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पैरा’साइकोलॉजी : छाया शरीर का विज्ञान

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डॉ. विकास मानव
(मनो-चिकित्सक, ध्यान-प्रशिक्षक, निदेशक : चेतना विकास मिशन)

  पूर्व कथन : _आप हवा नहीं देखते तो क्या वह नहीं है? स्वास मत लें, आपको आपकी औकात पता चल जाएगी. अगर आप सत्य नहीं देख पाते तो यह आपका अंधापन है. अगर आप अपेक्षित को अर्जित नहीं कर पाते तो यह आपकी काहिलताजनित विकलांगता है._
*मेरा स्पस्ट और चुनौतीपूर्ण उद्घोष है : बिल से बाहर निकलें, समय दें : सब देखें, सब अर्जित करें.*
  आप अदृश्य को और उसकी शक्तियों को अविश्वसनीय मान बैठे हैं, क्योंकि इनके नाम पर तथाकथित/पथभ्रष्ट तांत्रिकों, कथित गुरुओं की लूट और भोगवृत्ति रही है। इन दुष्टों द्वारा अज्ञानी, निर्दोष लोगों को सैकड़ों वर्षों से आज तक छला जाता रहा है। परिणामतः प्राच्य विद्या से लोगों का विश्वास समाप्तप्राय हो गया है।
  _*तंत्र ‘सत्कर्म’- ‘योग’ और ‘ध्यान ‘ की ही तरह डायनामिक रिजल्ट देने वाली प्राच्य विद्या है. इस के प्रणेता शिव हैं और प्रथम साधिका उनकी पत्नी शिवा. जो इंसान योग, ध्यान, तंत्र के नाम पऱ किसी से किसी भी रूप में कुछ भी लेता हो : वह अयोग्य और भ्रष्ट है. यही परख की कसौटी है.*_
    तंत्र के नियम और सिद्धान्त अपनी जगह अटल, अकाट्य और सत्य हैं। इन पर कोई विश्वास करे, न करे लेकिन इनके यथार्थ पर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है। जिनको साक्ष्य या निःशुल्क समाधान चाहिए वे व्हाट्सप्प 9997741245 पर संपर्क कर सकते हैं.

सूक्ष्मलोक, प्रेतलोक, अदृश्य शक्तियां, मायावी शक्तियां आदि सभी होती हैं. प्रेतयोनि और देवयोनि को निगेटिव और पॉजिटिव एनर्ज़ी के रूप में विज्ञान स्वीकार कर चुका है.

पूरे एक महीने बाद मैं लौटा घर। मटमैले कपड़े, बढ़े हुए बाल और एक महीने की बढ़ी हुई दाढ़ी, मुरझाया चेहरा।
मुझे एकाएक आया देख कर एकबारगी सन्न रह गयी मेरी माँ। कुछ क्षण देखती रही अपलक मेरी ओर। आंखें छलछला आयी थीं उसकी। रुँधे हुए कण्ठ से बोली- “कितनी परेशान थी ? कितनी चिन्तित थी ? कहाँ चले गए थे तुम? न कोई सूचना, न कोई समाचार, मेरा भी ख्याल नहीं आया।”
सब सुना। क्या बोलता, क्या कहता और क्या देता मैं उत्तर। वात्सल्य से हाथ थाम कर भीतर ले गयी और बोली–कैसी शक्ल बना रखी है ? पहले नहाइये और कपड़े बदलिए।
अब तक भोजन बन गया था। भोजन स्वादिष्ट था। मेरी सारी प्रिय वस्तुएं थीं थाली में। भोजन करते समय सामने बैठ गयी माँ हाथ में पंखा लेकर और उसे झलते हुए कहने लगी– आपके जाने के बाद एक सन्यासी आया था आपको खोजते हुए। मैं क्या जानूँ कि आप कहाँ गए हैं। आप बराबर कलकत्ता आते-जाते रहते हैं, इसीलिए कह दिया कि आप कलकत्ता गए हुए हैं।
भोजन करा दिया और कम्बल और कुछ रुपये देना चाहा, लेकिन उसने लिया नहीं। पन्द्रह-सोलह दिनों के बाद फिर आया वह सन्यासी. बोला–कलकत्ता में बाबा मिल गए। एक जोड़ी रेशमी साड़ी और एक हज़ार रुपये मुझे देते हुए बोला–बाबा ने भेजा है आपके लिए। तुरन्त चला गया, वह रुका नहीं।
यह सुनकर दंग रह गया मैं एकबारगी। भोजन करते-करते रुक गया हाथ। आश्चर्य के भाव के साथ माँ की ओर देखा और फिर करने लगा मैं भोजन।
समझते देर न लगी थी मुझे–एक दिव्य योगी की योगमाया थी वह। भोजन का ऋण उतार दिया था रत्नकल्प नामक उस योगी ने साड़ी और रुपये देकर।

  एक दिन स्वामी अखिलेश्वरानंद आये। मैं उनको देखकर मुस्कराया। वे भी मुस्करा दिए। मेरी मुस्कराहट अपने स्थान पर रहस्यमयी थी और उनकी अपने स्थान पर। मेरे यह पूछने पर कि इतने दिन कहाँ रहे आप , वह कहने लगे--था तो काशी में ही लेकिन अति व्यस्तता के कारण आना न हो सका।
  _मैंने उनके विषय में क्या-क्या जाना है और क्या-क्या सुना है--यह सब नहीं बतलाया और न तो यही बतलाया कि शोभा माँ की साधना-स्थली को देख लिया है मैंने।_
  एक बात पूछ सकता हूँ ?
  क्या ? पूछिये न ! 
  जिस दिन आप मेरे यहाँ बैठकर आध्यात्मिक चर्चा कर रहे थे, मठ के लोगों का कहना है कि उस समय आप अपने कमरे को भीतर से बन्द कर कई दिनों से समाधिस्थ थे। यह सुनकर घोर आश्चर्य हुआ था मुझे। स्वयं मैं मठ में गया था। आपका कमरा वास्तव में भीतर से बन्द था। मठ के प्रत्यक्षदर्शी लोगों का कहना था कि आप कमरे के भीतर कई दिनों से हैं। पुकारने पर बोलते नहीं और न तो बाहर ही निकल कर देखते हैं। इसका क्या रहस्य है ? समझ में नहीं आया।
    मेरी बात मुंह बाए सुन रहे थे स्वामी अखिलेश्वरानंद। फिर थोड़े गम्भीर हो गए। कुछ सोचकर धीरे-से बोले--मठ के लोग भी अपने स्थान पर सही थे और आप अपने स्थान पर।
 _वह मेरी परम् समाधि की अवस्था थी और उस अवर्णनीय अवस्था में वसुमण्डल में था और उसी समय मैं आपके पास भी था।_
  लेकिन आपकी पार्थिव काया फिर कैसे कमरे में थी जबकि वह मेरे सामने थी उस समय।
  मेरी बात सुनकर स्वामी अखिलेश्वरानंद थोड़ा हंसे और फिर बोले--अरे बन्धु ! वह मेरा छाया शरीर था।
  ऐं ! क्या कहा आपने..छाया शरीर था ?
  हाँ, छाया शरीर।
  _एक ही समय में दो और दो से अधिक स्थानों में उपस्थित रहना एक छायापुरुष सिद्ध योगी के लिए असम्भव नहीं है।_

छाया शरीर का विनिर्माण :
वासना तत्व, प्राणतत्व, मनस्तत्व, विचारतत्व और किंचितमात्र पृथ्वीतत्व के परमाणुओं के मिश्रण से छाया शरीर का निर्माण होता है। मनुष्य का जैसा स्थूल शरीर होता है, ठीक वैसा ही उसका छाया शरीर भी होता है। कहीं कोई भेद नहीं, वैषम्य नहीं।
वही रूप;रंग, वही आकार-प्रकार। योगीगण छाया शरीर के माध्यम से दूसरे के शरीर में प्रवेश करते हैं जिसे ‘परकाया प्रवेश’ कहते हैं। स्थूल शरीर, छाया शरीर की रचना एक ही साथ गर्भ में होती है। स्थूल शरीर में पृथ्वी तत्व और अन्नमय तत्व की प्रधानता रहती है, इसलिए वह दिखलायी देता है।
इसी प्रकार छाया शरीर में आकाशतत्व की प्रबलता और अधिकता रहती है, इसलिए वह दिखलायी नहीं देता है। अप्रकट से प्रकट होने की दिशा में योगी की प्रबल इच्छा-शक्ति काम करती है।

संकल्प-शक्ति और इच्छा-शक्ति के द्वारा योगीगण स्थूल शरीर से छाया शरीर को अलग कर लेते हैं और इच्छानुसार अपने पार्थिव शरीर में प्रकट भी हो जाते हैं। वास्तव में यह सब योगी की योगमाया है और इस माया को केवल योगी ही समझ सकता है।
प्रकृति के नियम के अनुसार मृत्युकाल में एक तत्व दूसरे तत्व में विलीन हो जाता है। अन्त में शेष रह जाता है आकाश-तत्व। आकाश-तत्व सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड में समान रूप से विद्यमान है। वैज्ञानिक भाषा में इसी को ‘ईथर’ कहते हैं। आकाश-तत्व की मात्रा सर्वाधिक होने के कारण छाया शरीर की गति में समय का अभाव रहता है। इसीलिए छाया शरीरधारी योगी एक क्षण में हज़ारों मील की यात्रा कर सकने में समर्थ होता है।
छायापुरुष सिद्धि प्राप्त योगीगण प्रायः छायाशरीर द्वारा ही काम लेते हैं। अपने स्थूल शरीर से न जाकर अपने छाया शरीर को भेजकर अपना कार्य सिद्ध कर लिया करते हैं।

