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ओपी नैय्यर….मेरी दुनिया लुट रही थी और मैं ख़ामोश था

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दिलीप कुमार

आज से करीब एक सदी पहले भी पंजाब में लोहड़ी का उत्साह पूरे हफ्ते भर रहता था. लेकिन उस साल लाहौर के नैय्यर परिवार के लिए यह उत्साह और खुशी दो-गुनी थी और कई हफ्तों चलने वाली थी. लोहड़ी के तीन दिन बाद यानी 16 जनवरी, 1926 को उनके घर के एक बेटे ने जन्म लिया था. उसका नाम रखा गया ‘ओम प्रकाश’ जिसे हम ओपी नैय्यर के नाम से जानते हैं.सिर्फ संगीत की वजह से ही नहीं ओपी नैय्यर को अपनी शख्सियत की वजह से भी हिन्दी सिनेमा के सबसे अलहदा संगीतकारों में शुमार किया जाता है. इस शख्सियत की पहली खासियत विद्रोही स्वभाव थी. कहते हैं कि उनके पिता परम अनुशासित व्यक्ति थे. बचपन में नैय्यर ने पिता जी से इतनी मार खाई कि विद्रोह तब से ही उनके स्वभाव का हिस्सा बन गया. ऐसा विद्रोह, ऐसी सख्ती जिसे उनके भीतर बह रहा संगीत का तरल बहाव भी नरम नहीं कर पाया और एक दिन किसी बात का विरोध करते हुए उन्होंने घर ही छोड़ दिया.

ओ.पी. नैय्यर के बारे में दुनिया जो भी कहे, खुद उन्होंने अपने संगीत के बारे में बड़ी मज़ेदार बात कही, ‘मैं इंडस्ट्री का सेकंड बेस्ट संगीतकार हूं. बाकी के लोग नंबर एक के लिए लड़ सकते हैं’.

विद्रोही एवं जिद्दी हुए बिना आप रचनात्मकता सृजन तो कर सकते हैं, लेकिन आप अद्वितीय प्रतिभा का सृजन नहीं कर सकते, यह बात कितनी तथ्यात्मक है, कोई भी नहीं बता सकता. फिर भी अगर’ओपी नैय्यर’ के संगीत को इस कसौटी पर रखकर देखें तो लगता है, कि अग्रेषण, जिद्दी हुए बिना कोई कुछ सृजन नहीं कर सकता, और मजबूरी में ही इस तथ्य को मानना पड़ेगा. ओपी नैय्यर’ एक अजूबे किस्म के संगीतकार थे, न तो कोई स्कूली शिक्षा, और न ही संगीत की शिक्षा मिली, फिर भी ज़िन्दगी में कोई रास्ता नहीं मिला. आख़िरकार ‘ओपी नैयर साहब’  ने भी अपना रास्ता खोज लिया, जहां उन्हें जाना था. अनोखे संगीतज्ञ  ‘ओपी नैयर’ ने बचपन के अपने हार्मोनियम के प्रेम एवं संगीत के लगाव से वास्ता रखा एवं हिन्दी सिनेमा को ऐसे मदमस्त संगीत से सुसज्जित कालजयी संगीत रचा. नैय्यर साहब के संगीत में वो नशा होता है, जो मधुशाला सोमरस में भी न हो. मधुबाला की नशीली आँखों की अदा को नैयर साहब के संगीत ने ही पर्दे पर उकेरने में महत्वपूर्ण योगदान दिया.  ‘ओपी नैय्यर साहब’ के संगीत में न जाने कौन सी खूबी थी, कि उनके तिलिस्मी समन्दर में जो एक बार डुबकी लगा लेता, फ़िर निकलने का मन नहीं करना चाहता. कई दशकों से चला आ रहा संगीत में धुनों की जादूगरी का सिलसिला बदस्तूर जारी है. नैय्यर साहब की नशीली धुनों का सावन आज भी जवान है. घमंड एवं आत्मसम्मान में बहुत नज़दीकी संबंध होता है. कभी आत्मसम्मानी व्यक्ति को घमंडी समझ लिया जाता है. कभी घमंडी को आत्मसम्मानी समझ लिया जाता है. यूँ तो अत्यंत प्रतिभाशाली व्यक्ति कम समझ आता है, उसके अवचेतन मन को समझना मुश्किल होता है. ‘ओपी नैय्यर साहब’ को हम इस अवलोकन में ले जाने का क्या औचित्य है. नैय्यर साहब को बागी संगीतकार कहा जाता है. उन्होंने बगावत सबसे पहले अपने घर से की, 12 साल की छोटी सी उम्र में अपना घर छोड़ दिया. नैय्यर साहब के यही तेवर कायम रहे, जीवन के अंतिम पड़ाव में भी नैयर साहब ने अपनी पत्नी – बच्चों से बगावत करते हुए घर छोड़ दिया. नैय्यर साहब ने आलीशान बंगले से एक पेइंग गेस्ट में खुद को पहुंचा दिया. नैय्यर साहब के तेवर के कई रोचक किस्से आम हैं. कभी – कभार नैय्यर साहब की शख्सियत को समझने में सिरहन पैदा होती है, कि क्या इस तरह की अकड़ से साथ बुलन्दियों तक कोई पहुंच सकता है. यक़ीनन नैय्यर साहब शीर्ष के सर्वकालिक महान संगीतकारों में शुमार हैं.

