पूर्व कथन : आप हवा नहीं देखते तो क्या वह नहीं है? स्वास मत लें, आपको आपकी औकात पता चल जाएगी.
अगर आप सत्य नहीं देख पाते तो यह आपका अंधापन है. अगर आप अपेक्षित को अर्जित नहीं कर पाते तो यह आपकी काहिलताजनित विकलांगता है. मेरा सीधा उद्घोष है : “बिल से बाहर निकलें, समय दें : सब देखें, सब अर्जित करें.“
लोग रहस्यमय दुनिया के चित्र-विचित्र पहलुओं की चर्चा करते हैं. पचास प्रतिशत लोग तो और जिज्ञासु भी हो जाते हैं। शेष ऐसे विषय को अविश्वसनीय मान लेते हैं
वजह तंत्र के नाम पर तथाकथित/पथभ्रष्ट तांत्रिकों की लूट और भोगवृत्ति रही है। इन दुष्टों द्वारा अज्ञानी, निर्दोष लोगों को सैकड़ों वर्षों से आज तक छला जाता रहा है। परिणामतः तंत्र विद्या से लोगों का विश्वास समाप्तप्राय हो गया है।
तंत्र ‘सत्कर्म’- ‘योग’ और ‘ध्यान ‘ की ही तरह डायनामिक रिजल्ट देने वाली प्राच्य विद्या है. इस के प्रणेता शिव हैं और प्रथम साधिका उनकी पत्नी शिवा. जो इंसान योग, ध्यान, तंत्र के नाम पऱ किसी से किसी भी रूप में कुछ भी लेता हो : वह अयोग्य और भ्रष्ट है. यही परख की कसौटी है.
तंत्र के नियम और सिद्धान्त अपनी जगह अटल, अकाट्य और सत्य हैं। इन पर कोई विश्वास करे, न करे लेकिन इनके यथार्थ पर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है।
सूक्ष्मलोक, प्रेतलोक, अदृश्य शक्तियां, मायावी शक्तियां आदि सभी होती हैं. प्रेतयोनि और देवयोनि को विज्ञान भी स्वीकार कर चुका है — निगेटिव और पॉजिटिव एनर्ज़ी के रूप में. जिनको साक्ष्य या निःशुल्क समाधान चाहिए वे व्हाट्सप्प 9997741245 पर संपर्क कर सकते हैं.
~ डॉ. विकास मानव.
(निदेशक : चेतना विकास मिशन)
_सांझ की कालिमा धीरे-धीरे रात्रि के अंधकार में बदलती जा रही थी। बाबा की पूजा-साधना का समय हो गया था। मैं जैसे ही चलने को हुआ, उसी समय मेरी नज़र उस रहस्यमय लड़की पर पड़ी जिसे मैंने दो दिन पहले देखा था। उसकी मुख-मुद्रा विचित्र थी। बिना किसी ओर देखे बाबा के साथ भीतर कुटिया में चली गयी वह।_
कौन है वह रहस्यमय लड़की ?
दूसरे दिन जब बाबा से पूछा मैंने तो वे थोड़ा हंसे फिर बोले--तू जानना चाहता है कि कौन है वह ?
हाँ बाबा।
सुनकर विश्वास करेगा तू ?
क्यों नहीं करूँगा बाबा। आप इतने बड़े तन्त्र साधक और तन्त्र शास्त्र के विद्वान् हैं। क्या आपकी बात का विश्वास नहीं करूँगा मैं ?--मैंने विनम्र स्वर में कहा।
_वह मानवी नहीं है।_
ऐं ! क्या कहा ? मानवी नहीं है यह लड़की ?--आश्चर्य और कौतूहल मिश्रित स्वर में बोला मैं।
_हाँ, विकास यह मानव नहीं है. यह--वटयक्षिणी है--यक्षलोक की कन्या।_
थोड़ा रुककर बाबा आगे बोले-
अत्यधिक साधना के बल पर सिद्ध किया है मैंने उसे। मानवेतर शक्ति सम्पन्न है यह। इच्छाशक्ति अति प्रबल है इसकी। कुछ भी असम्भव नहीं है इसके लिए। समस्त यक्षिणियों में श्रेष्ठ वटयक्षिणी है यह, समझे न ?
