अग्नि आलोक

*पहुँची वहीं पे ख़ाक जहाँ का खमीर था:’पांचजन्य’ का जाति महिमा गान*

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*(आलेख : बादल सरोज)*

मोदी राज के घोटाले-दर-घोटाले उजागर होने और 4 जून को आये लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद से हर मोर्चे पर दिन में तीन के हिसाब से हो रही छीछालेदर के बीच एक और उल्लेखनीय काम हुआ है, या यूं कहें कि एक बार फिर से हुआ है और वह यह कि भैंस, जो अतीत की कीच और पानी में से कभी निकली ही नहीं थी, वह एक बार फिर सींग से पूंछ तक पानी में पहुँच गयी है। मौजूदा सत्ता पार्टी का गुरु, मार्गदर्शक, विधाता, निर्माता, रिमोटधारी नियंत्रक आर एस एस, जहां से असल में कहीं गया नहीं था, वहीं फिर से वापस लौट आया है। उसकी तरफ से – अपने मुखपत्र के जरिये – यह दावा ठोंका गया है कि जाति ही भारत है, भारत ही जाति है ; अभिधा में कहें तो ब्रह्मा-विष्णु-महेश तो बस नाम हैं, संबोधन और सर्वनाम है, असल में तो यह जाति, और इस तरह वर्ण भी, ही हैं, जो भारत की संज्ञा और पहचान है। बल्कि उनके मुताबिक़ तो सिर्फ यह जाति ही है, जिसकी वजह से भारत अब तक अस्तित्वमान है। यह उस आधिकारिक वक्तव्य – सम्पादकीय हमेशा नीति और समझदारी का प्रामाणिक कथन माना जाता है – का कहना है, जो संघ के हिंदी के मुखपत्र ‘पाञ्चजन्य’ के 5 अगस्त के अंक में प्रकाशित हुआ है।

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भारत की संसद में एक मंत्री द्वारा जाति पूछ लिए जाने के बाद हुई संसद के भीतर और बाहर  जायज तीखी प्रतिक्रिया के जवाब और जाति आधारित जनगणना की मांग के तल्ख़ विरोध में यह संपादकीय लिखा गया है।  उस मंत्री की बात इतनी बेहूदा और असंवैधानिक थी कि उस वक्त अध्यक्षता कर रहे लोकसभा के पीठासीन अधिकारी को उसे संसद की कार्यवाही से विलोपित करने का आदेश तक देना पडा था ; हालांकि उस विलोपित अंश सहित उस पूरे भाषण को चहक कर ट्वीट करके प्रधानमंत्री मोदी ने न सिर्फ संसदीय परंपराओं और नियम-कायदों को जीभ चिढ़ाई थी, बल्कि यह भी बता दिया था कि वे भी उस टिप्पणी के साथ हैं। अब मोदी तो मोदी हैं, स्वघोषित अजैविक – नॉन-बायोलॉजिकल – हैं , जब प्रकृति और सांसारिक विधान ही उन पर लागू नहीं होते तो संसद–वंसद के प्रावधान तो लगते ही कहाँ है! बहरहाल यहाँ बात संघ के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ के जाति व्यामोह की है – जिसके लिए उसने सारी उपलब्ध ऊर्जा एक साथ खर्च कर दी लगती है। बाकी तात्कालिक राजनीतिक उलाहनों, जिन्हें लगता है यह कटाक्ष समझता है, के बाद, उनके साथ यह संपादकीय कहता है कि : “वास्तव में जाति का प्रश्न ऐसा है, जिसकी व्याख्या राजनीति ने अपनी तरह से करनी चाही, किंतु भारतीय समाज में विभिन्न परंपराओं को संजोने के साथ एकता के कारक के रूप में समाज जाति को धारण किए रहा।“

