पुष्पा गुप्ता
मार्क्स ने आदिम साम्यवाद और मानवीय विकास क्रम में हैवानियत, बर्बरता आदि की अवधारणाएं मॉर्गन (Lewis H. Morgan) की पुस्तक पढ़ने से बहुत पहले ही बना ली थीं।[1]
मार्गन की पुस्तक Ancient Society से उनकी धारणाओं की पुष्टि मात्र हुई थी। परंतु यदि मार्क्स, एगेल्स या मॉर्गन मे से किसी को भारतीय पौराणिक स्रोतो का अच्छा परिचय रहा होता और उन्होंने इसका बारीकी से विश्लेषण किया होता तो सामाजिक विकास की अधिक विश्वसनीय तस्वीर पेश कर पाए होते।
तब यह बात भी अधिक स्पष्ट हो जाती कि मनुष्य की प्रकृति में स्वतंत्रता और समानता की ललक निसर्गजात है। जब तक उसकी नैसर्गिक अभिलाषा की पूर्ति नहीं होती, वह विक्षुब्ध रहेगा, अराजक और विध्वंशक बना रहेगा। अहंकारवश, दूसरों का ही नहीं. अपना भी विनाश करने को तत्पर है रहेगा।
पहले इस कथन को समझने में झिझक हो सकती थी परंतु आज की स्थिति में इसे मामूली जानकारी और समझ वाला व्यक्ति भी समझ लेगा। मार्क्सवाद और साम्यवाद के पक्ष में इससे बड़ा कोई दूसरा तर्क नहीं किया जा सकता था।
भारतीय पौराणिक वृत्तों की सतही जानकारी के कारण समाजवाद का रूपाकार तो बना; उसकी अंतरात्मा की समझ पैदा नहीं हुई।
मानव समाज का भौतिक विकास सामाजिक न्याय की कीमत पर होता आया है। हम इसकी व्याख्या में उलझने से बचना चाहेंगे, परंतु दो तथ्यों को रेखांकित करना जरूरी लगता है।
पहला यह कि भारतीय पौराणिक स्रोतों में सामाजिक-आर्थिक विकास का जो चित्रण मिलता है, वह मार्क्स और एंजेल्स द्वारा प्रस्तुत विकास क्रम से अधिक तार्किक, वैज्ञानिक और प्रामाणिक है।
हैवानियत, बर्बरता, निजी संपदा, दासता, वर्गविभाजन, राजसत्ता का उदय आदि सभी स्थापनाएं यांत्रिक, और नियतिवादी हैं। ये सामाजिक विकास को समझने में रुकावटें भी डालती हैं। इनको अपरिहार्यता मान लेने के बाद तो कार्ल मार्क्स को किसी अदृश्य शक्ति के अस्तित्व में अविश्वास करने का कोई कारण ही नहीं था।
मार्क्सवाद का एक ही अटल सूत्र है – द्वंद्वात्मक भौतिकवाद जो भी दो सूत्रों का समाहार है। यदि दृष्टि सही तो ऐसी स्थापनाओं के वैज्ञानिक प्रमाण आगे चल कर मिलते हैं जैसा कि मार्क्स की सामाजिक विकास, ईश्वर और धर्म की व्यर्थता और द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की अवधारणा के मामले में पाया जाता है। इस पर ध्यान दें कि जब मार्क्स ने इसका प्रतिपादन किया था तब तक डार्विन का The Descent of Man, and Selection in Relation to Sex (1871) का प्रकाशन नहीं हुआ था; मॉर्गन का Ancient Society (1877) का प्रकाशन नहींं हुआ था।
विश्व की रचना अतिसूक्ष्म कणों (अणुओं) से हुई है यह बोध बहुत पुराना है परंतु इन परमाणुओं की संरचना और इसकी द्वन्द्वात्मक प्रकृति की समझ बीसवीं शताब्दी में पैदा हुई।[2]
जहां तक द्वंदात्मक भौतिकवाद के ऐतिहासिक होने की बात है, उसका बुनयादी सिद्धांत कि सभी समाज आदिम अवस्था से आगे बढ़ते हुए आज की अवस्था तक पहुंचे हैं, सही है। पर सभी समान अनुभवों से गुजरे हैं, और उन अवस्थाओं से गुजर कर ही अगले चरण पर पहुंच सकते थे और इसलिए वे अवस्थाएं यदि अन्यायपरक या अमानवीय थीं तो भी उन्हें (जैसे दासता को) एक अनिवार्य बुराई माना जा सकता है, यांत्रिक, भ्रामक और गलत है।
पर हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि 19वीं शताब्दी तक पूरे विश्व में इतिहास की सही प्रकृति की समझ नहीं थी और कोई भी विचारक अपने समय के सूचना से आगे नहीं जा सकता इसलिए मार्क्स भी न जा पाए । इतिहास की सही समझ डार्विन की कृति के प्रकाशन (1871) के साथ भी नहीं पैदा हुई बल्कि इसको ले कर पैदा हुए बौद्धिक तूफान के थमने के बाद आरंभ पैदा हुई।
ऐतिहासिक पक्ष आज के अनुसंधान के प्रकाश में सुधार की अपेक्षा रखता है। इसको दबाव में आधुन्क जरूरतों के अनुसार इतिहास को गढ़ने, अर्थात् नष्ट करने की झक पैदा हुई जिसके कारण इतिहास से हम कुछ सीख न सके। भारत के पौराणिक साहित्य का उसी बारीकी से अध्ययन-विश्लेषण करनी चाहिए थी जिससे पुरातत्वविद पुरातात्विक संपदा की करता है।
हमारे राष्ट्रवादी करार दिए जाने वाले इतिहासकारों ने भी यह काम नहीं किया, मार्क्सवादियों ने इसका सत्यानाश कर दिया। सही विश्लेषण के बाद भारतीय पौराणिक सामग्री उतनी ही विश्वसनीय है जितना पुरातत्व और नृतत्व और तीनों एक दूसरे के अनुपूरक हैं।