अत्यधिक कठोर और जीवन-मरण दायिनी साधना के बल पर सिद्ध किया है इसको मैंने। लेकिन तुझे कैसे प्रत्यक्ष दिखाई दे गयी ? तुम्हारे पास यह दृष्टि?? आश्चर्य की बात है।
इतना कहकर बाबा कुटिया के भीतर चले गए और कपाट बन्द कर् लिए।
*वट यक्षिणी का मिलना*
कुछ दिन कलकत्ता रहना पड़ा मुझे आवश्यक कार्यवश। वापस लौटने पर ज्ञात हुआ कि बाबा ने समाधि ले ली। स्तब्ध रह गया मैं एकबारगी और उसी के साथ कातिक बाबा की छवि उभर आई मेरे मानस पटल पर। तुरन्त भागा-भागा गया नगवा। गहरी निस्तब्धता छायी हुई थी कुटिया के चारों ओर। पीपल के नीचे समाधि थी बाबा की। अभी समाधि की मिट्टी सूखी भी न थी पूरी तरह से।
_दरवाजा बन्द था कुटिया का। ताला लगा था। समाधि के बगल में बाबा का प्यारा कुत्ता वीरभद्र सिर झुकाए ऊँघ रहा था। उसकी आँखों में आंसू छलछला रहे थे, जैसे बाबा की याद में रो रहा हो।_
मेरी उपस्थिति का आभास उसे लग गया था। एक बार सिर उठाकर मेरी ओर करुण दृष्टि से देखा उसने और फिर देखा उस महान् साधक के बन्द दरवाजे की ओर और फिर अपनी गोद में छिपा लिया अपना सिर।
_काफी देर तक खड़ा रहा मैं मौन साधे चुपचाप। लगा जैसे बाबा किसी पल दरवाजा खोल कर बाहर निकल आएंगे और रहस्यमय ढंग से मुस्कराकर मुझसे पूछेंगे--क्यों मानव ! आज क्या जानना-समझना है ?_
मगर ऐसा नहीं हुआ। पीपल के नीचे पड़े एक पत्थर पर बैठ गया और सोचने लगा मैं। कौन समझायेगा इतनी सरल भाषा में तन्त्र के गूढ़ रहस्यमय विषय को ? कौन करेगा साधना का निर्देश मेरे लिए और कौन बतलायेगा मुझे भाव-राज्य और दैवीय राज्य के सम्बन्ध में ?
पूरी रात सो न सका मैं। बार-बार बाबा का तेजोमय मुख-मण्डल थिरक उठता मेरे मानस पटल पर। भोर के समय हल्की-सी झपकी लगी और उसी अर्धतन्द्रिल अवस्था में मुझे दिखलाई दी वह कृष्णवर्णा कन्या।
_एकबारगी मुग्ध हो गया मैं उसकी मनमोहिनी छवि देखकर। काफी समय तक निरखती रहीं मेरी आँखें उस यक्ष-कन्या के अमानवीय अपरूप सौन्दर्य को।_
सहसा मोह भँग हुआ मेरा। उस यक्षिणी का मधुर और कोमल स्वर सुनाई दिया। मुझसे कह रही थी वह--मैं वटयक्षिणी हूँ. पहचाना तुमने मुझे ?
हाँ पहचाना।--मैंने धीरे से कहा--तुम वही यक्ष-बाला हो जिसे साधक कातिक बाबा ने सिद्ध किया था ?