किसी प्रकार की विषमता न होने के कारण साधारण लोग इस रहस्य को नहीं समझ पाते हैं कि सामने वाले का शरीर भौतिक शरीर नहीं, बल्कि छाया शरीर है। जैसा कि मैंने बतलाया कि एक परम सिद्ध योगी ही एक ही समय में और एक ही अवस्था में अपने छाया शरीर को कई स्थानों में प्रकट कर सकता है, किन्तु ऐसा कोई विरला ही योगी कर सकता है, सभी नहीं।
छाया शरीर भौतिक शरीर का वास्तविक प्रतिरूप है। कभी-कभी वह स्वयं किसी अवस्थावश पार्थिव शरीर को छोड़कर अलग हो जाता है, किन्तु अधिक दूर तक नहीं जा पाता, विशेषकर अपने पार्थिव शरीर के आस-पास ही मंडराता रहता है। गहरी मूर्छा के समय, गहरे आघात के लगने पर, अधिक मदिरा-पान की स्थिति में और कोमा में चले जाने पर छाया शरीर भौतिक शरीर से अलग हो जाता है और पार्थिव शरीर के चैतन्य होने की प्रतीक्षा करता है।
चैतन्य होते ही पुनः शरीर मे लौट आता है। यदि चैतन्य नहीं हो और शरीर की मृत्यु हो जाये तो मृत शरीर में ही प्रवेश करने का प्रयास करता है।

यदि मृत शरीर में प्रवेश करने में सफल हो गया तो मृत काया में अधिक समय तक ठहर नहीं पाता है, बाहर निकल आता है।
ऐसा असफल छाया शरीर जब तक उसमें प्राण-तत्व रहता है, तब तक इधर-उधर वायु-मण्डल में भटकता रहता है। उस स्थिति में मृतक के परिजनों को स्वप्न में दिखलायी दे सकता है। परिजन इस भ्रम में रहते हैं कि मृतक ही उसे स्वप्न में दिखलायी दिया है, जबकि बात कुछ और ही रहती है। मरने वाला व्यक्ति तो मर ही जाता है और यथासमय कहीं जन्म भी ले लेता है, किन्तु मृत्यु के समय अलग हुआ उसके पिछले जन्म का छाया शरीर, जब तक उसमें प्राण-तत्व का अंश रहता है, तब तक पृथ्वी के वायु-मण्डल में भटकता रहता है।
छाया शरीर विशेषकर उस स्थान पर अधिक रहता है, जहाँ भौतिक शरीर की अन्तिम क्रिया हुई होती है। इसीलिए श्मशानों और कब्रिस्तानों में छाया शरीरों की भीड़ अधिक रहती है। स्वप्न में प्रायः मृत परिजन दिखलायी पड़ते हैं और अपना कोई संदेश भी देने के प्रयास भी करते हैं। वास्तव में वह परिजनों का छाया शरीर होता है।
यहां यह समझ लेना आवश्यक है कि छाया शरीर का अस्तित्व कब तक रहता है–यह बतलाया नहीं जा सकता। हाँ, एक बात अवश्य है कि जब तक प्राण-तत्व का अंश उसमें रहता है, तव तक उसका अस्तित्व बना रहता है। उसके बाद वह नष्ट हो जाता है।

छाया शरीर का दर्शन :
मैंने जरा मुस्कराकर स्वामी अखिलेश्वरानंद से पूछा–क्या आपका यह पार्थिव शरीर है ? क्योंकि यह सब सुनकर मुझे भ्रम हो रहा है कि कहीं पहले की तरह आप कहीं छाया शरीर में तो नहीं आये हैं ?
स्वामी अखिलेश्वरानंद जरा हँसकर बोले–नहीं, ऐसी बात नहीं है। अपने पार्थिव शरीर में ही हूँ इस समय। लेकिन यदि आप चाहते हैं तो मैं इसका छाया शरीर दिखला सकता हूँ।
लीजिए देखिए–यह कहकर स्वामीजी ने अपने शरीर को कई बार झटका दिया श्वास रोककर और अन्तिम झटके के साथ मैंने देखा–स्वामीजी के स्थूल शरीर की ही तरह एक दूसरा शरीर धीरे-धीरे स्थूल शरीर के पीछे से बाहर निकल रहा है। वह छाया शरीर था वैसा ही जैसा स्वामीजी का स्थूल शरीर था–वही रूप-रंग, वही आकार-प्रकार यानी स्थूल शरीर का प्रतिरूप।
लगभग दो मिनट तक छाया शरीर की स्वतंत्र स्थिति बनी रही और फिर धीरे-धीरे वह विलीन हो गया पार्थिव शरीर में।
यह देखकर मेरा आश्चर्यचकित होना स्वाभाविक था। स्वामीजी बोले–किसी कारणवश जब जीवित शरीर से छाया शरीर अलग होता है तो वह प्रतिरूप होता है और साकार भी किन्तु उसमें अस्थिरता रहती है। लेकिन किसी विशेष परिस्थितियों में उसमें प्रतिरूपता तो रहती है पर वह दिखलायी नहीं देता।
एक साधारण व्यक्ति के और एक योगी के छाया शरीर में भारी अन्तर होता है। साधारण व्यक्ति का छाया शरीर प्राकृतिक होता है।
प्रारम्भ में योगी का छाया शरीर भी प्रकृतिक ही होता है किन्तु योगबल से सिद्ध हो जाने पर योगी का छाया शरीर कुछ समय के लिए पार्थिव हो जाता है और गोचर भी तथा योगी के इच्छानुसार कार्य भी करता है।

दूसरा सिद्ध छाया शरीर :
आज के तीस वर्ष पहले काशी के हनुमान घाट पर एक स्वामीजी रहते थे। नाम था–स्वामी परमानन्द सरस्वती।
स्वामीजी साठ वर्ष के एक पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति थे। उन्हें छाया शरीर की सिद्धि भी थी। वे एक ही समय में छाया शरीर द्वारा छ: स्थानों में प्रकट होकर छः कार्य एक साथ करते थे, जबकि उनका पार्थिव शरीर अपने स्थान पर रहता था।
उनके निकट के लोग भी उनके इस रहस्य से अपरिचित थे।

  एक बार एक ऐसी घटना घटी कि मैं उनके रहस्य से परिचित हो गया। कारण पूछने पर स्वामीजी सहज ढंग से बोले--इस सिद्धि से सबसे बड़ा लाभ यह है कि समय की भारी बचत हो जाती है।
   मुझे नित्य पढ़ना है, पाठशाला में जाकर तीन घण्टे पढ़ाना है, दो घण्टे साधनाभ्यास करना है, एक-दो घण्टे लोगों से मिलना-जुलना है, अपने भोजन की व्यवस्था भी करनी है।
   सोचो--जरा इन सब कार्यों में मेरा कितना समय व्यतीत हो सकता है। अधिक भी लग सकता है, जबकि मैं अपने निवास स्थान पर ही रहकर एक ही समय में अपने सभी कार्य सम्पन्न कर लेता हूँ।
  अपने पार्थिव शरीर से केवल एक ही काम लेता हूँ और वह है नित्य क्रिया, साधना, चिन्तन व शास्त्रानुशीलन।

  यह सुनकर क्या उत्तर देता मैं। आगे कुछ पूछा न गया मुझसे। स्वामीजी काशी में लगभग दस वर्ष रहे और मेरी उनसे नित्य भेंट होती थी। निश्चय ही स्वामीजी एक मनस्वी पुरुष थे--इसमें सन्देह नहीं।

छाया शरीर के वैशिष्ठ्य :
वे बोले–जैसा कि बतलाया गया है कि छाया शरीर स्थूल शरीर का प्रतिरूप होता है और उसका निर्माण गर्भ में स्थूल शरीर के साथ ही होता है। स्थूल शरीर के जन्म लेने के बाद चार-पांच वर्ष तक उसका छाया शरीर कुछ समय के लिए कभी-कदा इधर-उधर भ्रमण करने के लिए निकल जाता है।
ऐसी अवस्था में शिशु अस्वस्थ हो जाता है, रोने भी अधिक लगता है। भूख उसे कम लगती है, चिड़चिड़ा हो जाता है, ज्वर भी हो सकता है और यही कारण है कि माता-पिता अपने बालक को उसके गले में कुछ-न-कुछ पहना देता है ताकि वह स्वस्थ रह सके, निरोग रह सके।
भला वे क्या जानते हैं कि उनके बालक का छाया शरीर निकल कर बाहर चला गया है और उसी का परिणाम है– तमाम रोग-व्याधियां। शिशु या बालक पर पांच वर्ष तक बराबर ध्यान रखना चाहिए।

  इस प्रसंग में एक बात और बतला देना आवश्यक है कि अस्थिर व्यक्ति का छाया शरीर निकल कर स्थूल शरीर के चारों ओर चक्कर लगाता रहता है और यही कारण है कि अस्थिर चित्त वाले व्यक्ति अपने कार्य में सफलता बहुत कम पाते हैं।
_यह अच्छी तरह समझ लीजिए कि आप जिस वातावरण में रहते हैं, उस वातावरण में न जाने कितने अपदेवता (भूत-प्रेत आदि) बराबर चक्कर लगाया करते हैं। उनका एकमात्र भोजन है--मनुष्य की आयु।_
   वे अपदेवता छाया शरीर में प्रवेश कर जाते हैं और उसके द्वारा व्यक्ति के सूक्ष्म शरीर में अपना तादात्म्य बना लेते हैं जिसके फलस्वरूप में नाना प्रकार के रोग-व्याधि उत्पन्न हो जाते हैं और कालान्तर में समयानुसार वे रोग-व्याधियां स्थूल शरीर में धीरे-धीरे प्रकट होने लगती हैं।

