~ सपना सिंह (वाराणसी)
प्राचीन और अर्वाचीन इतिहासकारों ने जो कुछ लिखा हो सामान्य रूप से यही विश्वास है कि हिंदुओं ने कभी किसी प्रकार के धार्मिक उत्पीड़न में भाग नहीं लिया। किंतु इस बात के प्रमाण हैं कि शैवों ने श्रमणों का उत्पीड़न किया था और श्रमणों ने भी यदा-कदा उसका बदला लिया था।
ह्वेनसांग सातवीं सदी में भारत आया था । उसने अपनी कश्मीर यात्रा का विवरण लिखते हुए इस बात का उल्लेख किया है। ह्वेनसांग ने ऐसा उल्लेख किसी धार्मिक पक्षपात से नहीं किया था।
बारहवीं सदी में कल्हण ने अपनी राजतरंगिणी में भी इसका उल्लेख किया है कि हूण राजा मिहिरकुल और कुछ कट्टर शैवों ने बौद्ध विहार नष्ट के और बौद्ध भिक्षुओं की हत्या कर दी थी। इस प्रकार के कृत्यों पर पर्दा डालने के लिए आधुनिक इतिहासकार उसके हूण होने पर बल देते हैं।
किंतु यह न भूलना चाहिए कि मिहिर कुल ने गंधार के ब्राह्मणों को अग्रहार गांव दान में दिए थे।कल्हण ने इस बात पर प्रकट की है कि ब्राह्मणों ने उसके दान को क्यों स्वीकार किया।
वस्तुत: बौद्धों और शैव ब्राह्मणों में राज संरक्षण थी होड़ लगी थी जिसमें शैव जीत गए। उस काल में भारत और मध्य एशिया के बीच ख़ूब व्यापार चलता था। इसका लाभ बौद्धों को हुआ।
उनके संघ ने दान में मिली प्रभूत धन- सम्पत्ति जोड़ ली थी। हूणों के कारण कारण मध्य एशिया के साथ भारतीय व्यापार को बड़ा धक्का लगा था। हो सकता है इस कारण हूणों और बौद्धों में शत्रुता हो गई।
इस कथा का दूसरा रूप तमिलनाडु में मिलता है। तमिलनाडु में सातवीं सदी से शैवों ने जैन ठिकानों पर हमले शुरू किए और अनन्तोगत्वा श्रमणों को निकाल बाहर किया। पड़ोस में कर्नाटक में इसमें कुछ बाद वैष्णवों या लिंगायतों ने विदेशी व्यापार से समृद्धि और हैसियत प्राप्त कर जैन मुनियों का उत्पीड़न प्रारंभ कर दिया और जैन मूर्तियां तोड़ डालीं।
कतिपय अभिलेखों में वीर शैवों ने फसाद के लिए जैनों को उत्तरदाई ठहराया है। इस बार शत्रुता का कारण राज संरक्षण के लिए प्रतिद्वंदिता न थी , बल्कि इसके मूल में आर्थिक कारण थे। अब वीर शैव भी उसमें शामिल हो गए थे।
इसकी एक दूसरी वजह भी सम्भव है।विद्या के क्षेत्र में जैनों का ऊंचा स्थान था । इसलिए राज दरबारों में मंत्रियों और प्रशासन के उच्च पदों के लिए वीर शैव उन्हें अपना प्रतिद्वंदी मानते थे।
उत्पीड़न के संबंध में महत्व की बात यह है कि इसमें सभी शैव सम्मिलित ना थे। इस संप्रदाय के कुछ खास समूह इसके मूल में थे। उत्पीड़न जेहाद या ‘होली वार’ ना था जिसमें आक्रमणकारियों का समर्थन करना सभी हिंदू अपना कर्तव्य समझते या बौद्धों और जैनों के विरुद्ध युद्ध छेड़ देते।
भारतीय परिस्थितियों में जांच पड़ताल के लिए भी स्थान ना था, क्योंकि यह मतभेद होने की अवस्था में विरोधी अपने स्वतंत्र संप्रदाय की सृष्टि कर लेते थे और अपनी जाति से टूट कर दूसरी उपजाति बना लेते थे। इस अपधर्मिता की धारणा का विकास धीरे-धीरे हुआ।