_हाँ, वही हूँ मैं, लेकिन अब उनकी मृत्यु हो जाने के कारण उनकी तान्त्रिक शक्ति के बन्धन से तो मुक्त हो गई हूँ मैं लेकिन वह मुक्ति मेरे लिए व्यर्थ है।_
क्यों ?--मैंने उत्सुक होकर पूछा।
_इसलिए कि अब मैं पृथ्वी के प्रबल गुरुत्वाकर्षण के बाहर निकलकर अपने यक्ष-लोक में नहीं जा सकती।_
ऐसी स्थिति में फिर कहाँ रहोगी तुम ?--मैंने पूछा।
इसी धरती पर कई लोकों का अपना-अपना उपनिवेश है। मेरे लोक का भी उपनिवेश है--उदास स्वर में उसने उत्तर दिया।
कहाँ है वह उपनिवेश ?
_हिमालय के उत्तर की ओर एक रमणीक घाटी में। बड़ा ही सुन्दर स्थान है वह। क्या तुम मेरे साथ चलकर मेरे लोक के उस उपनिवेश को देखना चाहोगे ?--मन्द-मन्द मुस्कराते हुए पूछा उस यक्ष-बाला ने।_
हाँ अवश्य।
न जाने किस प्रेरणा के वशीभूत होकर कह दिया मैंने। फिर थोड़ा सोच कर आगे कहा–लेकिन इतनी दूर किसी अज्ञात प्रदेश में मेरा जाना कैसे सम्भव होगा ?
मेरी बात सुनकर हंस पड़ी यक्ष-बाला। फिर थोड़ा मुस्करा कर बोली–इसकी चिन्ता मत करो तुम।
वटयक्षिणी ने कहा-
जब तुमको पहली बार बाबा के पास देखा, तभी से तुम्हारे प्रति आकर्षित हूँ मैं। प्रेम हो गया है तुमसे मुझे। उसी समय से अदृश्य रूप से तुम्हारे समीप रहने लगी हूँ मैं। तुमको कभी अपनी उपस्थिति का आभास तक नहीं लगने दिया मैंने। सचमुच तुम पर मुग्ध हूँ मैं। क्या तुम मुझसे प्रेम करोगे ? क्या तुमसे प्रेम करने योग्य हूँ मैं ?
हाँ, बिलकुल।–मैंने कहा।
यक्ष-कन्या आगे बोली–
तुम सुन्दर हो, आकर्षक हो और मन को विचलित करने वाला व्यक्तित्व है तुम्हारा। तुम्हारी आँखों में प्रखर तेज है आत्मा का। सबसे बड़ी बात तो यह है कि तुम्हारे शरीर से पौरुष की इतनी ऊर्जा बराबर प्रस्फुटित होती है कि कोई भी पागल और उन्मत्त हो सकता है, मैं तो एक साधारण यक्षिणी हूँ।
जब तुम मुझे हृदय से एकान्त में स्मरण करोगे, उसी समय तत्काल पंचभूत तत्वों के अणुओं को संगठित कर जिस रूप में तुम चाहोगे, उसी रूप में तुम्हारे सामने आ जाऊंगी मैं।
थोड़ा रूककर आगे बोली वह यक्षबाला–तुम्हें सिद्ध करना होगा पहले मुझे।
वह कैसे ?–थोड़ा व्यग्र होकर पूछा मैंने। मेरी आतुरता देखकर हंस पड़ी यक्ष-कन्या।
समय पर बतला दूंगी सिद्धि की विधि। अच्छा, अब चलो मेरे साथ।
यक्षिणी के इतना कहते ही मैं अपने आप में हल्केपन का अनुभव करने लगा। न जाने कैसी विचित्र अनुभूति होने लगी मुझे–बतला नहीं सकता मैं।
एक गहरा शून्य भर गया मेरे भीतर। न जाने कैसे और किस मार्ग से पहुँच गया मैं हिमालय के ऊपर। चारोँ ओर वर्फ ही वर्फ। ऊपर नीला आकाश और नीचे हिमाच्छादित हिमालय के उत्तुंग शिखर।
तभी मधुर और कोमल स्वर सुनाई दिया यक्षिणी का–मैं फिर कहती हूँ–तुम्हारे प्रति आकर्षित हूँ मैं। तुम्हें चाहती हूँ मैं। सचमुच तुमसे प्रेम करने लगी हूँ। तुम्हारे बिना रहा न जायेगा मुझसे।
