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तभी समाप्त होगी सड़ती विवाह संस्था

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 प्रिया सिंह (लखनऊ)

लोग नयी पौध लाते हैं 

नर्सरी वाले से 

तो हजार बात पूछते हैं,

पानी कितना

खाद कब कब

     मौसम के हिसाब से देना

धूप नहीं आती है

इण्डोर रखनी है

      बागीचे की मिट्टी रेतीली है 

गमले की पथरीली है 

चल तो जायेगी न पौध ?

एक स्त्री को जब

ब्याह कर लाते हैं

न तो जमीन से उखाड़ कर 

देने वाला

ज्यादा कुछ सोचता है 

न ही अपनी जमीन पर 

ला कर रोपने वाला

कुछ पूछता है

जाहिर सी बात है 

ये भी क्या पूछने

वाली बात है ?

उसे बिन धूप,

जमीन पकड़ना होगा

खाद मिट्टी न भी

हो तो सहना होगा

लगने लगें जड़ें

जब सूखी

खुद पानी बन कर

लगना होगा

मौसम कोई आये जाये

सदाबहार ही

रहना होगा !

      भेज दी, ले आये

अब वो जाने

उसका काम जाने !

जिस दिन एक एक कर 

सबकी बेटियाँ मायके

 लौट आयेंगी 

उस दिन विवाह नामक

 सँस्था की 

सारी अव्यवस्थाएँ

स्वत: ही समाप्त हो जायेंगी

और तभी 

शायद इसमें पसरी

खामोशियों भरी

 खामियों दूूर होकर 

एक नयी व्यवस्था

 बन पायेगी 

जिसमें चाहे

स्त्री हो या पुरुष 

सबको समान रूप से

सम्मान, आदर और 

मान के साथ जीने का

अधिकार होगा।

    (चेतना विकास मिशन)

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