इसके लिए, अपनी बात दूसरों के मुंह से कहलवाने के लिए वे 1859 में कलकत्ता के लंदन मिशनरी सोसायटी के रेवरेंड एडवर्ड स्टॉरो द्वारा लिखित ‘भारत और ईसाई मिशन’ नामक किताब के एक अंश को वेद वाक्य की तरह उधृत करते हैं। (यह अलग बात है कि खुद वेदों में जाति का जिक्र तक नहीं है। वर्ण है, सो भी शुरुआती वेद में तो चारों एक साथ भी नहीं है।) और कहते हैं कि : “जाति के रूप में राष्ट्र के साथ एकजुट समाज सीधी-सच्ची बात समझता था कि ‘जाति से दगा यानी देश से दगा।‘’ इस तरह भारत को एक रखने वाला यह समीकरण जितना मुगलों को समझ नहीं आया, उससे ज्यादा बारीकी से मिशनरियों ने इसे समझा।“

‘‘जाति हिंदू धर्म को मानने वालों के इतिहास के साथ अटूट रूप से जुड़ी है। यह उनके पूरे राष्ट्रीय जीवन में व्याप्त है। यह उनके संपूर्ण दर्शन और साहित्य का सार है। यह बचपन से लेकर मृत्यु तक जीवन के हर कार्य से जुड़ी है। इस प्रकार लोगों पर इसका कितना प्रभाव था, इसकी कल्पना की जा सकती है और जाति से कटना उन्हें देश से कटना लगता है।’’

ईसाई मिशनरी के इस प्रमाणपत्र से उत्फुल्लित और गौरवान्वित  होने के बाद संपादकीय दावा करता है कि “निश्चित ही हिंदू के जीवन का बड़ा चक्र, जिसमें उसकी मर्यादा, नैतिकता, उत्तरदायित्व और समुदाय से बंधुत्व की भावना शामिल है, जाति के इर्द-गिर्द घूमता है।“  आखिर में कहते हैं कि “भारत में जाति को देखने से ज्यादा और मतलब के लिए लोग तोलने, देश तोड़ने की बजाय इसका महत्व समझने की जरूरत है।“ इस तरह जिस जाति प्रणाली को स्वामी विवेकानन्द सहित ज्यादातर सही दिमाग वालों ने कोढ़, अभिशाप, सामाजिक प्रगति की बेड़ी, यहाँ तक कि पागलपन तक बताया था, आर एस एस का मुखपत्र उसकी मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हुए उसे भारत की एकता का, उसे जोड़ने का, उसके जीवन का मूल तत्व बताने तक पहुँच जाता है।

ध्यान रहे कि यह उस पांचजन्य के जरिये कराया जा रहा है, जो जिस संघ का मुखपत्र है, उसके वर्तमान सर संघचालक मोहन भागवत इसे लिखे जाने के ठीक डेढ़ साल पहले 5 फरवरी 2023 को इसी जाति व्यवस्था और उसके साथ नाभिनाल से जुड़े ऊंच नीच, उत्पीड़न और यातना को लगभग धिक्कारते हुए एक क्रांतिकारी स्वीकारोक्ति कर चुके हैं और कह चुके हैं कि “जाति व्यवस्था भगवान ने नहीं बनाई, यह कुछ पंडितों ने बनाई है।“ उनके श्रीमुख से अचानक से निकल गए इस सत्य वचन के बाद जो तूमार खड़ा हुआ था, वह इतना तीव्र था कि पहले उसे पंडितों का शब्दार्थ विद्वान और ज्ञानी बताकर टालने की कोशिश हुई, बाद में तो खुद भागवत ही अपने कहे को भुला दिए। 