स्निग्ध चांदनी जैसा रुपहला प्रकाश फ़ैल रहा था उस शून्य और मनोरम वातावरण में। सिर घुमा कर देखा– उस यक्ष-कन्या की छवि बड़ी ही मोहक लगी उस प्रकाश में। नीलवर्णी काया, मोरनी जैसी सरल निश्चल रतनारी आँखें, क्षीणकटि, उन्नत उरोज और सावन-भादों की घटा जैसी पीठ पर बिखरी घनी स्याह केश-राशि।
उस लावण्यमयी रूपसी के मादक स्पर्श से बार-बार सिहर उठता था मेरा पूरा शरीर। धीरे-धीरे एक अबूझ-सा नशा छाने लगा मेरे मन-मस्तिष्क पर।
क्या वास्तव में तुम मुझसे प्रेम करने लगी हो ? विश्वास नहीं होता।–मैंने उस यक्ष-कन्या की ओर देखते हुए कहा।
मनुष्य हो न ? कैसे होगा विश्वास ? भ्रम, सन्देह मनुष्य के गुण जो हैं।–यक्ष-कन्या बोली।
नहीं, ऐसी बात नहीं–मैंने धीरे से कहा–सच तो यह है कि कहाँ मैं एक साधारण मनुष्य और कहाँ तुम एक मानवेतर प्राणी…बस इसी कारण….
मेरा वाक्य अधूरा ही रह गया। बीच ही में बोल पड़ी यक्षिणी-
बस..बस.. आगे कुछ मत बोलो। इस प्रकार की भेद-भाव वाली बात मुझे अच्छी नहीं लगती। बस मैं केवल इतना जानना चाहती हूँ कि मेरे संसर्ग में रहना स्वीकार है तुमको या नहीं ?
हाँ स्वीकार है मुझे तुम्हारा सान्निध्य, लेकिन एक बात है, वह यह कि मैं शरीरी हूँ और तुम हो अशरीरी और विदेही। इस स्थिति में बराबर सान्निध्य कैसे सम्भव होगा ?
मेरी बात सुनकर हँस पड़ी वह यक्षबाला फिर बोली–इसकी चिन्ता तुम मत करो।
वैसे अदृश्य रूप से बराबर तुम्हारे साथ रहूंगी ही मैं, लेकिन जैसा कि मैं तुमको बतला चुकी हूँ कि जब कभी भी तुम मुझको एकान्त में स्मरण करोगे, मैं तुरन्त भौतिक शरीर में उपस्थित हो जाऊंगी तुम्हारे सामने।
और यक्षिणी के अन्तिम वाक्य के साथ ही कांच की तरह छन्न से टूट गया सपना। एकाएक आँख खुल गयी मेरी। सवेरा होने वाला था।
अपना पूरा कमरा एक विचित्र तथा मादक सुगन्ध से भरा हुआ था। कुछ समझ में नहीं आया।
लगभग एक मास का समय बीत गया। कभी-कभी उस यक्ष-कन्या का रूप और सौंदर्य मानस-पटल पर उभर आता और तब विह्वल हो उठता मैं एकबारगी।
एक दिन साँझ के समय रोज की तरह चेतसिंह घाट के ऊपर किले के बुर्ज पर बैठा हुआ था एकान्त में। आकाश में काले-भूरे बादल छाए हुए थे। पानी बरसने ही वाला था। उस सुनसान निर्जन वातावरण में यक्ष-बाला की स्मृति जागृत होना स्वाभाविक था।
_न जाने क्या सोचने लगा मैं उसके विषय में और तभी उस बरसाती चिपचिपे अँधेरे में एकाएक हवा का एक प्रबल झोंका आया और मेरे सामने सिमिट गया और सिमिट कर चक्राकार घूमने लगा अपने सीमित स्थान पर और मेरे देखते-देखते ही वह आकार ग्रहण करने लगा जो अपने आप में चमकदार था। कुछ ही पलों के बाद वह आकार उसी यक्ष-कन्या के रूप में परिवर्तित हो गया। अब वह यक्षबाला मेरे सामने खड़ी मुस्करा रही थी।_
स्तब्ध रह गया उसे देखकर मैं एकबारगी। एकाएक मुंह से निकल पड़ा--अरे तुम !
