शंभुनाथ
कृष्ण कारागार में जन्मे सत्य हैं, जिसे मिटाने की सारी कोशिशें व्यर्थ गईं, यह जन्माष्टमी का मुख्य संदेश है। कृष्ण और कारागार का पुराना संबंध आज भी ताजा है, क्योंकि हर युग में कंस होते हैं– हर युग में सत्य के हत्यारे होते हैं।
कृष्ण के बारे में सोचते हुए कई बातें दिमाग में आती हैं। एक बात तो यही है कि आम लोगों ने गीता के विश्वरूप धारण करने वाले कृष्ण को क्यों भुला दिया, अर्जुन के युद्ध-रथ पर बैठे कृष्ण से क्यों प्रेम नहीं किया। उसने सूरदास के घुटुरुन चलने वाले, मुख में माखन लपेटे बाल कृष्ण को ही क्यों हृदय में बसाया? लोग धनुष की जगह बांसुरी की तरफ इतना आकर्षित क्यों हुए?
हो सकता है, आज धनुष और त्रिशूल को मीडिया के प्रचार के बल पर अधिक लोकप्रिय बनाया जा रहा हो, इस सभ्यता में हिंसा एक बड़ा मूल्य बन गई हो, लेकिन जन्माष्टमी का यह संदेश कम महत्वपूर्ण नहीं है कि कृष्ण सौंदर्य और प्रेम की प्रतिमूर्ति हैं। वे रूढ़ियों को तोड़ते हैं। राधा रूढ़ियों को तोड़ती है। मंदिरों में रुक्मिणी- कृष्ण की नहीं, राधा- कृष्ण की पूजा होती है।
राधा अर्थात जो धारा के विरुद्ध है! राधा भाव अर्थात बंधनों को तोड़कर प्रेम का विस्तार, ‘मैं’ या अपने सीमित परिवार या जाति की बाउण्ड्री से बाहर निकलना!
सौंदर्य कहाँ है? सौंदर्य वहां नहीं है, जहां रूढ़ियाँ हैं। सौंदर्य वहां नहीं हो सकता, जहां अहंकार है। जहां सौंदर्य है, वहां हिंसा नहीं हो सकती । जहां सौंदर्य है, वहां अश्लीलता नहीं हो सकती। सुंदरता सबको पसंद है, यदि रुचि विकृत नहीं कर दी गई हो। सूरदास जैसे कवियों का सौंदर्यबोध सांस्कृतिक जड़ता के विरुद्ध संघर्ष था।
यदि सचमुच सौंदर्य- प्रेम हो, वह रूढ़ियों से कितनी तरह से आजाद करता है, सूरदास के एक उपेक्षित पद में देखा जा सकता है। गोपियाँ कहती हैं कि ये जो ज्योतिष और ग्रह- विचार की बातें हैं, वैदिक कर्मकांड हैं और पुराण हैं, वे ठगी के औजार हैं। वे चक्कर में डाले रहते हैं कि अमुक दिन शुभ है और अमुक अशुभ। हमसे पूछो तो वह हर दिन अच्छा है जिस दिन कृष्ण से भेंट हो जाए। आखिर सब ग्रह अपने स्थान पर थे, फिर भी सीता का हरण हो गया। कृष्ण से प्रेम करने वाले के लिए तो भद्रा भी अच्छा है, जिसे लोग बुरा महीना मानते हैं। भरनी नक्षत्र भी अच्छा है। छींक होने पर भी सब ठीक है। धर्म की इन चीजों में फंसे रहकर जो लोग भक्ति करते हैं, उनकी भक्ति दो कौड़ी की है। सूर अंधविश्वासों का विरोध करते हैं। उनकी पंक्तियां हैं :
जा दिन श्याम मिले सो नीकौ।
ज्योतिष, निगम, पुरान बड़े ठग, फांसत जे जिय हीकौ।…
सूर, धरम धरि लाल गुनै जो, तौ प्रेमी कौड़ीकौ।
कृष्ण भक्त कवियों के पद में लोचन का, देखने का बड़ा महत्व है और आँख खोलकर देखने का महत्व भी कम नहीं है! उनका सौंदर्यबोध निष्क्रिय नहीं है, वह प्रहार करता है, रूढ़ियों से संघर्ष करता है।
कृष्ण जब कहते हैं, ‘मैया मैं तो चंद्र खिलौना लैहों’ तो अपने भोलेपन के साथ यह भी कहते हैं कि नहीं दोगी तो मैं धरती पर लोटने लगूंगा, तुम्हारी गोद में नहीं आऊंगा और दूध नहीं पीऊंगा। कृष्ण के हठ में सत्याग्रह का सौंदर्य है, वे भूख हड़ताल की बात करते हैं! जीवन में थोड़ा भोलापन होना चाहिए, यह चालाकी से बेहतर है। जीवन में कुछ हठ भी होने चाहिए, यह अवसरवाद से बेहतर है!
एक बात और कहूँ—
कृष्ण की बांसुरी ही नहीं, मोरपंख का मुकुट भी अपना एक अर्थ रखता है। जिस तरह बांसुरी में सातों सुर हैं, मोरपंख में सातों रंग हैं। हमारे देश की विविधता मोरपंख की तरह है। हमारा भारत एक सुंदर मोरपंख है। इसे क्यों एकरंगा बनाया जा रहा है?
कृष्ण नाचते हैं, बांसुरी बजाते हैं। इतना कला-प्रेमी देवता कौन है? कला वही रच सकता है, जो प्रेम कर सकता है। जिसके मन में घृणा है, विद्वेष है, कट्टरता है, पक्षपात है, वह कलाकार नहीं हो सकता ।
एक प्रश्न करने की इच्छा हो रही है, हिंदी भाषियों के घर में कला-प्रेम इतना कम क्यों है? कितने हिंदी परिवारों में संगीत- नृत्य सीखने के लिए बच्चों को प्रोत्साहन मिलता है, कितने व्यक्ति अपने श्रद्धेय कवियों– प्रसाद, निराला, महादेवी आदि को गाते हैं। कितने युवा लोग बंबइया फिल्मों और पॉप गानों से इतर चीजें पसंद करते हैं? हिंदी भाषी घरों में कला- प्रेम इतना कम क्यों है– जबकि कृष्ण में प्रेम कला ही नहीं, कला प्रेम भी है?
जन्माष्टमी का दिन यह सोचने का भी है, क्या हम प्रेम करना भूलते जा रहे हैं?
—शंभुनाथ