पौराणिक सूचनाओं के आधार पर उजागर होने वाले इतिहास का सार यह कि किन्हीं असाधारण परिस्थितियों में भारतीय भूभाग में असंख्य जत्थे दुनिया के लगभग सभी कोनों से एकत्र हुए थे और उनके बीच आहार की समस्या अपने उग्रतम रूप में उपस्थित थी।[3]
ये अपना निर्वाह आहार संग्रह, शिकार, मछियारी से करते थे। उपस्थित जनों की भीड़ के कारण हमारा इतिहास जनसंख्या की अनुपातहीन वृद्धि (जनानां अतिवृद्धानां युगांते समुपस्थिते। और आश्चर्य यह है कि कम से कम ऐसे तीन युगांतरो – आहार की उपलब्धता के अनुपात में जनसंख्या की बृद्धि के कारण आहार के स्रोतों के अतिदोहन से उत्पन्न दुर्भिक्ष में अकल्पनीय पैमाने पर मौत और उसके बाद अतिदुग्ध स्रोतो के उर्वरता खो देने के बाद अनिवार्य विश्वव्यापी नरसंहार से बचे लोगों के साथ जीविका और संयम का युगांतर होगा।
क्या सचमुच कलि अवतार होने को है और वैज्ञानिक युग उसकी पूर्वपीठिका था? हो, कुछ भी पुराणों का पुरातात्विक विशेलेषण किसी भी विज्ञान की समकक्षता में आता है क्योंकि इसमें लेखन के बाद के तथ्यों की तुलना में कई गुना मानवीय अतीत के अनुभव सत्य उपलंब्ध हैं।
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[1]Morgan in his own way had discovered afresh in America the materialistic conception of history discovered by Marx forty years ago, and in his comparison of barbarism and civilisation it had led him, in the main points, to the same conclusions as Marx. And just as the professional economists in Germany were for years as busy in plagiarising Capital as they were persistent in attempting to kill it by silence, so Morgan’s Ancient Society received precisely the same treatment from the spokesmen of ‘prehistoric’ science in England. My work can offer only a meagre substitute for what my departed friend no longer had the time to do. ( Engels,. Preface to the first edition of The Origin of Family, Private property and State, 1884)
[2]इससे मिलते जुलते निष्कर्ष पर भारतीय चिंतक कैसे पहुंचे थे यह एक रहस्य है। अंतर्विरोध (द्वंद्व) सत-तम (पोजिट्रॉन-न्यूट्रॉन) से रज (इलेक्ट्रॉन) विचार पैदा होता, विचार से प्रकृति नहीं पैदा की जा सकती। रज से सत और तम नहीं पैदा हो सकते। उनके युग्म के बिना रज भी संभव नहीं था।यदिभारतीय चिंतन में यह एक वाक्य होता तो उसे हम एक संयोग कर सकते थे।
परंतु भारतीय चिंतन के केंद्र में है प्रकृति की त्रिगुणात्मकता। इस पर लगातार मंथन होता रहा है यह हम ही ब्रह्म है की उपनिषदिक मीमांसा में देख सकते हैं।
[3] माल्थस के सिद्धांत के बाद अनेक विख्यात विद्वानों ने (विलियम जोन्स, कोसंबी आदि) वर्तमान मानव जनसंख्या में वृद्धि दर को ध्यान में रखते हुए पश्चवर्ती क्रम से विविध चरणों की जनसंख्या का निर्धारण करते हुए, कुछ ही हजार साल पहले, मात्र एक जोड़े से आधुनिक जनसंख्या तक का रास्ता तय कर लिया है। इसे शेखचिल्ली गणित कहते हैं जिसका अंत त्रासदी में होता है।
यदि हम 6000- 7000 साल पहले के पुरातात्विक स्थलों और अन्य प्राचीन स्थान नामों को ही ध्यान में रखें तो पता चलेगा कि असंख्य मानव समुदाय, अपनी पृथक पहचान रखते हुए भारत में स्थाई रूप में निवास करते या विचरण करते थे -मग, मंग, कोल, होर, मुंडा, कस, सक, जच्छ, गीध, संड, मतंग, सबर, मीन, मच्छ, काक, कूकुर, रीछ. बानर, बाघ, बग/बंग, अग/अंग, नग/नंग/नाग लंग/रंग, झंग, डोंम, मूसिक, लोध/लोढ, अंध, हंड, कल्ल, जल्ल, मल्ल, भल्ल/भिल्ल,ढल्ल/ढिल्ल आदि का नाम तो बिना किसी श्रम के याद आते हैंं। सर्वेक्षण कराया जाए को संख्या हजारो तक पहुंचेगी।
पौराणिक साहित्य में बार बार जनसंख्या की अतिवृद्धि और खाद्यान्न के संकत के कारण प्राकृतिक स्रोता के भी नष्ट होने से बहुत बड़े पैमाने पर मृत्यु और फिर बचे हुए लोगों द्वारा जीविका के पुराने साधनों के पुनर्जीवित करने के प्रयत्न और असके भी पर्याप्त न होने की दशा में नये तरीकों की खोज जिससे कृषि के आरंभिक प्रयोग व्यापक विरोध और प्रतिरोध के बाद आरंभ हुए जिसने लंबे समय के बाद स्थियी खेती का रूप लिया।