_तुमने याद किया और मैं आ गयी।-यक्ष-सुन्दरी ने हँस कर् उत्तर दिया, फिर बोली--क्या चाहते हो ? क्यों स्मरण किया मुझे तुमने ?_
एक बात बतलाओगी ?
क्यों नहीं ? पूछो।
मैं तन्त्र-मन्त्र पर शोध और खोज-कार्य कर रहा हूँ। क्या तुम इस कार्य में मेरा सहयोग दोगी ?--मैंने पूछा।
मेरी बात सुनकर एकबारगी चौंक पड़ी वह। सिर घुमाकर एकबार देखा उसने मेरी ओर और फिर बोली वह--इस चक्कर में कैसे पड़ गए तुम ? कभी भी किसी जंजाल में फंस सकते हो, समझे ? सभी के वश की बात नहीं है यह।
मैं चुप रहा, फिर थोड़ी देर बाद बोला--मेरी रुचि है, मेरी इच्छा है इसमें।
मेरी बात सुनकर कुछ देर तक न जाने क्या सोचती रही वह। उसके बाद गम्भीर स्वर में कहने लगी--
_जानते हो तुम ? तन्त्र और उसकी साधना-सिद्धि आदि को लेकर वर्तमान समय में कितना ढोंग और पाखण्ड फ़ैल रहा है ? कितना पापाचार, व्यभिचार आदि को बढ़ावा मिल रहा है ? कितने लोग ठगे जा रहे हैं ! तन्त्र-शक्ति एक ऐसी वस्तु है जिसका प्रलोभन देकर किसी भी वर्ग के लोगों को प्रभावित किया जा सकता है और प्रभावित कर चाहे-अनचाहे, अच्छा-बुरा कुछ भी करवाया जा सकता उनसे। जो लोग तन्त्र-शास्त्र के एक अक्षर से भी परिचित नहीं हैं, तन्त्र से सम्बंधित किसी देवी-देवता के स्वरूप से परिचित नहीं हैं, इसके अलावा उनकी पूजा-उपासना और पूजा-पद्धति से भी अनभिज्ञ हैं, वे लोग तन्त्र से सम्बंधित बड़ी-बड़ी पुस्तकें लिख रहे हैं, पूजा-उपासना आदि की व्याख्या कर् रहे हैं, प्रवचन दे रहे हैं, साधना की दीक्षा दे रहे हैं और बतला रहे हैं साधना का मार्ग भी। कैसी विडम्बना है ? यही कारण है कि प्रबुद्ध वर्ग के लोगों की श्रद्धा और उनका विश्वास समाप्त होता जा रहा है और तन्त्र और उसकी साधना-उपासना के प्रति भी। तन्त्र को हेय और उपेक्षा की दृष्टि से देखा जा रहा है वर्तमान समय में।_
वटयक्षिणी आगे बोली--
_आज तन्त्र से सम्बंधित देवी-स्थानों और शक्ति-पीठों की स्थिति शोचनीय हो गयी है। क्या-क्या नहीं होता है वहां तन्त्र-मन्त्र के नाम पर ? वासना, साधना-उपासना की रूपांतरण बन गयी है और वहां बन गये हैं सभी प्रकार के शोषण के केंद्र। क्या चाहिए अब ? तंत्र के वास्तविक स्वरूप का दर्शन दुर्लभ हो गया है। ऐसी स्थिति में, ऐसे वातावरण में और ऐसे भ्रामक माया-जाल के बीच क्या कर सकोगे तुम ? कैसे उद्धार कर सकोगे तंत्र के वास्तविक स्वरूप का ? कैसे प्रकाश डाल सकोगे तिमिराच्छन्न तांत्रिक साधना-उपासना आदि पर और कैसे तोड़ सकोगे तन्त्र-मन्त्र के नाम पर फैले हुए ढोंग और पाखण्ड के मायाजाल को ? बोलो, उत्तर दो मुझे।_
यह सब सुनकर टुकुर-टुकुर ताकने लगा मैं उस यक्षिणी की ओर। तत्काल कोई उत्तर न दिया गया, कुछ बोला भी न गया मुझसे।