‘नैय्यर साहब’ जैसे बेपरवाह लोग मुझे व्यक्तिगत तौर पर बहुत पसंद आते हैं. एक दौर था, जब पार्श्वगायन में हिन्दी सिनेमा लता मंगेशकर के साथ कदमताल कर रहा था, तब नैयर साहब ने लता मंगेशकर की आवाज़ को यह कहकर ख़ारिज कर दिया था, कि उनकी आवाज़ बच्चों जैसी है, कोई खास बात नहीं है. बगावती नैय्यर साहब ने संगीत की दुनिया में एक नई धारा ही बहा दी. लता मंगेशकर के सामने उनकी ही छोटी बहिन आशा भोसले को लेकर आए. हिन्दी सिनेमा भी असमंजस में पड़ गया था, कि आख़िरकार प्रमुख गायिका के रूप में किसे चुना जाए, लता मंगेशकर को या आशा भोसले को….वैसे दोनों बहिनों की गायिकी का मयार बहुत ऊंचा है.

नैय्यर साहब के तेवर नापने वाला कोई मापक बना ही नहीं है. फिर भी उनकी शख्सियत का ताब देखने समझने के लिए इस तथ्य को देखा जाए तो नैय्यर साहब अलग ही लीक के कलाकार समझ आते हैं. दरअसल मध्यप्रदेश सरकार ने 90 के दशक में संगीत विधा में उच्चतम योगदान के लिए लता मंगेशकर सम्मान की स्थापना की. नियति भी अज़ीब है, इस प्रतिष्ठित अवॉर्ड के लिए सबसे पहले नैय्यर साहब को चुना गया, लेकिन अपनी अलग ही धुन में रहने वाले नैय्यर साहब ने इस सम्मान को लेने से मना कर दिया. नैय्यर साहब से पूछा गया, “आपने इस प्रतिष्ठित सम्मान को लेने से मना क्यों कर दिया”?नैयर साहब ने जो कहा, “वह वो ही बोल सकते थे” , “उन्होंने कहा मैंने लता मंगेशकर से आजीवन कोई गीत नहीं गवाया, और न ही मैंने उनकी कोई तारीफ़ तो छोड़िए, मैंने उनको कभी एक गायक के रूप में स्वीकार ही नहीं किया, और यह कारण न भी हो तो भी मैं यह सम्मान नहीं ले सकता, क्योंकि मैं संगीतकार हूं, किसी गायक के नाम के अवॉर्ड को मैं कैसे ले सकता हूं,इससे मेरा सम्मान नहीं बढ़ेगा”. यह नैय्यर साहब का अपना मानना था, कई बार व्यक्ति अपनी बातों को भी भूल जाता है. कहते हैं कि उस तत्कालीन समय में नैय्यर साहब की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, और इस अवॉर्ड से सम्मानित व्यक्ति के लिए एक लाख रुपये दिए जाते थे, लेकिन नैयर साहब अपनी धुन के पक्के थे. अंततः उन्होंने सम्मान लेने से मना कर