यहां यह बतला देना आवश्यक है कि आज आपके शरीर में कोई रोग उत्पन्न होता है तो समझ लीजिए कि वह रोग चार-पांच साल पहले आपके सूक्ष्म शरीर में जन्म ले चुका होता है लेकिन वह रोग अथवा किसी प्रकार का मानसिक और शारीरिक कष्ट तभी स्थूल शरीर में प्रकट होगा जब कोई अनिष्टकारक ग्रह आपके लिए खराब होगा।
न खराब होने की स्थिति में वह रोग या कष्ट आपके सूक्ष्म शरीर में बराबर बना रहता है। कुछ ऐसे भी भयानक रोग होते हैं जो सभी प्रकार का उपचार करने पर भी नष्ट नहीं होते हैं और मृत्युपर्यन्त बने रहते हैं तो यहां यह समझ लेना चाहिए कि वह रोग हमारे पिछले जन्म का रोग है और उसे भोगना ही पड़ेगा।
राजरोग इसी श्रेणी में आते हैं। कभी-कदा राजरोग परंपरागत भी होते हैं जैसे श्वास-रोग, कुष्ठ-रोग, कर्कट रोग (केन्सर) आदि।

  व्यक्ति जितने दिन किसी भी रोग-व्याधि के कारण कष्ट पाता है उतने दिन प्रत्येक घण्टे उसकी आयु कम होती जाती है लेकिन राजरोगी के लिए ऐसी बात नहीं है। उसकी आयु एक दिन में एक घण्टे कम होती है (महाकाल संहिता)।
   _कहने की आवश्यकता नहीं--उसी कम होने वाली आयु का भक्षण अपदेवता करते हैं। लेकिन एक योगी के लिए यह नियम लागू नहीं होता है। वह अपने पिछले जन्मों के पापों को रोग-व्याधि के रूप में स्वीकार कर उसका क्षय करता है ताकि उसे भोगने के लिए कई जन्म न लेने पड़ें कभी।_
  साधारणतया शारीरिक और मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति का छाया शरीर बहुत ही कम बाहर निकलता है। यदि कभी किसी कारणवश निकलना ही पड़ा तो बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता है छाया शरीर को।
    _धार्मिक, आध्यात्मिक और दार्शनिक व्यक्ति के अतिरिक्त उच्च विचार रखने वाले तथा प्रबल इच्छा-शक्ति सम्पन्न व्यक्ति का छाया शरीर शीघ्र अलग नहीं होता और यही कारण है कि इस प्रकार के लोग प्रायः कभी भी बीमार नहीं पड़ते हैं अथवा अस्वस्थ नहीं होते हैं। यह समझ लेना चाहिए कि स्थूल शरीर और छाया शरीर एक दूसरे के पूरक शरीर होते हैं।_
    दोनों की भौतिक एकता इतनी घनिष्ठ है कि छाया शरीर में लगी चोट या प्रबल आघात स्थूल शरीर के क्षति के रूप में देखा जा सकता है। इस क्रिया को प्रतिप्रभाव कहते हैं।
    उपर्युक्त लोगों में प्रतिप्रभाव अधिक दिखलायी देता है। ऐसे लोगों का छाया शरीर कुछ समय के लिए तभी अलग होता है जब वे किसी कारणवश अलग होते हैं, किसी भयंकर रोग से ग्रस्त होते हैं, किसी अंग का आपरेशन होता है या वे किसी मानसिक रोग के कारण कमजोर हो जाते हैं।

  इस प्रसंग में यह बतला देना आवश्यक है कि कमजोर शिथिल रोगग्रस्त व्यक्ति का छाया शरीर स्थूल शरीर से थोड़ी दूरी बनाकर रहता है लेकिन जैसे-जैसे व्यक्ति स्वस्थ होता जाता है, वैसे-ही-वैसे उसका छाया शरीर भी उसके स्थूल शरीर में समाने लग जाता है और जब पूरी तरह समा जाता है तभी पूर्ण स्वस्थ होता है।
  सारांश यह है कि स्वस्थता और अस्वस्थता उसके छाया शरीर पर निर्भर होती है।

छाया शरीर के अलग होने की अवस्था :
यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो छाया शरीर बिना स्थूल शरीर अधूरा है। छाया शरीर उस अवस्था में अलग होता है जब हम मिलन करते हैं। जब कोई नशा करते हैं, जब क्रोध करते हैं।
किसी गहरी चिन्ता के समय, चोरी करते समय, झूठ बोलते समय, भय की अवस्था में, लड़ाई-झगड़ा करते समय, आवेश के समय, किसी बड़े आदमी के सामने जाने पर छाया शरीर थोड़ा-सा अलग हो जाता है। समझ लेना चाहिए कि दोनों शरीरों की सामंजस्यता में किसी भी कारणवश जरा-सा भी अन्तर होते ही मनुष्य को शारीरिक कमजोरी और मानसिक कमजोरी का अनुभव होने लगता है।
यह भी जान लेना चाहिए कि दोनों में किंचितमात्र अन्तर होने पर कोई-न-कोई रोग उत्पन्न होने लगता है–इसमें सन्देह नहीं। सभी प्रकार के रोगों का एकमात्र कारण एक ही होता है और वह है कि दोनों शरीरों के बीच में किसी प्रकार का वैषम्य उत्पन्न होना।

_वैषम्य उत्पन्न न हो, दोनों शरीरों में सामंजस्य बराबर बना रहे--इसके लिए सम्यक आहार, सम्यक निद्रा और सम्यक मानसिक सन्तुलन बनाये रखना चाहिए। वाणी का कम-से-कम उपयोग, अधिक-से-अधिक एकान्त सेवन और अल्प भोजन करना आवश्यक है।_

प्रेत-बाधा और छाया शरीर :
अखिलेश्वरानंद बोले–भूत उसे कहते हैं जो भूतकाल को वर्तमानकाल समझकर जीते हैं। उदाहरण के रूप में इसे इस प्रकार समझाया जा सकता है जैसे एक व्यक्ति की आकस्मिक मृत्यु रेल से कटकर अचानक हो गयी।
कटकर मरने का समय तो व्यतीत हो गया यानी भूतकाल में चला गया लेकिन मरने वाले की आत्मा उसी घटना में तब तक अपना अस्तित्व बनाये रखेगी जिससे उसकी मृत्यु हुई है जब तक उसकी मुक्ति नहीं हो जाती है।
इसी प्रकार प्रेत उसे कहते हैं जिसके पास केवल मन है, लेकिन इन्द्रियाँ नहीं। वह जीवित किसी व्यक्ति की इन्द्रियों के माध्यम से अपने मन की इच्छा या वासना को पूरी कर लेता है। भूत और प्रेत में बस यही अन्तर है।

  प्रायः प्रेतात्माएं मनुष्य के आस-पास मंडराती रहती हैं और अपनी वासना की पूर्ति के लिए मानव शरीर में प्रवेश कर जाती हैं और उद्देश्य पूर्ति होने के बाद बाहर निकल जाती हैं। कोई-कोई स्थायी रूप से निवास भी करने लग जाती हैं।
   _इसी स्थिति को 'प्रेत-बाधा' कहते हैं। भूत ऐसा नहीं करते। वे भूतकाल को ही वर्तमान समझकर उसी में जीते हैं। यदि कोई कभी भूत के घटना-क्रम की जगह से गुजरता है और इस तरह भूत के वातावरण में विघ्न पड़ता है तो वह भूत फिर उसी के साथ बाहर निकल आता है और ऐसी अवस्था में उसे यह समझ में नहीं आता है कि जिस घटना को वह पकड़े हुए था, वह न जाने कब की भूतकाल में चली गयी होती है।_
    ऐसी स्थिति में वह भूत काफी खतरनाक हो जाता है। जिस व्यक्ति द्वारा वह वर्तमान से बाहर निकला था, उसे तब तक नहीं छोड़ता जब तक उसको दूसरा शरीर प्राप्त नहीं हो जाता यानी जब तक उसको पुनर्जन्म प्राप्त नहीं हो जाता।
  _लेकिन ये तमाम भूत-प्रेत-बाधाएं तभी होती हैं जब किसी कारणवश स्थूल शरीर से छाया शरीर अलग रहता है। श्मशान, कब्रिस्तान, पुराना खण्डहर, अंधकारमय स्थान, अस्पताल, पागलखाना और निर्जन सुनसान स्थान में अधिकतर स्थूल शरीर से छाया शरीर अलग हो जाता है।_
    यदि संयोग से वहां उस स्थान पर कोई प्रेतात्मा रही तो तत्काल  स्थूल शरीर में प्रवेश कर जाएगी। इसलिए ऐसे स्थान पर सतर्क रहना चाहिए। ऐसे स्थानों में प्रविष्ट प्रेतात्माएं तब तक रहती हैं जब तक छाया शरीर संयुक्त नहीं हो जाता स्थूल शरीर से।

प्रेतबाधा की स्थिति में छाया शरीर स्थूल शरीर से कुछ दूरी बनाकर चलता है। एक आश्चर्य की बात तो यह है कि प्रेत-बाधा ग्रस्त व्यक्ति जो कुछ खाता-पीता है, उसका रस-तत्व छाया शरीर ग्रहण कर लेता है प्रेत के माध्यम से और यही कारण है कि प्रेतग्रस्त व्यक्ति कमजोर और अस्वस्थ होने लगता है और छाया शरीर इसके विपरीत मजबूत और स्वस्थ होता जाता है।
जो अच्छे तांत्रिक हैं और जो इस रहस्य से परिचित हैं, वे प्रेत को भगाने के बजाय स्थूल शरीर से छाया शरीर का सामंजस्य स्थापित कराने का प्रयास करते हैं। दोनों शरीर जहां संयुक्त हुए उसी क्षण प्रेतबाधा सदैव के लिए समाप्त हो जाएगी।