वैष्णवों और शैवों में भी शत्रुता थी। किंतु वैष्णवों ने कभी किसी दूसरे संप्रदाय का उत्पीड़न नहीं किया। इसके विपरीत वे दूसरों को भी आत्मसात कर लेते थे।
इसमें उन्होंने अवतारों की कल्पना का बड़ा सदुपयोग किया। किंतु वैष्णव संप्रदाय भी श्रमणों को आत्मसात करने के तैयार न था। वे जनजातियों और लोक उपासना पद्धतियों और रामायण-महाभारत के कथानको को आत्मसात करना अधिक पसंद करते थे।
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यद्यपि विष्णु के दस अवतारों में बुद्ध की गणना तो कर ली गई थी। किंतु बुद्ध के जीवन से संबंधित ऐसे मिथकों की सृष्टि पुराणों में नहीं मिलती जैसे अन्य अवतारों के संबंध में मिलती है।
यदि दूसरे संप्रदाय के प्रति हिंसा और असहिष्णुता की कोई सामान भावना का हिंदुओं में प्रचार नहीं हुआ तो यह प्रश्न भी सहज ही किया जा सकता है कि आदिकालीन भारत में क्या कभी किसी हिंदू समाज की अवधारणा भी थी?
भारतीय इतिहास के एक विशेष कालखंड के पहचान चिह्नों को (संरक्षित स्मारकों), जिनसे एक ख़ास कम्यूनिटी आईडेंटिफाई करती है , उनको नेस्तनाबूद करने से क्या हासिल होगा ? समाज के बहुसंख्यक वर्ग की अस्मिता यूँ बात-बात में डावांडोल क्यों होने लगती है?
एक नज़ीर हमारे पास पहले से ही है। बाबरी विध्वंस से ही कौन सा रामराज्य हासिल हो गया ? वैश्विक पैमाने पर कौन सा ऐसा पैरामीटर है जिस पर बढ़त हासिल हो गई? आंतरिक समस्याओं में से किसके निस्तारण में मदद मिली?
राजतंत्र के दौरान घटी घटनाओं का गणतांत्र के साथ घालमेल करना और आये दिन एक फूहड़ तज़किरा पेश करना संवैधानिक मूल्यों का गला घोंट देगा। राजतंत्र में आक्रमण और हार-जीत होती थी।
एक दूसरे की अस्मिता के प्रतीक चिन्ह मिटाए जाते थे। धर्मस्थलों का विध्वंस और स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार यद्ध में अभिन्नता से शामिल रहे हैं। शत्रु-भाव में नीचा दिखाना ही मूल में रहता है। शासक आसपास में ‘रिंग अ रिंग आ रोजेज’ नहीं खेलते थे।
हिन्दू -इस्लामिक दावेदारी का राग एक तरफ़ तमाम ऐसे मॉन्युमेंट हैं जिन पर बौद्ध अपनी दावेदारी ठोंक रहे हैं। ‘हम ही हम हैं हमसे सब हैं’ का यह दुराग्रह एक समाज के रूप में हमें नफ़रत की भट्ठी में तब्दील कर देगा।
ई.एच. कार का कथन है कि ‘इतिहासकार का कार्य अतीत में कुशलता प्राप्त करना और पूरी तरह समझना कि वह वर्तमान की कुंजी है। उसे ना तो अतीत को प्यार करना चाहिए ना उस से नाता तोड़ देना चाहिए।
महान इतिहास की रचना तभी होती है जब इतिहासकार की कल्पना शक्ति वर्तमान काल की समस्याओं की उसकी अंतर्दृष्टि के प्रकाश से आलोकित होती है।
इतिहास का काम अतीत और वर्तमान दोनों में तालमेल बिठाकर इन दोनों को पूरी तरह समझने में सहायता पहुंचाना है। इतिहास और इतिहासकार को इसी भूमिका में रहने दीजिए। (चेतना विकास मिशन).