दिया. इसीलिए कहा जाता है, नैय्यर साहब जैसे ज़हीन प्रतिभाशाली व्यक्तियों को समझना बड़ा मुश्किल है. नैय्यर साहब ने लता मंगेशकर को अपने निर्देशन में कभी गवाया ही नहीं. उनका प्रण था, कि अभी लता मंगेशकर से नहीं गवाऊँगा, और उन्होंने अपनी इस कसम को आजीवन निभाया. इसी कसम के कारण हिन्दी सिनेमा को आशा भोसले जैसी अद्वितीय गायिका मिलीं. आशा जी को निखारने से लेकर स्थापित करने तक का श्रेय नैय्यर साहब को ही जाता है, लेकिन सन 1974 में आशा जी ने अपने गॉड फ़ादर नैय्यर साहब से किनारा कर लिया, और “पंचम दा” का दामन थाम लिया. इसके बाद नैयर साहब ज़िन्दगी में एवं संगीत की दुनिया में फिर उभर नहीं सके. 

मेरी दुनिया लुट रही थी, और मैं ख़ामोश था. टुकड़े – टुकड़े दिल के चुनता किसको इतना होश था. यह गीत गुरुदत्त साहब की फिल्म mr. & mrs 55 का था. जिसमें संगीत की धुनें तीव्र थी, एवं स्वर दुःखी थे. संगीत का ऐसा विरोधाभास हर किसी के बस की बात नहीं है. यह कारनामा नैय्यर साहब ही कर सकते थे. यूँ लगता है जैसे यह गीत नैयर साहब की जिंदगी को बयां कर रहा है. नैय्यर साहब घोड़ों की टाप, तालियों की आवाज़, आदि की आवाजों से संगीत की धुनों का निर्माण करने में पारंगत थे. बी आर चोपड़ा की फिल्म “नया दौर” में चलती बैलगाड़ी में दिलीप कुमार& वैजयंतीमाला अभिनीत गाने ‘मैंने मांग लिया संसार’ में घोड़े की टाप की धुन पर नैय्यर साहब ने संगीत रच दिया था. यह बड़े बैनर की शायद उनकी इकलौती फ़िल्म थी. नैय्यर साहब बड़े बैनर तले काम बहुत कम करते थे, क्योंकि उनका ताब बहुत तेज़ था, उनका ताब सहना हर किसी के बस की बात नहीं थी. हालाँकि नैय्यर साहब अपने समकालीन संगीतकारों में सबसे ज्यादा पैसे लेते थे. 50 के दशक में आल इंडिया रेडियो ने नैय्यर साहब के संगीत को ज्यादा मॉर्डन और पश्चिमी कल्चर से प्रेरित बताते हुए उनके गानों पर बैन लगा दिया था. नैय्यर साहब के गीत रेडियो पर काफी लंबे समय तक नहीं बजाए गये. हालांकि इस बात से उन्हें कोई फर्क़  नहीं पड़ा. वे अपनी ही धुन में एक से बढ़कर एक धुन बनाते रहे. उनका प्रत्येक गीत अपने आप में इतिहास है.