सम्मोहन की अवस्था में छाया शरीर :
शरीरतत्व, मनस्तत्व और आत्मतत्व–ये तीन तत्व मुख्य हैं। प्राणतत्व इन तीनो तत्वों को प्राणसूत्र में बांध कर तीनों का आपस में सामंजस्य बनाये रखता है। सामंजस्य जब तक बना रहता है, तब तक जीवन है। उसके भंग होने का परिणाम है मृत्यु।
मन की मुख्य दो अवस्थाएं हैं–चेतन मन की अवस्था और अचेतन मन की अवस्था। अचेतन मन का अस्तित्व आत्मा के साथ जुड़ा रहता है। उसका एक भाग शरीर में अपना तादात्म्य बनाये रखता है। उसका जो भाग शरीर से जुड़ा हुआ रहता है, उसी को ‘चेतन मन’ कहते हैं।
सम्मोहन तीन प्रकार का होता है–शरीर-सम्मोहन, मन- सम्मोहन और आत्म- सम्मोहन। शरीर-सम्मोहन की अवस्था में शरीर पर अधिकार होता है सम्मोहनकर्ता का।

मन-सम्मोहन की अवस्था में अधिकार होता है चेतन मन पर। आत्म-सम्मोहन की अवस्था में अधिकार होता है अचेतन मन सहित कुछ अंश तक आत्मा पर भी। इन सम्मोहनों की अवस्थाओं में स्थूल शरीर से छाया शरीर अलग हो जाता है।
प्राण की गति कभी तीव्र तो कभी मन्द पड़ जाती है और उसी समय हृदय की धड़कन और दोनों फेफड़ों की गति भी शिथिल होने लग जाती है। इन सब बातों पर सम्मोहनकर्ता का ध्यान अधिक रहता है। उसकी जरा-सी भी गलती प्राणघातक सिद्ध होती है।
मानसिक कमजोरी, शरीर की दुर्बलता अथवा अन्य किसी असहनीय बीमारी की अवस्था में हृदय का कम्पन अधिक बढ़ जाय और श्वास की गति भी तीव्र हो जाय तो समझ लेना चाहिए कि स्थूल शरीर के साथ छाया शरीर सामंजस्य स्थापित कर रहा है। यदि किसी कारणवश सामंजस्य नहीं कर पाता है तो मृत्यु निश्चित समझिए।

छाया शरीर की विशिष्ट उपादेयता
जैसे स्थूल शरीर का मूल केंद्र अन्नमय कोष है, उसी प्रकार छाया शरीर का भी मूल केंद्र प्राणमय कोष है। मुख्य प्राण पांच प्रकार के होते हैं। (प्राण, अपान, समान, व्यान और उदान) दो प्राणों (प्राण और अपान ( का सम्बंध छाया शरीर से, शेष तीन पर्णो का सम्बन्ध सूक्ष्म शरीर से होता है।
छाया शरीर के नष्ट हो जाने पर वे दोनों प्राण भी सूक्ष्म शरीर में लय हो जाते हैं। छाया शरीर के एक ओर सूक्ष्म शरीर और दूसरी ओर स्थूल शरीर है। सूक्ष्म शरीर जीवनतत्त्व का वाहक है और छाया शरीर वासनाओं का वाहक है।
मृत शरीर में छाया शरीर प्रवेश करे तो मृत शरीर जीवित नहीं हो सकता लेकिन सूक्ष्म शरीर प्रवेश करे तो वह जीवित हो सकता है।

  स्थूल शरीर का निर्माण अन्न के अणुओं से होता है। छाया शरीर का निर्माण वासनाओं के अणुओं से होता है, जबकि सूक्ष्म शरीर का निर्माण  प्राणों के परमाणुओं से होता है। इसलिए सूक्ष्म शरीर में जीवनतत्त्व है और उस तत्व की जो शक्ति है वह है--प्राण-शक्ति।
 _जब तक स्थूल शरीर में सूक्ष्म शरीर का अस्तित्व बना  रहता है, तब तक प्राणों के माध्यम से स्थूल शरीर क्रियाशील रहता है। एक बात समझ लेना चाहिए कि यदि स्थूल शरीर का कोई अंग कट जाता है, किसी अस्त्र-शस्त्र से गहरी चोट लगती है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि छाया शरीर का अंग भी कट जाता है या उसको गहरी चोट लगती है।_
   उस पर किसी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ता है, इसलिए कि वह इथरीय पदार्थ से निर्मित है। क्या पानी को दो भागों में काटा जा सकता ? नहीं।

आत्माओं का आवाहन और माध्यम :
योग-तन्त्र की जितनी भी श्रेष्ठ विद्याएं हैं, उनमें सम्मोहन विद्या भी एक है। इसलिए कि लौकिक और पारलौकिक जगत की जो सीमारेखा है, उसे एक प्रकार से वह तोड़ देती है। सम्मोहन विद्या द्वारा मृतात्माओं को बुलाने अथवा उनसे संपर्क साधने के लिए छाया शरीर का भारी महत्व है।
इसके ज्ञाता पूर्णरूप से अध्यात्म विद्या में परिष्कृत प्राणों को स्थिर और मन को एकाग्र करने के पूर्ण अभ्यासी होते हैं। ऐसे लोगों को असामान्य द्रष्टा कहा जा सकता है।
वे जिसको मृतमाओं से सम्पर्क साधने को चुनते हैं, उसे ही ‘माध्यम’ कहते हैं। ‘माध्यम’ को सभी दृष्टि से योग्य होना आवश्यक है। सर्वप्रथम अपनी विशेष क्रिया द्वारा सम्मोहनकर्ता ‘माध्यम’ के शरीर को सम्मोहित कर अपने अधिकार में करता है जिसके परिणामस्वरूप ‘माध्यम’ के शरीर से उसका छाया शरीर बायीं ओर से बाहर निकल जाता है और ‘माध्यम’ धीरे-धीरे मूर्छित होने लगता है।
छाया शरीर निकलकर ‘माध्यम’ के शरीर का चक्कर काटने लगता है तीव्र गति से और उसमें कम्पन होने लगता है। जितनी मूर्छा गहरी होती जाएगी, उतनी ही तीव्र गति से कम्पन भी होगा छाया शरीर में।

सहज सवाल : ‘माध्यम’ पर जो आत्मा बुलायी जाती है, वह कैसे आती है, उसमें उसकी क्या भूमिका रहती है और उसका क्या सहयोग रहता है?
बड़ी भारी भूमिका रहती है, बहुत महत्वपूर्ण सहयोग रहता है लेकिन आप समझ लीजिए कि छाया शरीर में न मन रहता है और न रहती है आत्मा ही। जैसा कि पूर्व में बतला चुका हूं कि उसमें केवल अल्प मात्रा में प्राण का अंश रहता है।
विचार, बुद्धि और विवेक तो उसमें रहता ही नहीं। बस, समझ लीजिए कि वह एक खोल है भौतिक शरीर का, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं।

सम्मोहन विद्या एक रहस्यमय विज्ञान :
सम्मोहन विद्या वास्तव में एक रहस्यमय विज्ञान है। इस विज्ञान का सीधा सम्बन्ध मानव मस्तिष्क से समझना चाहिए। मस्तिष्क की जटिल संरचना के विषय में दस प्रतिशत ही जानकारी प्राप्त है वैज्ञानिकों को। किन्तु यह प्रमाणित हो चुका है कि मस्तिष्क के सूक्ष्म-से-भी-सूक्ष्म तरंगों को पकड़ना असम्भव नहीं है।
वास्तव में मानव मस्तिष्क अरबों कोशिकाओं का रहस्यमय मायाजाल है जो एक सेकेंड में सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड से संपर्क स्थापित करने की ही क्षमता नहीं रखता, बल्कि अपनी अंतर्दृष्टि से देख भी सकता है।
सच बात तो यह है कि मस्तिष्क के सूक्ष्मतम तरंगों में अनन्त शक्तियों का भण्डार भरा है। सम्मोहन में उन्हीं शक्तियों का प्रयोग होता है।

सम्मोहनकर्ता दृढ़ चित्त से जब अपने मन को एकाग्र करता है तो उसके मस्तिष्क के मध्य भाग से एक विशेष प्रकार का कम्पन उत्पन्न होने लगता है। बाद में वह कम्पन घनीभूत होकर तरंग के रूप में परिवर्तित हो जाता है और परिवर्तित होकर माध्यम के अधो लघु मस्तिष्क में कम्पन उत्पन्न करता है।
इस प्रकार तरंगों के द्वारा सम्मोहनकर्ता और ‘माध्यम’ के बीच आन्तरिक सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। आत्मा को बुलाने की दिशा में यह तरंगीय सम्बन्ध अति महत्वपूर्ण समझा जा सकता है। सम्बन्ध का परिणाम यह होता है कि ‘माध्यम’ का चेतन मन धीरे-धीरे शिथिल होकर पूर्णतया शान्त हो जाता है।
इसे सम्मोहन विद्या की भाषा में ‘शिथिलीकरण’ कहते हैं। शिथिलीकरण की अवस्था में ‘माध्यम’ की अन्तर्चेतना जागृत हो जाती है। अन्तर्चेतना का मतलह है–अचेतन मन का सक्रिय हो जाना और उसके सक्रिय होते ही छाया शरीर का अलग हो जाना।

अचेतन मन में छः जन्म पीछे की और दो जन्म आगे की सारी जीवन-कथा सूत्रबद्ध रहती है। जीवन के एक-एक दिन का वृत्तान्त विद्यमान रहता है। सम्मोहनकर्ता और ‘माध्यम’ के मस्तिष्क-तरंगों के आपस में जुड़े रहने के फलस्वरूप सम्मोहनकर्ता के आदेश का पालन तत्काल अचेतन मन करता है जिसका ज्ञान ‘माध्यम’ के चेतन मन को नहीं रहता।
इस अवस्था विशेष में सम्मोहनकर्ता और ‘माध्यम’ के बीच ईथर का गोलाकार वलय बन जाता है जो दिखलायी तो नहीं देता लेकिन इस वलय के भीतर जाने पर बिजली जैसा झटका अवश्य लगता है।
इसी विधि से ‘माध्यम’ के पिछले जन्मों और आगे के जन्मों का सारा वृत्तान्त जाना जा सकता है। आप को प्रयोग में उरतना है तो हमें बताएंगे.

