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संविधान बचाने के लिए मुख्य न्यायाधीश के नाम खुला पत्र 

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 मुनेश त्यागी 

       भारत के अति सम्मानित मुख्य न्यायाधीश महोदय, 

    इस समय हमारा देश बहुत तेज गति से हिंदू मुस्लिम नफरत की सुनामी का शिकार बनाया जा रहा है। संभल की घटना इसका जीता जागता नमूना है। संभल में मुगलकालीन जामा मस्जिद को हिंदूपक्ष द्वारा हरिहर मंदिर बताया जा रहा है और इसी आशय को लेकर एक मुकदमा सिविल जज चंदोसी के यहां दायर किया गया था जिसमें न्यायालय ने दूसरे पक्ष को सुनवाई का मौका दिये बिना ही, मस्जिद का सर्वे करके 29 नवंबर तक रिपोर्ट दाखिल करने का आदेश दिया था।

      वादी पक्ष और शासन प्रशासन की जल्दी और हड़बड़ाहट देखिए कि 19 नवंबर को मुकदमा दायर किया जाता है और 19 नवंबर को ही सर्वे की कई कार्यवाही शुरू कर दी जाती है। विपक्ष को इस मुकदमे की समय से सूचना दी गई या नही, इसकी भी कोई जानकारी नहीं है। यहीं पर सवाल उठता है कि आखिर इतनी जल्दी क्या थी? अभी तक प्राप्त सूचना के अधिकार हजारों लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की जा चुकी है। और इसमें पांच लोगों की गोलीबारी में मौत हो चुकी है।

      इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना को लेकर राजनीतिक दल भी आपस में बंटे हुए हैं। सत्ता पक्ष की राजनीतिक पार्टी पुलिस और न्यायालय की कार्यवाही को जायज ठहरा रही है और इसे विपक्ष की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति बता रही है। तो वहीं तमाम विपक्षी दल इसके लिए सरकार और शासन प्रशासन को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। उनका कहना है है कि इस मामले में शासन प्रशासन को इतनी जल्दी करने की क्या जरूरत थी? पक्षों को विश्वास में लेकर ही इस गंभीर मामले में आगे की कार्रवाई आगे बढ़ानी चाहिए थी।

     हालात इतने खराब हो गए हैं कि केंद्र सरकार भी इस मामले पर चुप्पी साधे हुए हैं और उसने इस मामले पर संसद में चर्चा करने की विपक्ष की मांग को ठुकरा दिया है। संभल की यह दर्दनाक और गंभीर घटना भारत के कानून के शासन, न्यायपालिका की छवि और भारत के संविधान के मर्म पर भयानक हमला है। इसी के साथ-साथ यह भारत की गंगा जमुनी तहजीब और साझी संस्कृति यानी कंपोजिट कल्चर पर एक बहुत बड़ा कुठाराघात है।

      यहां पर मुकदमा करने वाली पार्टी पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं, जैसे उसका कानून के शासन और प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों पर कोई यकीन और भरोसा नहीं है। वह फटाफट न्याय के तरीके अपना कर अपनी सांप्रदायिक इच्छा की पूर्ति करना चाहता है। अगर उसमें न्याय के प्रति जरा भी सम्मान होता तो वह मस्जिद पक्ष को उचित सम्मान और जवाब देने का पर्याप्त समय देता, मगर नहीं, उसे तो अपनी मनमानी और सांप्रदायिक जहर फैलाने के अभियान को आगे बढ़ना था।

     इस पूरी घटना को देखकर यह पूरी तरह से प्रतीत हो रहा है कि पूरा शासन प्रशासन, डीएम और पुलिस सरकार के इशारे पर नाच रहे हैं। वे जैसे उत्तर प्रदेश सरकार की सांप्रदायिक नफरत भरी मुहिम का मोहरा बन गए हैं। वहां के कमिश्नर का रुख कितना बीमार है, इसे देखिए। वहां का कमिश्नर इसे पहले से ही शांति भंग करने की तैयारी बता रहा है, तो फिर उसने क्या जरूरी उपाय किए? क्या उसने दोनों पक्ष के लोगों को समझाने, बुझाने और शांति बनाए रखने के समुचित कदम उठाए? जी नहीं, उसने ऐसा कुछ भी नहीं किया।