तुमको यह भी मालूम होना चाहिए कि तन्त्र-मन्त्र के नाम पर ढोंग और पाखण्ड करने वाले, साधना-उपासना बतलाने वाले, उपदेश-प्रवचन-दीक्षा देने वाले और शोषण-व्यभिचार-पापाचार आदि करने वाले लोगों की क्या गति होती है मरने के बाद। उनकी आत्मा को नर्क में भी स्थान नहीं मिलता।
थोड़ा रूककर वह यक्ष-कन्या आगे बोली--
_ऐसे लोगों की आत्माओं का वासना शरीर अत्यन्त घृणित और वीभत्स होता है। स्थूल शरीर भी अत्यन्त कष्ट के साथ छूटता है उनका मृत्यु के समय। भयंकर आकार वाले यमदूत लेने आते हैं उन्हें। वे भयंकर यक्ष ही होते हैं एक प्रकार से। पहले वे उनको उनके कुकृत्यों के कारनामे सुनाते हैं जिन्हें वे तन्त्र-मन्त्र के नाम पर किये थे। फिर उन्हें पकड़कर ले जाते हैं यक्ष-लोक में और उसके पहले यक्षलोक के उपनिवेश में रखकर भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रताड़ित करते हैं। उनकी दुर्दशा करते हैं, यातना देते हैं। फिर यक्षलोक में उन्हें कब तक रखते हैं, इसकी कोई अवधि नहीं। लेकिन जब तक वे वहां रहते हैं, वे ग्लानि और पश्चाताप की अग्नि में जलते रहते हैं। फिर उनका जन्म मुर्गा, कबूतर, बकरा, ऊंट, भैंसा आदि पशु-पक्षियों की योनि में होता है। इसलिए ये पशु-पक्षी यक्षलोक से धरती पर आये हैं। इन सबका सम्बन्ध यक्षलोक से है और यही कारण है कि तांत्रिक क्रियाओं को सिद्ध करने की दिशा में इनकी बलि दी जाती है।_
यक्षिणी ने आगे कहा--
_इसी प्रकार जो लोग तन्त्र-मन्त्र की थोड़ी बहुत सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं और उसकी शक्ति का दुरुपयोग करते हैं, किसी का नुकसान करते हैं, किसी को किसी प्रकार की क्षति पहुंचाते हैं, अपनी सिद्धि का प्रदर्शन करते हैं और उसी अहंकार के वशीभूत होकर तन्त्र-मन्त्र का अनुचित प्रयोग करते हैं, किसी को कष्ट-दुःख पुहुंचाते हैं, जानते हो तुम, ऐसे तांत्रिकों का समय अत्यन्त दारुण तो होता ही है, बाद में उनकी बड़ी दुर्गति होती है यक्षलोक में। उनका जन्म भी अति घृणित योनियों में होता है। ऐसे तांत्रिकों को हमारे लोक में असद् साधक कहते हैं। इसके ठीक विपरीत जो तांत्रिक हैं, उनको कहते हैं--सद् साधक। सद् साधक अपनी तांत्रिक साधना और सिद्धियों के द्वारा लोककल्याण करते हैं। लोगों को दैवीय सहायता प्रदान करते हैं, सहयोग देते हैं, रोग-शोक हरण करते हैं, अहंकार रहित और सभी के प्रति विनम्र होते हैं। संसार-समाज की दृष्टि में जो अनैतिक कार्य हैं, उन्हें भी वे साधना के भाव से ही करते हैं। उनका सभी नैतिक-अनैतिक कार्य साधना के लिए होता है। प्रत्येक कार्य में उनका एकमात्र लक्ष्य साधना ही होता। मदिरा पान करें, गाली-गलौज करें, स्त्री-गमन करें, जो कुछ करें--सबके पीछे उनका उद्देश्य होता है--लौकिक-पारलौकिक कल्याण का भाव। सच पूछो तो ऐसे सद् साधकों की मति-गति को और कार्य-कलाप जानना-समझना सबके वश की बात नहीं।_