मृत व्यक्ति की आत्मा का आवाहन :
यह कार्य है तो अत्यन्त कठिन लेकिन अभ्यस्त हो जाने पर थोड़ा सरल अवश्य हो जाता है। सम्मोहन विद्या के अतिरिक्त योग विद्या और तन्त्र विद्या में भी मृतात्माओं के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार की आत्माओं को बुलाने की विधियां हैं।
सम्मोहन विद्या के अनुसार सम्मोहनकर्ता ‘माध्यम’ के मस्तिष्क-कम्पनों की सहायता से ‘माध्यम’ के छाया शरीर में कम्पन उत्पन्न करता है जिसमें सम्मोहनकर्ता के मस्तिष्क-कम्पन और ‘माध्यम’ के मस्तिष्क-कम्पन मिले हुए होते हैं जिसके परिणामस्वरूप छाया शरीर के कम्पन में एक विशेष प्रकार की विद्युत चुम्बकीय ऊर्जा-तरंगें उत्पन्न होती हैं।
उन तरंगों की गति प्रकाश की गति के समान होती है। उस गति से चलकर वे ऊर्जा-तरंगें इच्छित मृतात्मा से विकीर्ण होने वाले कम्पनों से अपना तादात्म्य स्थापित कर लेती हैं और मृतात्मा को प्रविष्ट करा देती हैं ‘माध्यम’ के शरीर में।
इस स्थिति में ‘माध्यम’ की आत्मा अपने अस्तित्व में लीन हो जाती है और चेतन मन हो जाता है निष्क्रिय और उसी के साथ-साथ मृतात्मा अपना आधिपत्य जमा लेती है ‘माध्यम’ के शरीर और उसकी इन्द्रियों पर।
अभीप्सा है तो आप किसी भी अपने मृत परिजन की आत्मा से संपर्क कर सकते. हम यह कार्य करवा देंगे, लेकिन मृत्यु के 21 दिन के भीतर. उसके बात संभव है उसकी आत्मा किसी गर्भ में स्थापित हो चुकी हो.

जीवित व्यक्ति की आत्मा का आवाहन :
यदि मृतात्मा ने कहीं जन्म ले लिया है तो वे ऊर्जा-तरंगें उसके छाया शरीर के माध्यम से सम्बन्ध जोड़ लेती हैं जिसका परिणाम यह होता है कि जीवित व्यक्ति की आत्मा तो आती नहीं, आता है उसका छाया शरीर।
उस जीवित व्यक्ति का छाया शरीर जब तक सम्मोहनकर्ता के अधिकार में रहता है, तब तक उस जीवित व्यक्ति को भारी मानसिक बेचैनी और घबराहट रहती है। यदि ऐसी स्थिति अधिक समय तक बनी रही तो उस जीवित व्यक्ति का हार्ट फेल या उसका ब्रेन हैमरेज हो सकता है।
यहां एक बात और समझ लेना चाहिए कि ‘माध्यम’ द्वारा जैसे मृतात्मा बात करती है, उसी प्रकार छाया शरीर जीवित व्यक्ति से संपर्क बनाए रखने के कारण बातें करता है किन्तु स्पष्टता कम रहती है। वाणी में लड़खड़ाहट रहती है।

  सपने में हम जीवित और मृत--दोनों व्यक्तियों को देखते हैं। दोनों में अन्तर केवल इतना ही रहता है कि मृत व्यक्ति का वासना शरीर हम देखते हैं और जीवित व्यक्ति का देखते हैं हम छाया शरीर।

मृत्यु और छाया शरीर :
जैसा कि बतला चुका हूं कि छाया शरीर अलग होकर विचारों का वाहक नहीं हो सकता क्योंकि इसके प्रति संवेदना होनी चाहिए, जबकि संवेदना वासना शरीर में होती है। इन्द्रियों और मानसिक बोध के बीच संवेदना एक सेतु का कार्य करती है। भौतिक जगत से सम्बंधित रूप, रस, गन्ध और स्पर्श भौतिक शरीर के अणु-परमाणुओं को प्रभावित करते हैं जिसके कारण मनुष्य की ज्ञानेंद्रियों में एक विशेष प्रकार की विद्युत-तरंगें उत्पन्न होती हैं।
वे तरंगें अत्यन्त प्रभावशालिनी और सूक्ष्मतम होती हैं जो अपनी तरह छाया शरीर में और उसी के साथ-साथ वासना शरीर में भी कम्पन उत्पन्न करती हैं और फिर वहां से उसी क्रम से वापस लौटकर मस्तिष्क स्थित परमाणुओं के प्रकोष्ठ में पहुंचती है जिसे ‘कोष’ कहते हैं।
कोषों की संख्या पांच है। प्रकोष्ठ में पहुंचकर वे मस्तिष्क चेतना के रूप में परिवर्तित हो जाती है।

  वास्तव में कम्पनों की माया अति विचित्र और रहस्यमयी है लेकिन भौतिक जगत में चेतना के ये सामान्य व्यापार हैं और बोध के लिए आवश्यक हैं किन्तु मनुष्य को इनका ज्ञान नहीं होता। यह आश्चर्यजनक बात है और इससे भी आश्चर्य की बात तो यह है कि मस्तिष्क-चेतना जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति--इन तीन अवस्थाओं में काम करती है।
  _गहरी मूर्च्छा, कोमा और सम्मोहन की स्थिति में मस्तिष्क-चेतना का सम्बन्ध अन्तर्चेतना से जुड़ जाता है जिसे 'आत्म-चेतना' कहते हैं। मस्तिष्क-चेतना के मूल में चेतन मन है जबकि आत्म-चेतना के मूल में है--अचेतन मन।_

पूर्वोक्त स्थितियों में अपने आप नैसर्गिक रूप से आत्म- चेतना भू-मण्डल से बाहर निकल कर अन्य लोक-लोकान्तरों में चली जाती है और जब वापस लौटती है तो उसके साथ उन लोक-लोकान्तरों की महत्वपूर्ण अनुभूतियां रहती हैं किन्तु उन अनुभूतियों को मस्तिष्क- चेतना अपनी सामर्थ्य अनुसार ही ग्रहण कर पाती है और जो ग्रहण कर पाती है उसकी मात्रा बहुत ही कम होती है–समझ लें एक प्रतिशत।
लेकिन उस एक प्रतिशत को ग्रहण करने के लिए मस्तिष्क का उर्वर और प्रखर होना आवश्यक है। यदि मस्तिष्क-चेतना ने स्मृति रूप में उस एक प्रतिशत को स्वीकार भी कर लिया तो उस स्मृति को प्रकट करने के लिए उसके पास भाव का अभाव ही होगा। वह स्वयं अपने आप में अलौकिक विलक्षणता का अनुभव करेगा।
लेकिन एक सिद्ध, कुशल और असामान्य योगी अपनी समाधि की अवस्था में स्थूल शरीर से बराबर सम्पर्क बनाये रख कर अपनी आत्म-चेतना द्वारा किसी भी लोक-लोकांतर में प्रवेश कर सकता है और वहां के ज्ञान-विज्ञान को भी उपलब्ध हो सकता है।
इतना ही नहीं, उन सब को स्मृति रूप में भौतिक स्तर पर प्रकट भी कर सकता है।

मृत्यु-काल का काल :
स्थूल शरीर और छाया शरीर–दोनों के लिए मृत्यु का अर्थ एक ही है। यहां यह बतला देना आवश्यक है कि छाया शरीर में चेतना नहीं रहती, चेतना रहती है स्थूल शरीर में। एक उदाहरण द्वारा इसे समझा जा सकता है।
जैसे बिजली का पंखा पूरी गति से चल रहा है और उसी समय उसका स्विच दबाकर उसे बन्द कर दिया तो फिर भी पंखा कुछ समय तक चलता ही रहेगा। बस ऐसा ही छाया शरीर के बारे में समझना चाहिए। जीवित स्थूल शरीर के साथ छाया शरीर भी चैतन्य रहता है। लेकिन स्थूल शरीर के मृत हो जाने पर भी बन्द पंखे की तरह कुछ काल तक वह गतिशील रहता है।
मृत्यु के समय स्थूल शरीर से छाया शरीर धीरे-धीरे झिल्ली की तरह अलग होने लगता है और अलग होकर जब तक स्थूल शरीर नष्ट नहीं हो जाता, उसके चारों ओर वह चक्कर लगाता रहता है। उसका उस समय प्रकाशयुक्त बैगनी रंग रहता है। उस समय दोनों शरीरों से सम्बन्ध बनाये रखने के लिए एक बाल से भी पतला सूत्र होता है जिससे दोनों शरीर आपस में सम्पर्क बनाये रखते हैं।

उसकी अवधि बहुत ही कम होती है और उसी अल्प अवधि में चेतन मन पूर्णरूप से आत्मा में लीन हो जाता है जीवन के समस्त संस्कारों को लेकर। एकाएक वह सूत्र एक झटके से टूट जाता है।
सूत्र का टूटना, स्थूल शरीर का छाया शरीर से सम्बन्ध भंग होना और आत्मा का शरीर से बाहर होना–ये तीनों कार्य एक ही साथ घटित होते हैं और उसी समय मरने वाला व्यक्ति अंतिम सांस लेता है। कहने का तात्पर्य यह है कि अन्तिम सांस के साथ ही तीनों घटनाएं अपने आप घट जाती हैं। फिर भी छाया शरीर का अस्तित्व बना रहता है और मृत शरीर के साथ-साथ तब तक रहता है जब तक मृत शरीर अग्नि में भस्मीभूत नहीं हो जाता और पंचतत्वों के अणु-परमाणु बिखर नहीं जाते वायुमण्डल में।
उसके बाद छाया शरीर का वेग समाप्त हो जाता है और वह एक फटे-पुराने कपड़े की तरह कहीं पड़ा रहता है। सबसे उत्तम है मृत शरीर का दाह-संस्कार। इससे मृत शरीर पूर्ण रूप से राख में बदल कर अपना अस्तित्व हमेशा-हमेशा के लिए खो देता है।