यूँ तो नैय्यर साहब बंबई अभिनेता बनने आए थे, लेकिन उनको रिजेक्ट कर दिया गया, लेकिन उनको रिजेक्शन के साथ ही हिदायतें मिलीं की आप कुछ और करिए, अभिनय आपके बस की बात नहीं है. नैय्यर साहब की ज़िन्दगी में कोई दूसरा चारा नहीं था, अंततः उनको याद आया कि मैं बचपन में हार्मोनियम बजाता था, मैं भी संगीतकार बनना चाहूँगा. आख़िरकार 1949 में उन्हें फिल्म कनीज़ में उन्हें बैकग्राउंड म्युज़िक रचने का काम मिला. फिर बतौर संगीतकार 1952 में फ़िल्म ‘आसमान’ में उन्हें काम मिला, लेकिन कोई खास पहिचान नहीं बनी. नैय्यर साहब दो साल तक खूब प्रयास करते रहे, आख़िरकार दो साल बाद उन्हें महान गुरुदत्त साहब के साथ काम करने का मौका मिला. सन 1954 में गुरुदत्त साहब ने नैय्यर साहब को बतौर संगीतकार फिल्म आर – पार के लिए साइन किया. इस फिल्म के गीतों ने बुलन्दियों के फलक को छू लिया था. इस फिल्म के संगीत के बाद नैय्यर साहब की धमक हिन्दी सिनेमा में खूब सुनाई देने लगी थी. गुरुदत्त साहब के साथ नैय्यर साहब ने खूब सफलता हासिल की. आर – पार, मिस्टर & मिसेज 55,सीआईडी आदि कालजयी फ़िल्मों में संगीत दिया. ‘मिस्टर & मिसेज 55’ फिल्म में कॉमेडियन जॉनी वॉकर साहब के ऊपर एक गीत फ़िल्माया गया गीत के बोल ‘ए दिल है मुश्किल जीना यहां ज़रा हटके ज़रा बचके ये है बंबई मेरी जान’ इस गीत को देखा न जाए, केवल सुना जाए तो यकीन कर पाना संभव नहीं कि यह गीत एक कॉमेडियन के लिए बनाया गया है. दादा मुनि अशोक कुमार की कालजयी फिल्म “हावड़ा ब्रिज” के “आइए मेहरबा” को कौन भूल सकता है, जिसमें मधुबाला खड़े हुए आखों से अदाकारी दिखा रही हैं, इस गीत का नशा कुछ ऐसा है, कि मधुबाला के नशीले अभिनय को बाहर ले आने में नैय्यर साहब के संगीत का अहम योगदान है.

नैय्यर साहब की आशिक मिजाजी उनके साथ आजीवन साथ रही कॅरियर के शुरुआत में नैय्यर साहब ने म्युजिक टीचर की नौकरी की, लेकिन नैयर साहब को स्कूल की महिला हेडमास्टर से इश्क़ हो गया, जिससे उनको स्कूल से निकाल दिया गया. शुरुआती दौर में एच. आत्मा नामक एक सिंगर थे, जिनका एक गीत था, जो अपने दौर में बहुत लोकप्रिय हुआ था. गीत के बोल थे, ‘प्रीतम आन मिलो’ इस गीत के संगीतकार नैय्यर साहब ही थे, जिनको मेहनताना 12 रुपए मिले थे. बाद में गुलज़ार की कालजयी फिल्म ‘अंगूर’ में इस गीत के मुखड़े का उपयोग किया गया. निजी जीवन में नैय्यर साहब हिचकोले खाते रहे, यूँ आशा भोसले जी एवं नैय्यर साहब चौदह साल साथ काम करते हुए आशा जी को स्थापित करने तक प्रेम परवान चढ़ा.  नैय्यर साहब का आधुनिक एवं नशीला संगीत यूँ लगता था, मानो यह आशा जी के लिए ही बना है. इतना लंबा चला प्रोफेशनल एवं प्रेम का रिश्ता आख़िरकार 1974 में टूट गया. आख़िरी गीत दोनों का ‘प्राण जाए पर वचन न जाए से दोनों अलग हो गए, इस गीत में आशा जी ने दर्द का ऐसा प्रवाह किया, पता नहीं क्या वो अपनी भावनाओं में बहा ले जाना चाहती थीं….. इस रिश्ते के बाद नैय्यर साहब न पेशे में और न ही ज़िन्दगी में फ़िर वो सक्रिय नहीं रहे.

