शशिकांत गुप्ते
यात्रा चल रही है। लेकिन यात्रा के समाचार, समाचार माध्यमों में ना तो सुनने देखने को मिल रहें हैं,ना ही पढ़ने को ही मिल रहें हैं।
कारण स्तुतिगान को लोरी समझकर सुनने से गोदी में अच्छी नींद आ जाती है।
यह मजबूरी नहीं है। यह तो अप्रत्यक्ष प्राप्त अनुकंपा है।
विषयांतर को रोककर पुनः यात्रा पर निकल पडते हैं।
पप्पू तो परिपक्व निकला। हाजरों किलोमीटर पैदल चलकर अपनी शारीरिक और मानसिक परिपक्वता को प्रमाणित कर दिया। हाथ कंगन को आरसी की जरूरत नहीं होती है।
यात्रा में स्वस्फूर्त जनता सम्मिलित हो रही है।
यह यथार्थ है।
एक ओर बुनियादी मुद्दों पर सवाल किए जा रहें हैं। दूसरी ओर पवित्र वस्त्र धारण कर इहलोक से परलोक पहुँचाने की खुलेआम वकालत की जा रही है।
अपने देश की यही तो पहचान है अनेकता में एकता।
एक ओर समस्याओं का अंबार दूसरी ओर विज्ञापनों में विकास बहार।
एक ओर विज्ञापनों में प्रगती की तेज रफ्तार,दूसरी ओर बेरोजगारों की गुहार, महंगाई का कहर,रुपया गिर रहा है।शिक्षा महंगी हो रही है।
इतना ही लिख पाया था। उसी समय दीपावली की शुभकामनाएं देने सीतारामजी पधार गए।
सीतारामजी को यकायक सन 1962 में चीन के साथ युद्ध के समय गीतकार जाँ निसार अख्तर का लिखा संगीतकार खय्यामजी संगीतबद्ध किया और गायक मोहम्मद रफ़ी द्वारा स्वरबद्ध किया हुआ गीत याद आ गया।
सीतारामजी ने गीत का एक छंद अपनी आवाज में गाकर सुनाया।
उट्ठो जवानाने वतन, बांधे हुए सर से क़फ़न
उट्ठो दकन की ओर से, गंगो-जमन की ओर से
पंजाब के दिल से उठो, सतलज के साहिल से उठो
महाराष्ट्र की ख़ाक से, देहली की अर्ज़े-पाक से* (पवित्र भूमि)
बंगाल से, गुजरात से, कश्मीर के बागात से
नेफ़ा से, राजस्थान से, कुल ख़ाके-हिन्दोस्तान से
आवाज़ दो हम एक हैं!
आवाज़ दो हम एक हैं!!
आवाज़ दो हम एक हैं!
सम्भवतः यही यात्रा का भी उद्देश्य है।
यह एक निष्पक्ष मत है।
शशिकांत गुप्ते इंदौर