  मृत शरीर को जमीन में गाड़ने और नदी में प्रवाहित करने की भी प्रथा है। इन दोनों संस्कारों में मृत शरीर को पूर्णरूप से अस्तित्वहीन होने में काफी समय लगता है। जब तक वह पूर्णरूप से अस्तित्वहीन नहीं होता तब तक उसका छाया शरीर बना रहता है और उसके निकट ही चक्कर काटता रहता है।
   _इससे मृतात्मा को भारी कष्ट होता है और अपने शरीर से मोह भी। उस समय उसकी स्थिति पागलों जैसी हो जाती है। वह हमेशा यही चाहता है कि कब इस यंत्रणा से छुटकारा मिले और कब कहीं उसका पुनर्जन्म हो। वह यह नहीं जानता कि नया जन्म और नया शरीर उपलब्ध होना सरल नहीं है।

दाह संस्कार की वैज्ञानिकता :
अन्तिम संस्कार में दाह-संस्कार सर्वोत्तम है। इसमें शरीर का सब कुछ अल्प समय में ही भस्मीभूत हो जाता है। भूमि में गाड़ना और जल में प्रवाहित करना निकृष्ट संस्कार है। इन संस्कारों में मृत शरीर को सड़ने-गलने और पूरी तरह नष्ट होने में काफी समय लगता है।
जैसा कि मैं बतला चुका हूँ कि कब्रिस्तान में दफन मृतक की रूह की स्थिति अत्यन्त दयनीय हो जाती है। उसकी विवशता, अशान्ति और कारुणिक स्थिति की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
कब्र पर चादर चढ़ाने, फूल-माला और प्रसाद चढ़ाने के अलावा इत्र और अगरबत्ती जलाने से रूह को शान्ति मिलती है। इससे कष्ट थोड़ा कम हो जाता है। चढ़ाने वाले के ऊपर वह प्रसन्न होती है और उसके कल्याण के लिए वह प्रार्थना करती है।

  हिन्दू धर्म में भी भूगत संस्कार के नियम हैं लेकिन वे सभी के लिए नहीं हैं। भूगत संस्कार यानी भू-समाधि। साधु, सन्त, महात्मा और योगियों को भू-समाधि देने की परम्परा है। ऐसे लोगों का छाया शरीर या वासना शरीर यानी प्रेत शरीर नहीं होता है। वे इन दोनों शरीरों से मुक्त रहते हैं।
  _दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि गैरिक वस्त्र अग्नितत्व के प्रतीक हैं। वे दोनों शरीर अग्नितत्व में तपकर जीते-जी भस्म हो जाते हैं, केवल रहता है सूक्ष्म शरीर। सूक्ष्म शरीर के अस्तित्व की भी एक सीमा है। जब तक वे अपने सूक्ष्म शरीर में रहते हैं, तब तक उनकी आत्मा अपने समाधि-स्थल से बराबर संपर्क बनाये रखती है।_
  इस संदर्भ में दो-एक बात और बतला देना चाहता हूँ वह यह कि अघोरमार्गीय साधकगण श्वेत वस्त्र धारण करते हैं.

श्वेत वर्ण पृथ्वी तत्व है और यही कारण है कि अघोरी को केवल भू-समाधि दी जाती है। मदिरा भी अग्नितत्व है। अघोर मार्ग में मदिरा का सेवन साधना-विधि में अधिक-से-अधिक किया जाता है जिसका परिणाम यह होता है कि अघोर साधक का छाया शरीर और वासना शरीर–दोनों मदिराग्नि में भस्म हो जाते हैं, केवल रहता है सूक्ष्म शरीर.
अघोर मार्गीय साधकों की आत्माएं भी अपने सूक्ष्म शरीर द्वारा अपनी समाधि से बराबर संपर्क बनाए रखती हैं। जब सूक्ष्म शरीर अपनी अन्तिम अवस्था में पहुंच कर नष्ट हो जाता है तो आत्मा दिव्य अवस्था को उपलब्ध हो जाती है और हो जाती है अपने आप में स्वतंत्र। प्रकृति के नियम उसके लिए नहीं होते।
वे अपने आत्मबल से पृथ्वी पर जन्म भी ले सकती हैं या फिर अन्य लोक-लोकान्तरों में प्रवेश कर जाती हैं सदैव के लिए। इसी को हमारे शास्त्र ‘सायुज्य मुक्ति’ कहते हैं।

  सन्यासियों में एक 'दंडी' सम्प्रदाय भी है। दंडी सन्यासी आठ गांठ का दण्ड धारण करते हैं और मिट्टी का बना हुआ कमण्डल। इनके लिए अग्नि और दृव्य-स्पर्श वर्जित है।
_केवल भिक्षा उनके जीवन यापन का साधन है। इन्हें मृत्योपरांत जल समाधि देने की परम्परा है। इस सम्प्रदाय के अनुयायियों के छाया शरीर और प्रेत शरीर के साथ-ही-साथ उनका सूक्ष्म शरीर भी नष्ट हो जाता है लेकिन तभी जब वे अपने नियम और धर्म-कर्म का ठीक-ठीक पालन करते हैं। अन्यथा अधोगति को प्राप्त करते हैं।_

साधक और सिद्ध की गति :
मानवेतर शक्ति प्राप्त कर और उसके आश्रय से परमसत्ता में सदैव के लिए विलीन होने की दिशा में शरीर, प्राण, मन और आत्मा के क्रमिक विकास के लिए जो आन्तरिक और बाह्य क्रियाएं हैं–उन्हीं का नाम योग-तन्त्र साधना है।
योग-तन्त्र को अलग-अलग नहीं समझना चाहिए। दोनों अभिन्न हैं और हैं एक-दूसरे की पूरक भी।
शारीरिक शक्ति के विकास के लिए आसन, प्राणशक्ति के विकास के लिए प्राणायाम, मन की शक्ति के विकास के लिए ध्यान और आत्म-शक्ति के विकास के लिए ज्ञान आवश्यक है।

  जब तक व्यक्ति साधना-मार्ग पर चलता है, तब तक उसे 'साधक' कहते हैं। जब साधना अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेती है तो व्यक्ति को 'सिद्ध' कहते हैं। साधक और सिद्ध दोनों के अपने इष्ट होते हैं और अपने-अपने सद्गुरु भी। गुरु भी दो होते हैं--असदगुरु और सद्गुरु।
_असदगुरु भौतिक स्तर पर साधक का ज्ञान और क्रिया द्वारा मार्गदर्शन करते हैं। सद्गुरु प्रच्छन्न रहकर आध्यात्मिक स्तर पर योगदान देते हैं। यही अन्तर हैं दोनों में। योग का आश्रय लेकर तन्त्र की साधना करने वाले को तंत्रसाधक कहते हैं।_
    इसी प्रकार तन्त्र का आश्रय लेकर योग की साधना करने वाले को योगसाधक कहते हैं। दोनों का एकमात्र लक्ष्य है--परमसत्ता में विलीन हो जाना। इसी अवस्था को परमनिर्वाण, परममोक्ष और परममुक्ति कहते हैं।
  तन्त्र-साधक का शवदाह नदी-संगम पर सायंकाल के समय होता है और उसका शिष्य ही मुखाग्नि देता है। मुमुर्षु अवस्था में तंत्र-साधक को इष्ट का दर्शन होता है। सद्गुरु उसे अपने साथ यक्षलोक ले जाते हैं। वहां यक्षलोक के आचार्य साधक को उसकी तन्त्र-साधना के बारे में विस्तार से बतलाते हैं।
    _साधना में कोई त्रुटि हुई होती है  अथवा किसी प्रकार का कोई विक्षोभ उत्पन्न हुआ होता है तो उसका परिमार्जन कैसे होना चाहिए--यह स्पष्ट करते हैं। अन्त में आगे की साधना का निर्देश देते हैं जिसके लिए तन्त्र-साधक पुनः मानव शरीर धारण करता है। उस समय सद्गुरु प्रच्छन्न भाव से शिशु रूपी साधक को स्पर्श दीक्षा प्रदान करते हैं।_
     फिर जीवन-यात्रा के साथ-ही-साथ तन्त्र-साधक की साधना-यात्रा पुनः शुरू हो जाती है। सिद्धावस्था प्राप्त करने के पश्चात तन्त्र-साधक कुछ काल यक्षलोक में व्यतीत कर अपने इष्ट में सदैव के लिए विलीन हो जाता है जो उसका एकमात्र उद्देश्य होता है।

तन्त्र का आश्रय लेकर मार्ग पर चलने वाला साधक यदि सिद्धावस्था को उपलब्ध नहीं हुआ है तो उसकी आत्मा योग्यतानुसार ज्ञानगंज आश्रम, योगाश्रम अथवा सिद्धाश्रम में प्रवेश करती है जहाँ उसकी साधना की समीक्षा होती है और उसकी त्रुटियों का मार्जन किया जाता है।
समयानुसार पुनः साधना की पूर्णता हेतु उसका पुनः मानव शरीर में जन्म होता है। यदि साधक पथभ्रष्ट है तो उसका जन्म पशु-पक्षी के रूप में होता है, तत्पश्चात मानव शरीर में होता है प्राप्त।
सिद्धावस्था प्राप्त योगी की समाधि बनाई जाती है। सिद्धावस्था प्राप्त योगी की आत्मा शरीर त्यागने के बाद कुछ काल तक सिद्धलोक में निवास करती है लेकिन अपने समाधि-स्थल से बराबर सम्पर्क बनाये रखती है। कैवल्य पद को उपलब्ध होने पर वह सम्पर्क भी भंग हो जाता है।