     इस घटना से सरकार और शासन प्रशासन की कार्य प्रणाली से हमारे देश की पूरी दुनिया में बदनामी हो रही है। भारत के संविधान और कानून के शासन की धारियां उड़ाई जा रही हैं और प्राकृतिक प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को जान पूछ कर रौंदा जा रहा है। अगर भारत के इतिहास की ऐतिहासिक और ईमानदारी पूर्ण जांच पड़ताल की जाए तो पता चलता है कि हमारा देश गंगा जमीनी तहजीब और साझी संस्कृति यानी कंपोजिट कल्चर की बड़ी शानदार भूमि रही है। इस देश को आगे बढ़ाने में हिंदू मुसलमानों के हीरे मोतियों ने मिलजुल कर काम किया है। हो सकता है पुराने जमाने में कुछ शासकों ने गलतियां और ज्यादतियां की हो। तो क्या उनका बदला, उन शासकों के धर्म को मानने वाली निर्दोष जनता से लिया जाएगा? हमारा मानना है कि ऐसा कदापि नहीं होना चाहिए और इस हिंदू मुसलमान की नफरत को बढ़ाने वाले अभियान पर तुरंत रोक लगाई जानी चाहिए। तभी जाकर भारत की साझी संस्कृति और गंगा जमुनी तहजीब को और कानून के शासन और भारतीय संविधान के उद्देश्यों और सिद्धांतों को आगे बढ़ाया जा सकता है और तभी जाकर उनकी रक्षा की जा सकती है और कभी जाकर एक आधुनिक और विकसित भारत का निर्माण किया जा सकता है।

      हमारा कहना है कि सांप्रदायिक ताकतों की राजनीति को किसी भी तरीके से कानून के शासन और भारतीय संविधान और गंगा जमुनी तहजीब के मूल्यों से खेलने की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। अगर कानून की बात की जाए तो प्लेसिस ऑफ़ वरशिप एक्ट 1991 यानी पूजा स्थल अधिनियम 1991 की धारा 3 के अनुसार,,, कोई भी आदमी किसी भी धर्म के पूजा स्थल को नहीं बदल सकता। इसी अधिनियम की धारा 4 यह घोषित और सूचित करती है कि 15 अगस्त 1947 को जिस पूजा स्थल की जैसी स्थिति थी, इस कानून के लागू होने के बाद वैसी की वैसी ही रहेगी। यह सेक्सन आगे कहता है कि यदि इस कानून के लागू होने के बाद कोई मुकदमा, अपील या दूसरी कार्रवाई किसी पूजा स्थल को बदलने के संबंध में है और वह किसी अदालत, ट्रिब्यूनल या दूसरे अधिकारी के समक्ष लंबित हैं तो वह स्वयं ही खत्म/समाप्त यानी ऐबेट हो जाएगी। 

     इसी के साथ सिविल प्रोसीजर कोड के ऑर्डर 7 रूल 11(d) के अनुसार यदि कोई मुकदमा तथ्यों के हिसाब से किसी कानून से बाधित है, तो उस मुकदमे को दाखिले की स्थिति में ही खारिज कर दिया जाएगा। 

    इस प्रकार उपरोक्त परिस्थितियों और कानून के अनुसार सिविल जज को यह मुकदमा एंटरटेन ही नहीं करने की करने की अनुमति ही नहीं देनी चाहिए थी और उपरोक्त कानूनी प्रावधानों के अनुसार इस मुकदमे को तुरंत खारिज कर देना चाहिए था। मगर उपरोक्त कानून का उल्लंघन करते हुए और बेहद जल्दबाजी दिखाते हुए, जज साहब ने न्यायिक प्रक्रिया के साथ बेहद असंवेदनशीलता और जल्दबाजी दिखाते हुए अपनी अयोग्यता ही घोषित और प्रदर्शित कर दी है।

