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विपक्षी एकता ….चाहिए एक नेता, एक विचारसूत्र, और एक विचारधारा

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शेखर गुप्ता

बहुमत वाली कोई सरकार जब भी गद्दी पर इतनी मजबूती से स्थापित हो जाती है और उसे हराना किसी एक प्रतिद्वंद्वी के बस के बाहर हो जाता है, तब-तब “विपक्षी एकता” का विचार हवा में तैरने लगता है.सत्ताधारी पार्टी को हराने की विपक्षी महत्वाकांक्षा बिलकुल जायज है. लेकिन इसके लिए उन्हें चाहिए— एक नेता, एक विचारसूत्र, और एक विचारधारा. अगर वे ये तीन चीजें नहीं जुटा पाते तो एक यही रास्ता बचता है कि वे भाजपा की सीटें कम करने के लिए राज्य स्तरीय, झगड़ा मुक्त गठजोड़ बनाएं

लेकिन इसे समझने की जरूरत है कि यह कितना काल्पनिक, पराजयवादी है और बार-बार कितना नाकाम साबित हुआ है, कि किस तरह यह सत्ता पर अच्छी तरह पकड़ जमाए सरकार की अक्सर मदद ही करता रहा है, और किस तरह यह राजनीति के मेले में जादू की पुड़िया बेचने जैसे करतब है.

आज जबकि 2024 के आम चुनाव में पहला वोट डाले जाने के लिए लगभग एक साल बाकी रह गया है तब विपक्ष उसी नाकाम विचार को आज नया रूप देने में जुटा है. इसलिए यह अच्छी तरह समझा जा सकता है कि विपक्ष का इरादा क्या है. उसके बयानों पर गौर कीजिए— सत्ता हासिल करने की कोशिश करना हमारा अधिकार है; हममें से कोई अपने बूते ही नरेंद्र मोदी को नहीं हरा सकता; इसलिए हमें कुछ करना होगा; हम और पांच साल तक इंतजार नहीं कर सकते जबकि विपक्ष कमजोर होता जा रहा है.

“मुझे कुछ करना है”, यह एक प्रशंसनीय भावना है. लेकिन क्या यह भावना वैसी ही होनी चाहिए जैसी पहले कई बार उभर चुकी है, और जिसका हमेशा शून्य नतीजा हासिल होता रहा है? इस आलसी और थके हुए विचार में मूल खामी यह है कि यह इस मान्यता पर आधारित है कि आप एक ताकतवर नेता और उसकी पार्टी को महज जोड़-तोड़ से हरा सकते हैं. मतलब यह कि अगर एक पार्टी या एक नेता सरकार को नहीं हरा सकता तो क्यों न सब मिलकर इसकी कोशिश करें? आखिर, भारत में जो भी किसी तरह का बहुमत हासिल करता है वह 50 फीसदी से ज्यादा वोट तो हासिल करता नहीं है.

चुनाव में गणित से ज्यादा भावनाओं का मेल काम आता है, इस तर्क का कॉपीराइट दिवंगत नेता अरुण जेटली के नाम ही है लेकिन हम इसे विस्तार देते हुए कह सकते हैं कि चुनावी राजनीति गणित और भावनाओं के मेल का जोड़ भी नहीं है. इसमें मनोविज्ञान भी शामिल है, अपने फायदे के लिए मतदाता की सक्रियता यानी लेन-देन भी शामिल है, तो कुछ दार्शनिकता और बेशक मर्ज की पहचान भी.

सुविधाभोगी मतदाता को पाला बदलने के लिए राजी करवाने के वास्ते आपको इन सबका विश्वसनीय मिश्रण तैयार करने की जरूरत है. तब आप कल्पना कीजिए कि राहुल गांधी (मल्लिकार्जुन खड़गे) से लेकर ममता बनर्जी, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, अरविंद केजरीवाल, एम.के. स्टालिन, के. चंद्रशेखर राव, पिनराई विजयन, अखिलेश यादव, मायावती, नीतीश कुमार, हेमंत सोरेन, तेजस्वी यादव, नवीन पटनायक, वाइ.एस. जगन मोहन रेड्डी तक तमाम नेता एक ही मंच पर जमे हैं. इन सबके मेल से एक जबरदस्त गणित तैयार होता है.