ऐसा होना स्वाभाविक भी था, क्योंकि सर संघचालक जो बोल गए थे, वह न तो संघ की आधिकारिक नीति है, ना ही उसकी ऐसी कोई हाल में विकसित हुई समझदारी है। जाति और वर्ण उनके विरसे में हैं, उनके सोच की बुनियाद है, वे जिस तरह के भारत का निर्माण करना चाहते हैं, उसकी नींव, गारा, पत्थर और ईंट सब कुछ है। तात्कालिक राजनीतिक झांसे बाजी के लिए वे भले इधर की उधर बात कर लें, दोमुंहेपन की अपनी खासियत और उसमे दक्षता का मुजाहिरा कर लें – वर्ण और जाति के प्रति उनकी निष्ठा खुद संघ के साथ निष्ठा से भी ऊपर और आगे वाली है। इस संगठन का निर्माण ही वर्णाश्रम आधारित, जातियों और उनकी ऊंच-नीच पर आधारित समाज की बहाली के लिए हुआ। जिनके बताये “हिन्दुत्व” को आदर्श मानकर आर एस एस हजारों वर्ष के अपने अस्तित्व काल में कभी धर्माधारित राष्ट्र नहीं रहे भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का ख्वाब देखता है, उन विनायक दामोदर सावरकर ने 1923 में लिखी अपनी किताब, जिसका मराठी, अंग्रेजी, हिंदी सहित सभी भाषाओं में एक ही अनुवाद हुआ, कहा है  कि “वर्ण व्यवस्था हमारी राष्ट्रीयता की लगभग मुख्य पहचान बन गयी है।” यह भी कि “जिस देश में चातुर्वर्ण नहीं है, वह देश म्लेच्छ है। यह आर्यावर्त नहीं है।“ और आगे बढ़कर सावरकर इसे और स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि “ब्राह्मणों का शासन, हिन्दू राष्ट्र का आदर्श  होगा।“ वे यह भी कहते हैं कि “सन 1818 में यहां देश के आखिरी और सबसे गौरवशाली हिन्दू साम्राज्य (पेशवाशाही) की कब्र बनी।” यह वही पेशवाशाही है, जिसे हिन्दू पद पादशाही के रूप में फिर से कायम कर आरएसएस एक राष्ट्र बनाना चाहता है और इसी को वह हिन्दू राष्ट्र बताता है।

सावरकर के बाद आरएसएस के, अब तक के, सर्वोच्च विचारक उनके प.पू. गुरूजी माधव सदाशिव गोलवलकर हैं। 1939 में लिखी “हम और हमारी राष्ट्रीयता” नाम की किताब, जो संघ की गीता है, में वे कहते हैं कि “देश को एक अच्छा राष्ट्र बनाने के लिए शक्ति और गौरव के कारकों के अतिरिक्त, कुछ और कारक, अत्यंत आवश्यक हैं, उसमें समाज के वे चारों वर्ण हैं, जिनकी परिकल्पना हिन्दू धर्म में की गई हैं और वह लुटेरों और म्लेच्छों से मुक्त होना चाहिए।” उन्होंने  म्लेच्छों  को भी साफ़-साफ़  परिभाषित किया और कहा कि “म्लेच्छ वह व्यक्ति होता है, जो हिन्दू धर्म और संस्कृति द्वारा निर्धारित सामाजिक नियमों को नहीं मानता।” मतलब यह कि जो वर्ण व्यवस्था और जाति श्रेणीक्रम का विरोध करे, उसका त्याग करे, वह म्लेच्छ है। इसी बात को और आगे बढ़ाते हुए गोलवलकर अपनी उक्तियों के संग्रह ‘विचार नवनीत’ (बंच ऑफ़ थॉट) में कहते हैं कि “जातियां प्राचीन काल में भी थीं और वे हमारे गौरवशाली राष्ट्रीय जीवन के हजारों सालों तक बनी रहीं। परंतु कहीं भी, एक भी ऐसा उदाहरण नहीं है कि उनके कारण समाज की उन्नति में कोई बाधा आई हो या उनने सामाजिक एकता को तोड़ा हो। बल्कि उनने सामाजिक एकजुटता को मजबूती दी।” (पृष्ठ 108). इस तरह देखा जाए तो पाञ्चजन्य के जरिये आर एस एस जो कह रहा है, वही उसका असल आसन और मूड़ा है, बाकी सब तात्कालिक रूप से आँखों में धूल झोंकने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा घास-कूड़ा है। यही संघ का असली खूंटा है – इसी से उसकी रस्सी बंधी है, जिसे कभी थोड़ा-सा ढीला करके कभी भागवत, तो कभी उनके अनुज इधर-उधर टहल आते हैं, ताकि वे एक साथ वर्णाश्रम और मनुस्मृति आधारित हिन्दू राष्ट्र बनाने और उसी के साथ, उसके लिए सर्व हिन्दू चेतना और एकता बनाने के असाध्य को साध सकें, बीच-बीच में अलग सुर की पीपनी बजाकर बहका सकें। लेकिन घूम-फिरकर, चुनाव वगैरा निबटने के साथ ही वापस लौटकर उसी खूंटे के पास आ जाते हैं। इसके लिए उपमा और रूपक भले समय के अनुकूल गढ़ते-बदलते रहें, परनाला वर्णाश्रम, जाति और मनुस्मृति की उसी गटर में जाकर गिरता है, जिसने इस देश से उसकी मेधा, कौशल और विकास के कोई डेढ़ हजार वर्ष छीन लिए – उसे रोशनियों से वंचित कर अंधेरों में डुबोये रखा।