      उपरोक्त तथ्यों की रोशनी में यह निश्चित रूप से साबित हो रहा है कि इस मामले को आगे बढ़ाकर प्रदेश की शांति व्यवस्था को हिंसा, हत्या और दंगों के की भेंट चढ़ाया जा रहा है। नाजुक हालत बता रहे हैं कि अभी और कितनी संभल जैसी घटनाएं होने जा रही हैं। इनकी संख्या हजारों में बताई जा रही है। सांप्रदायिक नफरत की यह सुनामी देश प्रदेश को बर्बाद कर देगी, संविधान और कानून के शासन को तहस-नहस कर देगी। शासन प्रशासन और राजनीति की सांप्रदायिक नफररती ध्रुवीकरण की मुहिम के कारण, देश पूरी दुनिया में बदनाम हो रहा है।

     इन समस्त परेशान करने वाली परिस्थितियों को देखते हुए हमने काफी परेशानी मेहसूस की। मन में विचार आया कि कल को लोग पूछेंगे कि आप वकील हो, परिस्थितियों को नियंत्रित करने के लिए, आपने समय रहते, क्या किया? कुछ लोगों से बात की तो उनके पास इनका कोई माकूल जवाब नहीं था। शासन प्रशासन और सरकार से कोई उम्मीद नहीं बची है। फिर दिमाग में आया कि इस देश की साझी संस्कृति, गंगा जमुनी तहजीब और कानून के शासन और संविधान को बचाने के लिए एक ही रास्ता बचता है कि इन सब तथ्यों से अवगत कराते हुए, आपको एक खत लिखा जाए और इस खत यानी पत्र के माध्यम से आपको पूरी घटना और कानूनी प्रावधानों से अवगत कराया जाए, ताकि आप “सुओ मोटो” संज्ञान लेकर इस मामले में समय रहते समुचित कानूनी कार्रवाई कर सकें और पूजा स्थल अधिनियम 1991 के प्रावधानों के तहत धार्मिक स्थलों की स्थिति को बरकरार रखा जाए और ऐसे समस्त मामलों को तुरंत खत्म किए जाने के आदेश पारित किए जाएं।

      क्योंकि हमारा भी भारतीय संविधान के मूलभूत सिद्धांतों और कानून के शासन में पूरा विश्वास है और इसे भविष्य में भी सुरक्षित रखा जाए। अतः इस मामले को आपके सामने रखा जाए और क्योंकि पहले भी सर्वोच्च न्यायालय की विरासत रही है कि उसने खातों और पत्रों को याचिका के रूप में स्वीकार किया और उन पर संविधान को बचाने और जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देने के वाजिब और जरुरी आदेश पारित किए हैं। अतः इस विरासत को स्वीकार करते हुए और आगे बढ़ते हुए, हम आपको यह एक महत्वपूर्ण पत्र यानी खत लिख रहे हैं। भविष्य में परिस्थितियों को बिगड़ने से रोकने के लिए यह भी जरूरी है कि इस मामले में दोषी सरकारी और प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ तुरंत कानूनी कार्यवाही की जाए और पीड़ितों को उचित मुआवजा दिए जाने के आदेश पारित किए जाएं।

      अतः आपसे विनम्र निवेदन है कि धार्मिक स्थलों की प्रकृति मनमाने ढंग से बदलने वाले मुकदमों  के मामलों में, आप अपने माध्यम और अपने स्तर से तुरंत जरूरी कानूनी कार्रवाई करें और देश की समस्त निचली अदालतों को यह निर्देश जारी करें कि वे किसी भी धर्म से संबंधित मामलों में पूजा स्थल अधिनियम 1991 यानी प्लेस ऑफ वर्सेस एक्ट 1991 के तहत समुचित कार्यवाही करें और किसी भी पक्ष को सांप्रदायिक नफरत फैलाने का मौका ना दें। ऐसा करके ही इस देश की गंगा जमुनी तहजीब, साझी संस्कृति, कानून के शासन और संविधान की रक्षा की जा सकती है। आशा है कि इस गंभीर मामले में आप स्वत: संज्ञान लेकर, इस मामले में जल्द से जल्दी समुचित कार्यवाही करेंगे।

                        बहुत बहुत सम्मान के साथ 

                               मुनेश त्यागी 

                          (मुनेश्वर दयाल त्यागी)

                                  एडवोकेट 

                                     मेरठ

 साथ में 

प्लेसेस ऑफ़ वरशिप एक्ट 1991 

सीपीसी ऑर्डर 7 रूल 11 और 

2 लेखों की प्रतियां भी नत्थी हैं।

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