लेकिन तभी तीन बड़ी समस्याएं उठ खड़ी होती हैं. पहली, आप यह कल्पना कर ही नहीं सकते कि निकट भविष्य में ये सब भाजपा के खिलाफ एक गठबंधन में शामिल दिखेंगे. दूसरी, इनमें से कई नेता (ज़्यादातर क्षेत्रीय दलों के) राष्ट्रीय स्तर पर तो साथ आ सकते हैं लेकिन कई की अपने-अपने राज्य में काँग्रेस से प्रतिद्वंद्विता है. तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण समस्या यह है कि इन सबको एक साथ बांधने वाला कोई साझा दार्शनिक या वैचारिक सूत्र नहीं है.

जैसे ही आप पटनायक और जगन को चुनेंगे, आप पाएंगे कि उन्हें आज लोकसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ लड़ने की कोई खास वजह नहीं नज़र आती है. और उसी क्षण आपका गणित फेल हो जाएगा. इसके बाद, आप उन नेताओं की सूची बना सकते हैं, जो एक साथ बैठ नहीं सकते, मसलन अखिलेश और मायावती. इसके बाद आप ऐसे मिश्रण तैयार कर सकते हैं जिनमें विपक्षी दल अहम राज्यों में एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हैं. काँग्रेस हर जगह ‘आप’ के खिलाफ है और तेलंगाना में केसीआर के खिलाफ है.

फिर, वैसे विरोधाभास हैं जैसे काँग्रेस और वाम दलों के बीच हैं. 1969 के बाद आज ये दोनों पहली बार वैचारिक दृष्टि से इतने करीब आए हैं. 1969 में, इंदिरा गांधी की अल्पमत सरकार भाकपा के, जिसे क्रेमलिन में बैठे उनके शुभचिंतकों ने पटरी पर बनाए रखा था, वोटों के कारण बच पाई थी. अभी इसी फरवरी में दोनों ने गठबंधन के रूप में त्रिपुरा विधानसभा का चुनाव लड़ा, और इससे पहले पश्चिम बंगाल में साथ लड़ चुके थे. राजनीतिक अर्थव्यवस्था के मामले में राहुल गांधी की भाषा 1991 के बाद पहली बार वाम दलों की भाषा के इतने करीब दिख रही है जितनी उनकी पार्टी की भाषा तब थी.

इसके साथ ही वे केरल में स्थायी तौर पर एक-दूसरे से भिड़ते रहे हैं. यहां तक कि अगर वे वहां सीटों के बंटवारे का अप्रत्याशित फैसला भी कर लें तो भी कई वामपंथी मतदाता मोदी को हटाने के नाम पर काँग्रेस को वोट देने को राजी नहीं होंगे.

तीसरी बात है साझा विचारधारा और संदेश के अभाव की. इस वजह से, मतदाता इतने समझदार हो गए हैं कि वे भांप लेते हैं कि सुविधा का गठबंधन क्या होता है. वे जान लेते हैं कि उन्होंने जिस शख्स को भारी बहुमत से दो बार सत्ता सौंपी थी, बस उसे हटाने के लिए भिन्न-भिन्न तथा प्रायः परस्पर विरोधी हितों वाले लोग किस तरह एकजुट हो गए हैं.

बाकी बातें सरल हैं, जैसा कि इंदिरा गांधी ने 1971 में दिखा दिया था– वे कहते हैं इंदिरा हटाओ, लेकिन इंदिरा जी कहती हैं गरीबी हटाओ. आप फ़ैसला कर लीजिए. हम जानते हैं कि फैसला क्या किया गया था. सो, इस बार भी फैसला भिन्न नहीं होगा.

हमारा राजनीतिक इतिहास कहता है कि यह कभी कारगर नहीं हुआ. एकजुट विपक्ष कुछ विशेष, सीमित स्थितियों में कारगर होता है, वह भी खासकर राज्यों में. लेकिन वह विचारधारा अथवा राजनीतिक पूंजी से विहीन, विविध हितों वाले किसी शानदार अखिल भारतीय मेल के रूप कभी कारगर नहीं हुआ.

विपक्षी एकता की पहली वास्तविक कोशिश 1967 में की गई थी. उस दौरान भारत 1962 के चीन युद्ध और 1965 के पाकिस्तान युद्ध, पंगु बना देने वाले दो अकालों, और अपने कार्यकाल के बीच ही दो प्रधानमंत्रियों (नेहरू और शास्त्री) के निधन के बाद गंभीर आर्थिक तथा सामाजिक संकटों का सामना कर रहा था. अपनी उम्र के महज 40 पड़ाव पार कर चुकीं, एक अनुभवहीन प्रधानमंत्री के रूप में इंदिरा गांधी पंडित नेहरू के बाद के दौर के पहले चुनाव में पराजित की जा सकने वाली नेता लग रही थीं. उन्होंने  मामूली बहुमत हासिल तो कर लिया था, लेकिन कई विपक्षी दलों ने इतनी सीटें जीत लीं कि उन्होंने कई राज्यों में उन्हें सत्ता में नहीं आने दिया. तभी विपक्षी दलों ने केवल एक मकसद (काँग्रेस हटाओ) के लिए ढीला-ढाला राज्य स्तरीय गठबंधन किया जिसे संयुक्त विधायक दल (संविद) नाम दिया गया. संविद राज्य सरकारों का जीवन छोटा रहा, और इसने आगे के लिए विपक्षी एकता का एक ढांचा तैयार कर दिया. अगर लोग केवल किसी को सत्ता से बाहर रखने के लिए एकजुट होते हैं, तो वह एकता टिक नहीं पाती. इंदिरा गांधी ने इस भावना को 1971 में भुनाया.

