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सबसे ऊँचा चोर ही लगाते हैं राष्ट्र की रक्षा का नारा

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अमिता नीरव

शादी के बाद के शुरुआती सालों में हमारे यहाँ जो दूधवाला आता था, वो बहुत मीठा बोलता था और बहुत विनम्र था। एक दिन मेरे देवर ने मुझसे कहा, ‘ये आदमी शातिर है!’ मैं समझ नहीं पाई। इतने अच्छे से तो बोलता है, कितना विनम्र भी है। मैंने पूछा, ‘ऐसा क्यों कह रहे हो?’

देवर ने कहा, ‘जरूरत से ज्यादा मीठा बोलता है। अतिरिक्त रूप से विनम्र है!’, मुझे थोड़ा अटपटा लगा। मैंने कहा, ‘ये तो उसकी खूबी है, यह कब से बुराई हो गई है?’ उसने जवाब दिया, ‘कोई अतिरिक्त रूप से सज्जन होता है तो वह उसे छुपाने की कोशिश करता है, जो वह असल में होता है।’

हालाँकि मुझे बात समझ नहीं आई थी, लेकिन मैंने बात को भविष्य के लिए सहेज ली थी। अखबार में काम की शुरुआत रीजनल डेस्क से हुई थी। ट्रेनिंग खत्म करके नई-नई डेस्क पर आई थी। हमारे इंचार्ज बहुत सरल, शांत और स्नेहिल इंसान थे। बहुत धैर्य से सिखाते थे। कई बार बहुत बारीक बात भी कह जाते थे।

एक दिन मैं अपनी न्यूज कॉपी उनसे चेक करवा रही थी, कॉपी उनके हाथ में थी, तभी सुदूर जिले के एक संवाददाता उनसे मिलने आ गए। संवाददाता ने झुककर उनके पैर छुए, तो इंचार्ज ने उसे सख्ती से कहा, ‘पैर-वैर मत छुआ कीजिए!’ जिस तरह से उन्होंने कहा वो उनके स्वभाव के बिल्कुल विपरीत था। मुझे अजीब लगा था।

शायद वे मेरा मन समझ गए थे, इसलिए संवाददाता के जाने के बाद वे बोले, ‘मुझे इससे बहुत डर लगता है।’ मेरे लिए ये थोड़ी नई बात थी। मैंने पूछा, ‘इनसे डर! क्यों?’ वे अपनी चिर-परिचित सौम्य मुस्कुराहट बिखेर कर बोले, ‘बहुत ज्यादा झुकने वाले लोग खतरनाक होते हैं!’ यह बात उसी खाने में सहेज ली गई थी।

महावीर के अपरिग्रह का सिद्धांत मेरे लिए बड़ी अटपटी बात है। महावीर के सिद्धांतों के बिल्कुल उलट जैन समुदाय अति परिग्रही है, लेकिन सवाल यह उठा था कि महावीर ने अपने समय में अपरिग्रह को अपना संदेश क्यों बनाया था? और यह भी कि अपरिग्रह के सिद्धांत के बावजूद जैन इतने परिग्रही कैसे हैं?

सदी के पहले दशक में जैन संत मुनि तरुण सागर के कर्कश आवाज में प्रवचन बहुत प्रचलित थे। अक्सर उनके प्रवचन में सास-बहु की कहानियाँ हुआ करती थी। अलग-अलग जगहों पर उनके प्रवचन सुनाई दिया करते थे। अक्सर सोचती थी कि सास-बहु की कहानियाँ टीवी सीरियल से निकल कर धार्मिक प्रवचनों का हिस्सा कैसे और क्यों हो गई। जल्द ही समझ आया कि जैन समुदाय में शायद ये ज्वलंत समस्या होगी।

कई बार मन में कुछ बड़े अटपटे सवाल भी उठते हैं जैसे महावीर ने अपरिग्रह, बुद्ध ने अहिंसा और करुणा, कृष्ण ने युद्ध, ईसा मसीह ने क्षमा, पैगंबर हजरत मोहम्मद ने समानता को अपने संदेश के लिए क्यों चुना? मतलब ऐसा भी हो सकता था कि बुद्ध युद्ध को, कृष्ण अपरिग्रह को,  ईसा मसीह समानता को और हजरत मोहम्मद क्षमा को चुन लें।

फिर समझ आया कि महावीर का अपरिग्रह असल में तत्कालीन समाज के परिग्रह का निषेध है, हिंसा और क्रूरता के निषेध के तौर पर बुद्ध की अहिंसा और करूणा ने जन्म लिया होगा। युद्ध से पलायन के अर्जुन के संकल्प से कृष्ण की युद्ध की प्रेरणा जन्मी होगी। प्रतिशोध के दौर में यीशू ने क्षमा को प्रतिष्ठा दी होगी और इंतिहाई असमानता देखकर पैगंबर के मन में समानता का विचार आया होगा।

हर सिद्धांत तत्कालीन सामाजिक व्यवहार का निषेध होता है यह तो ठीक है, लेकिन इससे आगे की बात यह है कि प्रचलित और स्थापित सिद्धांत वास्तविक सामाजिक व्यवहार की ढाल बनते जाते हैं। जैसे प्रायः विनम्रता की आड़ में धूर्तता और मीठा बोलने की आड़ में चापलूसी होती है।

जैसा कि अज्ञेय ने अपने किसी उपन्यास में कहा कि, ‘जो व्यक्ति जैसा है उससे उलट वह अपने सिद्धांत गढ़ लेता है औऱ उनका प्रचार करता फिरता है, इससे एक तो वह ठीक-ठीक समझ में नहीं आ पाता औऱ दूसरी ओऱ वह अपने अंतस के प्रकटन को बचा ले जाता है। इसे क्षतिपूर्ति का सिद्धआंत कहा जाता है।’

कल ही सोशल मीडिया पर परसाई जी के नाम पर एक पोस्टर  घूम रहा था, जिसमें लिखा था कि, ‘कभी-कभी राष्ट्र की रक्षा का नारा सबसे ऊँचा चोर ही लगाते हैं। राष्ट्र की रक्षा से कभी-कभी चोरों की रक्षा का मतलब भी निकलता है।’ जैसे नाथूराम गोड़से ने गाँधीजी को गोली मारने से पहले उनके पैर छुए थे।

कहना सिर्फ इतना है कि #हर_घर_तिरंगा अभियान का शगूफा कहीं सामाजिक और राजनीतिक जीवन में गहरे पैठे भ्रष्ट, अमानवीय, परपीड़क, अन्यायी और शोषक समाज की क्षतिपूर्ति का प्रयास तो नहीं है! आजादी के अमृत महोत्सव के मौके पर कहीं हम अपने हिपोक्रेट स्वभाव को तिरंगे की आड़ में छुपा तो नहीं रहे हैं?

अक्सर सिद्धांत प्रचलित व्यवहार की क्षतिपूर्ति होते हैं।

#सूत्र_विस्तार

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