एक दिन
मेरे देश के
राजनीति-निरपेक्ष
बुद्धिजीवियों से
पूछेंगे ज़रूर
हमारे ये सीधे-सादे लोग.
उनसे पूछा जायेगा
कि उन्होंने क्या किया
जब उनका देश मर रहा था
एक धीमी मौत,
जैसे मरती है कोई
आंच धीमे-धीमे
निर्बल और असहाय.
उनमें से किसी से भी
नहीं पूछा जायेगा
उनकी पोशाकों और
दोपहर के भोजन के बाद की
उनकी लम्बी सुस्तियों के बारे में,
कोई नहीं जानना चाहेगा
किसी ‘अनर्गल विचार‘ के साथ
उनकी नपुंसक मुठभेड़ों के बारे में,
किसी को भी नहीं होगी परवाह
उनके प्रखर वित्तीय पाण्डित्य की.
कोई भी सवाल नहीं करेगा उनसे
ग्रीक पौराणिक कथाओं के बारे में,
या कि उस आत्म-विरक्ति के ही बारे में
जब उनके भीतर
मरना शुरू किया था किसी ने
एक कायर की मौत !
उनसे पूछा नहीं जायेगा कुछ भी
उन हास्यास्पद स्पष्टीकरणों के बारे में,
उपजते आये थे जो
उनके समग्र जीवन की छाया में.
उस दिन
आयेंगे ही वे सब साधारण लोग
जिनके लिये नहीं थी कभी कोई जगह
राजनीति-निरपेक्ष उन बुद्धिजीवियों की
किताबों और कविताओं में,
पर जिनके लिये रोज़ पहुंचाते आये थे
वे दूध और ब्रेड,
टोर्टिला और अण्डे,
चलायी थी उनकी कार,
देखभाल की थी
उनके कुत्तों और उद्यानों की
उनके लिये श्रम किया था
वे पूछेंगे ज़रूर:
‘तुमने क्या किया था
जब यातना भोग रहे थे गरीब लोग,
कोमलता और जीवन को जब
उनके भीतर से निकाल कर
जलाया जा रहा था ?’
ओ राजनीति-निरपेक्ष बुद्धिजीवियो
मेरे प्यारे देश के,
तुम क़ाबिल ही नहीं होगे
उनके जवाब देने के.
ख़ामोशी का एक गिद्ध
भक्षण करेगा तुम्हारी अंतड़ियों का.
तुम्हारा अपना ही दु:ख
चोट करेगा तुम्हारी आत्मा पर.
और गड़ जाओगे तुम अपनी ही शर्म में देखना.
- अटो रेने कस्तिय्यो, कवि एवं एक्टिविस्ट, ग्वाटेमाला
अंग्रेज़ी से अनुवाद व प्रस्तुति- राजेश चन्द्र