वह बोली : एक और तन्त्र साधक होते हैं, जिनको योगमार्गीय तन्त्र-साधक कहते हैं, वे सदैव अपने आपको प्रच्छन्न (छिपाकर) रखते हैं संसार-समाज से।
योगमार्गीय तन्त्र-साधक की साधना पूर्णरूप से अंतर्मुखी होती है। उनकी मति-गति और उनके आचार-व्यवहार से बिलकुल यह नहीं लगता है कि वे उच्चकोटि के साधक हैं। उनकी साधना से जुडी हुई जितनी भी क्रियाएं हैं, वे सब भावराज्य में होती हैं।
प्रत्यक्ष में वे कुछ भी करते नहीं दिखायी देते। वे अप्रच्छन्न सिद्ध होते हैं। वे कुछ भी न करते हुए भी बहुत कुछ करते रहते हैं। वे प्रेम-स्नेह, करुणा, दया और अनुकम्पा के साक्षात् रूप होते हैं। उनका सम्बन्ध हर पल अपने प्रशिक्षक और इष्ट से जुड़ा रहता है। सूक्ष्म शरीरधारी दिव्यात्माओं से भी उनका बराबर सम्पर्क रहता है।
उन्हें कोई समझे या न समझे, लेकिन वे सभी के अन्तर्मन को समझते रहते हैं। ऐसे साधकों की साधना यदि भौतिक शरीर के रहते पूरी नहीं होती है किसी कारणवश तो वे उसे पूरा करने के लिए यक्षलोक के उस भाग् में चले जाते हैं जिसका सम्बन्ध समस्त लोक-लोकान्तरों से है। साधना पूरी होने पर ही संसार में आते हैं और भौतिक शरीर ग्रहण भी करते हैं।
ऐसे साधकों को ही 'महात्मा' कहते हैं जिनका अस्तित्व इस संसार में विरले ही है। किसी भाग्यवान को ही ऐसे महात्मा के दर्शन-लाभ होते हैं। उनके द्वारा उपदिष्ट ज्ञान अपौरुषेय ज्ञान होता है। ऐसे साधक प्रायः सहज समाधि की अवस्था में रहते हैं।
अच्छा, अब बस-- यक्षिणी अपने भौतिक (पार्थिव) अस्तित्व को समेटते हुए बोली--
फिर कभी मिलूँगी तो आगे बात होगी।–इतना कहकर अदृश्य हो गयी कातिक बाबा की वट यक्षिणी। एक महीना बीत गया लेकिन दर्शन नहीं हुए उस यक्ष-बाला के।
साँझ का समय था उस दिन। अपने कमरे में मौन साधे बैठा न जाने क्या सोच रहा था कि सहसा गुलाब की सुगन्ध से भर गया मेरा पूरा कमरा और उसी के साथ प्रकट हो गयी मेरे सामने वह लावण्यमयी सुन्दरी। सकपका गया मैं एकबारगी।
कहाँ थी इतने दिनों ?–मैंने पूछा।
उत्तर में वटयक्षिणी बोली–
काशी में एक महात्मा निवास करते हैं। दीर्घ काल तक यक्षलोक में साधना करने के पश्चात 80 वर्ष पूर्व भौतिक शरीर धारण किया था उन्होंने।
क्या नाम् है उनका ?–काफी उत्सुक होकर पूछा मैंने।
नाम् है उनका– सहजानन्द–उस यक्षिणी ने जवाब दिया।
कहाँ रहते हैं वे ?–काफी बेचैन हो गया मैं।
तुम्हारे ही निकट केदारेश्वर का जो मन्दिर है न–यक्षबाला ने कहा–उसी के बगल में एक बड़ा-सा मकान है। सीढ़ी चढ़कर मकान में जाना पड़ता है। उस मकान में एक प्राचीन काली की मूर्ति भी है। मकान के एक छोटे-से कमरे में रहते हैं वह महापुरुष। एक माह तक उन्हीं के सत्संग में रही, समझे ?