भारत के बारे में उनका यही नजरिया है, यही उनका ग्रैंड प्रोजेक्ट है, यही वह कारण है, जिसकी वजह से उन्हें जाति आधारित जनगणना से भय लगता है। उन्हें लगता है – और ठीक ही लगता है – कि जाति जनगणना होने के बाद तथ्यों और प्रमाणों के साथ भारतीय सभ्यता के विकास में विराट भारतीय अवाम को हाशिये के भी हाशिये पर रखने और पालकी के कहार भर बनाए रखने का भयावह सच उजागर हो जाएगा ; पिरामिड की तरह खड़ा किया उनका ताश का महल भरभरा कर ढह जाएगा। इसलिए वे जाति और वर्ण को राष्ट्र और उसके अस्तित्व का पर्याय बनाने का आख्यान गढ़ना चाहते हैं।  इस बार के लोकसभा चुनाव में कारपोरेट मीडिया और पूँजी दोनों के सहारे खड़े किये गए अलीबाबा के 400 पार के नारे के पीछे भी यही इरादा था, जिसे उन्हीं के 40 सिपहसालारों ने, कर्नाटक में हेगड़े और अयोध्या में लल्लूसिंह ने सीना ठोंककर कहा भी था। अंधकार की जिस कंदरा में वे 21वीं सदी के भारत को धकेल देना चाहते हैं, उसका ‘खुल जा सिम सिम’ पासवर्ड बोला भी था। चुनावों में हार के बाद कहीं बाकी संघी उसे भूल न जाएँ, इसलिए संघ ने एक बार फिर पांचजन्य के जरिये उसी को अठारहवीं सदी के शायर मिर्ज़ा जवाँ बख़्त जहाँदार के मिसरे “पहुँचे वहाँ ही ख़ाक जहाँ का ख़मीर हो” की तर्ज पर याद दिलाया है।  

सवाल पाञ्चजन्य के सम्पादकीय से नहीं है, वह वही कह रहा है, जो वह इस देश के साथ करना चाहती है ;  सवाल सामाजिक न्याय के उन स्वयंभू पुरोधाओं नितीश कुमारों और चंद्रबाबू नायडूओं से है और वह भी हिंदी के बड़े कवि मुक्तिबोध के वाक्य में है कि “पार्टनर, तुम बताओ कि तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?” मनु की पालकी का कहार बनते हुए चंद सिक्कों के मोल तोल के लिए सत्ता की चाशनी के इर्द-गिर्द मंडराते हुए एकनाथ शिंदे और अजीत पवार बनकर इतिहास के कूड़ेदान में समाना है या जैसा होने का दावा करते हैं, वैसा होना और दिखना भी है – उसी के अनुरूप करना भी है? 

उनकी वे जानें, मगर देश के लोग अब समझने लगे हैं।  चौबीस के चुनावों में जनमुद्दों के साथ संविधान, लोकतंत्र को बचाने के लिए काफी हद तक आगे बढ़कर उन्होंने इसका सबूत दे दिया है। इसमें कोई शक नहीं कि आने वाले दिनों में यह जागरण और ज्यादा मुखर होगा।  हालांकि ऐसा न चौबीस के चुनावों में अपने आप हुआ है, ना ही आगे के दिनों में यह अपने आप होने वाला है ;  सत्य तभी सच में आत्मसात होता है, जब वह आलस्य छोड़कर पूरे जोशो-खरोश के साथ मैदान में उतरता है वरना कहने वालों का दावा तो यहाँ तक है कि सच जब तक अपने जूतों के फीते बाँध रहा होता है, झूठ तब तक आधी दुनिया की सैर कर चुका होता है। इसलिए आने वाले दिन कार्पोरेटी हिंदुत्व के इन कुटिल इरादों के विरुद्ध  जन अभियानों और लामबंदियों के होने चाहिए, होंगे भी।

*(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अ. भा. किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)*

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