एक मुमुर्षु के छाया शरीर से संपर्क :
मुमुर्षु अवस्था में व्यक्ति का पूरा शरीर धीरे-धीरे शिथिल हो जाता है। नेत्रज्योति समाप्त हो जाती है, जीभ तालु से सट जाती है, मुँह सूख जाता है, हृदय की धड़कन बन्द होने लगती है।
काशी के नगवाघाट के ऊपर एक झोपड़ी बनाकर काशी लाभ कर रहे थे एक व्यक्ति। वे मुमुर्ष अवस्था में थे। प्राण निकलने में कष्ट हो रहा था।
स्वामी अखिलेश्वरानंद के साथ मैं भी वहां उपस्थित था तथा अन्य लोग भी थे। स्वामीजी मुझसे बोले- विकास, आप ध्यानपूर्वक देखें।
मैंने वैसा ही किया। चित्त को एकाग्र कर ध्यानपूर्वक देखने लगा उस मरणासन्न व्यक्ति की ओर। एक हिचकी के साथ वृद्ध के शरीर का अन्त हो गया। लेकिन मैंने अनुभव किया कि वह अभी मरा नहीं है।
उसके सारे शरीर से भाप जैसा कोई पदार्थ निकल रहा है जिसका रंग नीला, हरा, पीला मिश्रित था। धीरे-धीरे वह पदार्थ घनीभूत होने लगा और अन्त में उसने मानव आकार ग्रहण कर कर लिया। वह आकार बिल्कुल मृत वृद्ध व्यक्ति के शरीर जैसा ही था। उस मानवाकृति ने कई बार मृत शरीर का चक्कर लगाया और फिर शान्त हो गया।
वह शवयात्रा में भी साथ-साथ रहा, यहां तक कि चिता में जलकर शव भस्म हो गया लेकिन फिर भी वह श्मशान में चारों ओर मंडराता रहा। फिर आंख से ओझल हो गया।

महाश्मशान में छाया शरीर और प्रेतात्माओं की भीड़ :
आत्मा बिना शरीर के एक पल भी नहीं रह सकती। उसे अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए कोई-न-कोई शरीर अवश्य चाहिए। इसीलिए स्थूल शरीर से अलग होते ही मन की वासनाओं के अनुरूप तत्काल अपने लिए एक वायवीय शरीर की रचना कर लेती है जिसे वासना शरीर या प्रेत शरीर कहते हैं।
आत्मा का वास होने के कारण प्रेत शरीरी को ‘प्रेतात्मा’ कहते हैं। प्रेतात्मा में वायुतत्व की प्रधानता रहती है। इसीलिए प्रेतात्मा को वायवीय शरीरधारी भी कहते हैं।
एक दिन उनके साथ मै हरिश्चन्द्र घाट {वाराणसी} के महाश्मशान गया। वहां एक साथ कई चिताएं ‘धू-धू’ कर जल रही थीं। वातावरण में खिन्नताभरी उदासी बिखरी हुई थी।
मन को व्यग्र और अशान्त करने वाला दृश्य देखा। जितनी चिताएं जल रही थीं, उन सब के चारों ओर विभिन्न रंगों की मानवाकृतियाँ चक्कर काट रही थीं। इतना ही नहीं, जहां जिस स्थान पर जलाने के लिए मृत शरीर रखे गए थे, वहां उसी प्रकार की मानवाकृतियाँ घूम रही थीं इधर-उधर।
उन्होंने कहा– सभी छाया शरीर हैं और उनमें बहुत-सी प्रेतात्माएं भी हैं। प्रेतात्माओं का अपना समूह था। प्रेतात्माएं उसी रूप-रंग, आकार-प्रकार की थीं जैसा कि जीवनकाल में व्यक्ति था। जिस मृतक का शरीर चिता में जल रहा था, उसकी प्रेतात्मा वहां खड़ी बड़े ही दयनीय भाव से अपने जलते हुए शरीर को देख रही थी।
वैसे तो वे भी देहात्मा से मृतात्मा की श्रेणी में आ चुकी थीं लेकिन उनका अपने शरीर के प्रति मोह और आकर्षण अभी भी बना हुआ था। उससे वे मुक्त नहीं हुई थीं अभी तक। जिसका शव पूरी तरह भस्म हो चुका था, उसकी प्रेतात्मा अपने आप में स्वतन्त्रता का अनुभव करने लगी थी।
कुछ प्रेतात्माएं ऐसी भी थीं जिनका माया-मोह-आकर्षण शरीर भस्म हो जाने पर भी समाप्त नहीं हुआ था। वे छाया शरीर में प्रवेश करने का प्रयास कर रही थीं अपनी वासना-पूर्ति के लिए। लेकिन ऐसा कम ही होता है, मगर होता है।

 *प्रेत-आत्मा और श्राद्ध-कर्म :*
  अपने वासना-वेग के कारण कभी-कदा प्रेतात्माएं मृत शरीर में भी प्रवेश करने का प्रयास करती हैं। प्रयास में कभी-कभी सफल भी हो जाती हैं और मृत शरीर सक्रिय भी हो उठता है कुछ समय के लिए।
     _हिन्दू धर्म में श्राद्ध का जो विधान है, वह पूर्ण वैज्ञानिक है प्रेतशास्त्र की दृष्टि से। मृतात्मा के प्रति सुख-शान्ति और उसकी अधूरी कामना की पूर्ति के निमित्त किये गए श्रद्धापूर्वक कर्म को 'श्राद्ध' कहते हैं।_
       पहला श्राद्ध वहाँ होता है जहाँ व्यक्ति शरीर त्याग करता है। आत्मा के लिए जितने शरीर होते हैं, उनमें स्थूल शरीर अति महत्वपूर्ण है। इसलिए कि आत्मा पार्थिव शरीर द्वारा कर्म भी कर सकती है और उस कर्म का यथोचित फल भी भोग सकती है।
  ऐसा अन्य शरीरों में सम्भव नहीं है। अन्य सभी शरीर भोग शरीर हैं, यहां तक कि प्रेत शरीर भी।

  मरणासन्न अवस्था में व्यक्ति के चारों ओर दर्जनों प्रेतात्माएं चक्कर काटने लगती हैं। वे इस खोज में रहती हैं कि कहां और कौन व्यक्ति मरने वाला है। पता लगने पर धीरे-धीरे पहले से ही अच्छी-बुरी प्रेतात्माएं वहां एकत्र होने लगती हैं।
  _मरणासन्न व्यक्ति का जैसा जो संस्कार होता है, उसी के अनुरूप संस्कार वाली प्रेतात्माएं वहां विशेषरूप से एकत्र होती हैं। इस प्रकार एकत्र होने का एकमात्र उनका उद्देश्य होता है--अपने वर्ग, अपने समूह में मरने वाले व्यक्ति की मृतात्मा को मिलाना।_
     मरने वाले व्यक्ति की मृतात्मा वर्ग अथवा समूह में न मिल सके--इसके लिए ही वह श्राद्ध किया जाता है और मृत शरीर के सिरहाने दीप जलाया जाता है और अग्नि स्थापित की जाती है क्योंकि प्रकाश और अग्नि से प्रेतात्माएं घबड़ाती हैं, बेचैन हो उठती हैं और वहां से भागने का प्रयास भी करती हैं।
   यदि दीप न जलाया गया और अग्नि की स्थापना नहीं हुई तो मृतात्मा को प्रेतात्माएं अपने समूह में मिला लेती हैं और वह मृतात्मा परतन्त्र हो जाती है। उसकी आगे की यात्रा अवरुद्ध हो जाती है।

प्रेतात्माओं का समूह :
दूसरा श्राद्ध श्मशान भूमि में किया जाता है इसलिए कि मृतात्मा स्वयं के छाया शरीर में प्रवेश न कर सके। जब तक शरीर जलकर भस्म नहीं हो जाता तब तक मृतात्मा अपनी अतृप्त वासनाओं के वेग के कारण अपने ही छाया शरीर में प्रवेश कर जाती है या अन्य किसी जीवित अथवा मृत व्यक्ति के शरीर में।
यह तभी सम्भव होता है जब मृतात्मा अपनी वासनाओं के अनुरूप तत्काल शरीर का निर्माण स्वयं नहीं कर पाती। जैसा कि बतला चुका हूँ कि वासना के आधार पर स्वनिर्मित शरीर को ही ‘प्रेत शरीर’ या ‘प्रेतात्मा’ कहते हैं।
जब तक वासनाओं का वेग समाप्त नहीं हो जाता, तब तक मृतात्मा प्रेतयोनि में ही रहती है। इसकी कोई अवधि नहीं होती–एक वर्ष भी हो सकती है और एक हज़ार वर्ष भी।