रफी साहब के सबसे पसन्दीदा संगीतकार ओपी नैय्यर साहब थे. ओपी नैय्यर समय के बहुत पाबंद थे. वो तय समय पर पर अपने रिकॉर्डिंग स्टूडियो का दरवाज़ा बंद कर दिया करते थे. उसके बाद किसी को अंदर नहीं आने दिया जाता था. रफ़ी साहब भी समय के बहुत पाबंद थे. एक बार उन्हें आने में एक घंटे की देरी हो गई. फिर क्या नैय्यर साहब अपने अंदाज़ से जवाब देते थे, फिर चाहे सामने ‘शहंशाह ए तरन्नुम’ रफी साहब ही क्यों न हों लेकिन आते ही रफी साहब ने माफ़ी माँगते हुए कहा, “मैं शंकर जयकिशन जी की रिकॉर्डिंग में फंस गया था.” नैय्यर साहब ने  जवाब दिया, “आपके पास शंकर जयकिशन के लिए समय था, ओपी नैय्यर के लिए नहीं. आज से तुम्हारा रास्ता अलग और मेरा रास्ता अलग हो गया.  रिकॉर्डिंग रद्द कर दी गई. ओपी नैय्यर साहब ने अपने असिस्टेंट से कहा कि रफी का हिसाब कर दो. इसके बाद जर्नलिस्टों ने पूरे मामले को तूल देने के लिए मोहम्मद रफ़ी से कहा नैय्यर ने आपकी इतनी बेइज़्ज़ती क्यों की, रफ़ी ने विनम्रतापूर्वक जवाब दिया, “मैं ग़लत था. नैय्यर साहब सही थे. कोई आपका इंतजार क्यों करे. मुझे समय का ध्यान रखना चाहिए था, जो मैं नहीं कर सका. कुछ दिनों बाद रफी साहब ने अपने पसंदीदा संगीतकार नैय्यर साहब को ईद पर सेवईयाँ भेजी, नैय्यर साहब के नौकर ने उनको बताता कि रफी साहब ने आपके लिए सेवईयाँ भेजी हैं, सुनकर नैय्यर साहब गुस्से से लाल हो गए. उन्होंने वो  सेवईयाँ रफी साहब को वापिस भेज दी. अगले ही दिन  ‘रफ़ी साहब’ नैय्यर साहब के घर खुद ही पहुंच गए. नैय्यर साहब एवं रफी साहब दोनों एक – दूसरे को देखकर रो पड़े. दोनों एक – दूसरे का बे पनाह सम्मान करते थे, दोनों को एक – दूसरे की जरूरत थी, लेकिन अहम में सब कुछ बिखर जाता है. नैय्यर ने अपने सबसे पसंदीदा गायक से कहा, रफी’ तुमने खुद ही मेरे घर आकर सिद्ध किया है कि तुम ओपी नैयर से कहीं बेहतर इंसान हो. तुमने अपने अहम पर काबू पा लिया जो मैं नहीं कर सका. रफ़ी लोग कहते हैं कि तुम्हारी आवाज़ भगवान की आवाज़ है, लेकिन तुम खुद भी भगवान जैसे हो, लालच, धन, सम्मान, अपमान, लाभ, हानि सभी से तुम परे हो”..

नैय्यर साहब वाकई समझ नहीं आते थे… लेकिन उनकी संगीतकारों में पहिचान सबसे अलग है, नैयर साहब अपनी मर्जी एवं अपने अंदाज़ के संगीतकार थे….. महान संगीतकार ओपी नैय्यर की जयंति पर उनके नशीले संगीत में डूबे एक प्रसंशक का सादर प्रणाम….

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