इमरजेंसी के बाद 1977 में हुआ चुनाव क्या एक अपवाद था? इंदिरा गांधी की जेलों में साथ रहकर गुजारे  गए समय ने विपक्षी नेताओं में एकता की भावना पैदा की और उन्हें यह सोचने-समझने का पर्याप्त समय मिला कि 1967 का गणित क्यों विफल रहा. इसलिए उन्होंने मिलकर अपनी वैचारिक तथा राजनीतिक पहचान जनता पार्टी के रूप में ढाल ली. लेकिन सत्ता में आते ही विचारधारा के विरोधाभासों, निजी महत्वाकांक्षाओं, और कई तरह की आंतरिक परहेजों के कारण यह पार्टी दो साल के बाद ही टूट गई.

हम कह सकते हैं कि 1989 से 2014 के बीच भारत गठबंधनों के युग में रहा, हालांकि नरसिंह राव की अल्पमत काँग्रेस सरकार (1991-96) को बाहर से केवल कुछ वोटों के समर्थन की जरूरत पड़ी. बाकी सब असली गठबंधन सरकारें थीं. उनमें से केवल दो, वी.पी. सिंह और चंद्रशेखर की सरकारें कुल मिलाकर दो साल से भी कम समय तक टिक पाईं.

सबसे बड़ी विपक्षी पार्टियां, भाजपा और काँग्रेस ने बारी-बारी से इन सरकारों को सहारा दिया और फिर सत्ता से वंचित भी किया. अगर यह विपक्षी एकता थी, तो यह इसकी सबसे बुरी मिसाल थी. बाद में दो अन्य गठबंधनों, एनडीए और यूपीए ने कुल मिलाकर 16 साल राज किया. क्या वे विपक्षी एकता की मिसालें नहीं थीं?

तीन अहम कारणों पर जरूर ध्यान देना चाहिए. एक, इनमें से हरेक गठबंधन के केंद्र में एक-एक सबसे बड़ी पार्टी थी, और इसमें कोई संदेह नहीं था कि प्रधानमंत्री की गद्दी किसे मिलने वाली थी. दूसरे, केंद्र में जो पार्टी थी उसे 100 से ज्यादा लोकसभा सीटें मिल रही थीं. तीसरे, उनमें से किसी गठबंधन को किसी ताकतवर, लोकप्रिय और पूर्ण बहुमत वाली सरकार का सामना नहीं करना पड़ा था.

1996-2014 वाले दौर के विपरीत आज राजनीति प्रतिद्वंद्वी गठबंधनों के बीच तनातनी की नहीं है. हम लगभग इंदिरा गांधी वाले दौर जैसे समय में पहुंच गए हैं. यहां तक कि नरेंद्र मोदी हटाओ के एकसूत्री नारे पर केंद्रित विपक्षी गठबंधन की बात उलटे मोदी को ही फायदा पहुंचाएगी. ‘वे कहते हैं मोदी हटाओ, मोदी जी कहते हैं भारत को विश्वगुरु बनाओ’.

सत्ता में बैठी पार्टी को हराने की विपक्षी महत्वाकांक्षा बिलकुल जायज है. लेकिन इसके लिए उन्हें तीन चीजें चाहिए— एक नेता, एक विचारसूत्र, और एक विचारधारा.

अगर वे ये तीन चीजें नहीं जुटा पाते तो उनके लिए एक यही रास्ता बचता है कि वे भाजपा की सीटें कम करने के लिए राज्य स्तरीय, झगड़ा मुक्त गठजोड़ बनाएं. विशाल गठबंधन बनाने की बातें और योजनाएं एकता की नाकाम कवायद ही साबित होंगी. वे मोदी की मदद ही करेंगी, जैसे 1971 में उन्होंने इंदिरा गांधी की मदद की थी.

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