस्फोट लाकर भारत को जनसंख्या के लिहाज से विश्व का सबसे बड़ा देश बनाकर भी ज्यादा फायदे में रहने वाले हैं, जो कि सरासर अन्याय है।

इंदिरा गांधी ने जिस बात को 1976 में देख लिया था, 2024 में वह और भी विकराल स्वरुप ग्रहण कर चुकी है। लेकिन कांग्रेस की तब भी उत्तर और दक्षिण के राज्यों में समान रूप से लोकप्रियता बनी हुई थी, जबकि आज कांग्रेस उत्तर भारत में पूरी तरह से साफ़ हो चुकी है, और दक्षिण में भी एक-आध राज्यों को छोड़ दें तो वह गठबंधन के सहारे अपने वजूद को बनाये हुए है।

दूसरी तरफ, भारतीय जनता पार्टी ने मूलतः अपनी जडे़ं उत्तर भारत में मजबूती से जमा ली हैं, जिसे परिसीमन आयोग के गठन से प्रत्यक्ष लाभ होता दिख रहा है। 

लेकिन 2024 लोकसभा चुनाव में बीजेपी को उत्तर भारत में भी झटका लगा है, और 2014 से दो कार्यकाल पूरा करने के बाद पहली बार उसके पास पूर्ण बहुमत नहीं है। इसके लिए उसे आंध्र प्रदेश से चंद्रबाबु नायडू और जन सेना के कुल 18 सांसदों का मजबूत सहारा मिला हुआ है। 

लेकिन 2026 परिसीमन आयोग के माध्यम से नए सिरे से लोकसभा की सीटों के पुनर्वितरण के मामले पर ऐसा लगता है कि नायडू भी दक्षिणी राज्यों के साथ मजबूती से डटे रहने वाले हैं। केंद्र सरकार के पास परिसीमन का अधिकार है, लेकिन इसे सिरे चढ़ाने के बेहद गंभीर निहितार्थ हो सकते हैं, क्योंकि आबादी के एक बड़े हिस्से के लिए यह जीते-जी मक्खी निगलने के समान होगा। 

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