क्या वे मुझसे मिलेंगे ? क्या वे मुझे अपना दर्शन देंगे ? क्या वे मेरी अभौतिक सत्ता और पारलौकिक सत्ता के रहस्यों की खोज में मेरा सहयोग करेंगे ?–एक साथ इतना बोल गया मैं।
क्यों नहीं ? मैंने उन्हें तुम्हारा परिचय दे दिया है। खूब प्रसन्न होंगे तुमसे मिलकर। जानते हो, जब मैंने उनसे तुम्हारी चर्चा की तो ‘हो हो’ कर खूब हँसे महाशय।–इतना कहकर चली गयी वटयक्षिणी।
पूरा कमरा पूरी रात गुलाब की सुगन्ध से महकता रहा। नींद नहीं आयी उस रात। सवेरा हुआ। मन नहीं माना, चल पड़ा दर्शन करने के लिए उस दुर्लभ महात्मा का।
सहमते हुए सीढियां चढ़ते हुए मकान के भीतर गया। काफी लम्बा-चौड़ा मकान था। पूरब की ओर बड़ी-बड़ी खिड़कियां थीं जिनमें शीशे के पल्ले लगे हुए थे और जिनके पीछे गंगा की धवल धारा साफ़ दिखलाई दे रही थी।
घोर सन्नाटा छाया हुआ था मकान में चारों तरफ। तभी कमर झुकाए, हाथ में लाठी लिए एक बंगालिन बुढ़िया न जाने किधर से आ गयी। पूछने पर उसने हाथ के इशारे से महात्मा का कमरा बतलाया। कमरा थोड़ा खुला हुआ था।
भीतर झांककर देखा–ऊँचे तख़्त पर एक महाशय बैठे हुए थे नेत्र बन्द किये मौन साधे। समझते देर न लगी–स्वामी सहजानन्द थे वे। हे भगवान् ! कितना तेज था उस परम महात्मा के चेहरे पर–बतलाया नहीं जा सकता। इसके अलावा पूरे शरीर के चारों ओर स्वर्णिम आभामंडल भी विकीर्ण-सा हो रहा था।
नेत्र बन्द थे महात्मा के। ऐसा लग रहा था कि संसार भर की शान्ति सिमट गयी हो उस छोटे से कमरे में।
मेरी उपस्थिति का आभास शायद लग गया था महात्मा को। धीरे-धीरे नेत्र खुले और गहरी दृष्टि से देखा मुझे उन्होंने। कुछ क्षण बाद महात्मा हँसे। बालसुलभ हंसी थी वह और बोले–आओ, आओ, तुम्हीं विकास? यक्षिणी ने सब बतला दिया है तुम्हारे बारे में। सारी कथा जान गया हूँ तुम्हारी मैं।
सहमते हुए कमरे में भीतर गया और महात्मा के चरणों का स्पर्श किया मैंने। हे माँ ! स्पर्श करते ही बिजली जैसा एक अजीब-सा करेन्ट लगा मुझे। झनझना गया मेरा पूरा शरीर।
महात्मा के संकेत पर सामने बिछी चटाई पर बैठ गया। मेरे दोनों हाथ जुड़े हुए थे। अपलक दृष्टि से महात्मा की ओर देख रहा था मैं। और तभी उन्होंने पूछा–क्या जानना चाहते हो ?
पहले तो कुछ बोला नहीं गया मुझसे। फिर किसी प्रकार अटक-अटक कर प्रश्न किया मैंने–परमात्मा क्या है ? परमात्मा की परिभाषा क्या है ?
(शेष, निकट भविष्य की अगली सीरीज में)