  आपने पूछ सकते हैं कि प्रेतात्माएं मृतात्मा को अपने समूह में मिला लेती हैं--इसका क्या प्रयोजन है ?
    _प्रयोजन स्पष्ट है। जो लावारिस मृतात्मायें होती हैं, जिनका उचित ढंग से अन्तिम संस्कार नहीं होता है, जिनकी अकाल मृत्यु होती है, जो ट्रैन से कटकर मरे होते हैं, जो हवाई दुर्घटना में मरे होते हैं, जो जलकर मरे होते हैं, जो विष खाकर मरे होते हैं, जिनका शव कटकर टुकड़े-टुकड़े हुआ होता है, जिनकी मृत्यु अस्त्र-शस्त्र से होती है, ऐसे लोगों की मृतात्माएँ अपना समूह बनाकर रहती हैं।_
    मृतात्माओं को प्रेतात्माएं अपने समूह में इसलिए मिलाती हैं कि मृतात्मा के स्वजन और परिजन उसके सुख-शान्ति के लिए और साथ ही उसकी मुक्ति के लिए जो दान-पुण्य करते हैं, ब्राह्मणों को भोजन, वस्त्र, शैय्या अथवा उपयोगी वस्तुएं देते हैं, उन सब वस्तुओं और सामग्रियों में जो तत्व होते है, वे तत्व प्रेतात्माओं का समूह ग्रहण कर लेता है और बेचारी मृतात्मा मुंह ताकती रह जाती है।
   _यही स्थिति गया-श्राद्ध में भी होती है। गया में जितनी प्रेतात्माएं हैं, उतनी तो संसार भर में नहीं होंगी। जिस मृतात्मा के लिए गया में श्राद्ध या पिंडदान होता है, उसे वहां की प्रेतात्माएं झपट लेती हैं और जो उसके निमित्त वहां किया जाता है, उन सबका तत्व वे प्रेतात्माएं ग्रहण कर लेती हैं।_

अगला सवाल आपका हो सकता है : बड़ी ही विचित्र और रहस्यमयी बात है–सब नहीं समझ सकते इसे। इसका कोई उपाय नहीं है ?
अवश्य है उपाय– ‘त्रिपिण्डी श्राद्ध’ जैसे उपाय ऐसे उपाय हैं कि उनके अन्तर्गत मृतात्मा के निमित्त किया हुआ दान-पुण्य, भोजन आदि सीधा मृतात्मा को मिलता है। उन पर प्रेतात्माओं का वश नहीं चलता। उनको अधिकार में लेने का सामर्थ्य उनमें नहीं होता।

स्त्रियों की प्रेतात्माएं~ डायनें/चुड़ैलें :
इसी प्रसंग में आपको स्त्री प्रेतात्मा के बारे में संक्षिप्त में बतला देना चाहता हूँ।
प्रकृति के नियम के अनुसार प्रायः सभी प्रकार की स्त्रियां वासना शरीरधारिणी प्रेतात्माएं होती हैं किन्तु उनमें कुछ विशेष प्रेतात्मायें होती हैं जिनकी प्रेतयोनि से मुक्ति की आशा बहुत ही कम होती है।
गर्भवती स्त्रियां, रजस्वला स्त्रियां, बांझ स्त्रियां, प्रसवकाल में मृत स्त्रियां, नाजायज़ गर्भपात कराने वाली स्त्रियां, शिशु-हत्या करने वाली स्त्रियां मृत्योपरांत भयंकर प्रेतयोनि को प्राप्त होती हैं। जनसाधारण भाषा में ऐसी ही प्रेतनियों को ‘डायन’ के नाम से संबोधित किया जाता है।
उनमें प्रबल मानसिक शक्ति होती है। वे कुमारी कन्याओं, गर्भवती स्त्रियों, नवप्रसूता स्त्रियों को विशेष रूप से परेशान करती हैं।
नवजात शिशुओं पर तो वे बराबर छाया की तरह मंडराती रहती हैं। तंत्रशास्त्र में इनसे बचने के कई उपाय और क्रियाएं हैं।

  जिन स्त्रियों को भयंकर प्रेतयोनि प्राप्त होती है, उनके लिए उपाय ?
  हिन्दू धर्म में बतलाया गया है उपाय। रजस्वला और सूतिका के मरने पर सर्वप्रथम तीन दिन तक 'चांद्रायण व्रत' रहना चाहिए और तीन प्रकार का दान भी करना चाहिए। उसके पश्चात रात्रि के समय दाह संस्कार करना चाहिए।
   _यदि कुमारी कन्या रजस्वला अवस्था में मरती है तो उसके मृत शरीर को स्नान कराकर नया वस्त्र धारण कराना चाहिए। इसके बाद उसके सिर की ओर दक्षिणमुख बैठकर उसका पिता या बड़ा भाई तीन प्रकार का दान करे--वस्त्रदान, अन्नदान और धातुदान।_
   तीन दिन तक चांद्रायण व्रत रखे और दशगात्र श्राद्ध करे। प्रसूती स्त्री के लिए भी यही विधान है। सबसे विकट स्थिति गर्भिणी स्त्री की होती है। मरणोपरांत उसकी आत्मा सीधे पिशाच योनि में चली जाती है और दीर्घकाल तक उस निकृष्ट योनि में रहती है।

  मृत गर्भिणी स्त्री उस निकृष्ट योनि को प्राप्त न हो सके, उसके लिए विशेष विधान यह है कि नाभि के पास गर्भिणी का पेट चीरकर गर्भ को निकाल कर पेट को कच्चे धागे से सिल दें क्योंकि गर्भ सहित स्त्री के शव को जलाने से हत्या का पाप लगता है।
  _गर्भ यदि जीवित है तो ठीक है, यदि मृत है तो उसे भूमि में गाड़ दें तभी गर्भिणी का शवदाह करें। इसके बाद श्राद्ध आदि करें।_
  कोढ़ी व्यक्ति भी मरणोपरांत भयंकर प्रेतयोनि को उपलब्ध होता है। किसी भी वर्ण या जाति का कोढ़ी हो, उसे जमीन में गाड़ देना चाहिए।
  यदि ऐसा न हो तो तीन दिन पर्यन्त शव को जमीन में गड़े रहने के बाद फिर उसे निकाल कर शवदाह करना चाहिए। फिर करना चाहिए श्राद्ध आदि और चांद्रायण व्रत।

मरणोपरांत जीने की वासना :
छाया शरीर के विषय में यह भी जान लेना चाहिए कि जिस व्यक्ति की मृत्यु के समय जीने की कामना प्रबल है तो उसकी मृतात्मा स्वयं अपने ही छाया शरीर में प्रवेश कर जाती है।
प्रवेश करने पर फिर वह यही सोचती है उसकी जीने की इच्छा पूरी हो गयी है, वह मरी नहीं है और उसकी अधूरी अभिलाषा अब पूरी हो जाएगी। लेकिन वह यह नहीं समझती कि यह उसका एकमात्र भ्रम है।
यह भ्रम तब टूटता है जब आंधी-तूफान आदि के प्रभाव से मृतात्मा का छाया शरीर अपने आप अलग हो जाता है।
छाया शरीर से अलग होते ही मृतात्मा को अपनी वास्तविकता का एहसास होता है और वह तुरन्त अपनी वासना के अनुरूप वासना शरीर यानी प्रेत शरीर का निर्माण कर लेती है।
देहात्मा-मृतात्मा-जीवात्मा-प्रेतात्मा और सूक्ष्मात्मा :
परमात्मा कोई शक्तिवाचक शब्द नहीं है, बल्कि परमतत्व है जिससे सम्पूर्ण विश्वब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ है और जो समान रूप से सर्वत्र व्याप्त है और ‘आत्मा’ उसी परमतत्व परमात्मा का लघु संस्करण है।
देह परतंत्र है। उसे किसी अवस्था में और किसी भी प्रकार स्वतंत्र नहीं किया जा सकता है। मन भी परतन्त्र है किन्तु ध्यानयोग द्वारा उसे स्वतंत्र किया जा सकता है।
आत्मा स्वतंत्र है, उसे किसी भी अवस्था में परतन्त्र नहीं किया जा सकता किन्तु वही आत्मा प्रकृति के वशीभूत होकर मन, बुद्धि और अहंकार–इन तत्वों को अपने में समाविष्ट कर लेती है तो उसमें जीवभाव आ जाता है।

ऐसे जीवभावापन्न आत्मा को ‘जीवात्मा’ कहते हैं। जब वही जीवात्मा शरीर की सीमा में बंधती है तो उसे ‘देहात्मा’ कहते हैं। पंचप्राण तत्वों के सम्मिश्रण से आत्मा जिस शरीर की रचना करती है, उसे ‘सूक्ष्म शरीर’ कहते हैं।
सूक्ष्म शरीरधारिणी आत्मा को ‘सूक्ष्मात्मा’ कहते हैं। शरीर छूटने के बाद यदि आत्मा तुरन्त अपने लिए किसी शरीर का निर्माण न कर सकी तो इस विषम अवस्था में उसे ‘मृतात्मा’ कहते हैं। कोई-कोई मृतात्मा घबड़ा कर अपने ही छाया शरीर में प्रवेश कर जाती है।
उसके बाद अपनी वासना के अनुरूप जिस शरीर का निर्माण करती है, उसे वासना शरीर कहते हैं। वासना शरीर में रहने वाली आत्मा को ही ‘प्रेतात्मा’ कहते हैं। शरीर छूटने के बाद जिस व्यक्ति को अपने मरने का ज्ञान नहीं हुआ होता है और मरने के बाद भी अपने आप को जीवित समझती है। ऐसे व्यक्ति की आत्मा को ‘मृतात्मा’ कहते हैं।

अपने आप में जीवभाव उत्पन्न होते ही आत्मा फिर एक क्षण भी बिना शरीर के नहीं रह सकती। किन्तु एक ऐसी अवस्था आती है जब आत्मा को किसी भी प्रकार के शरीर की आवश्यकता नहीं पड़ती।
ऐसी ही आत्मा को ‘दिव्यात्मा’ अथवा ‘विशुद्धात्मा’ कहते है। जिन शरीरों की मैंने चर्चा की है, उन सबका निर्माण प्रकृति के सहयोग से आत्मा स्वयं करती है। लेकिन एक ऐसा शरीर है जिसका निर्माण आत्मा नहीं करती और वह शरीर है–‘आत्मशरीर’।
इस परम् शरीर को उपलब्ध आत्मा को ‘योगात्मा’ की संज्ञा दी गयी है। योग का सर्वप्रथम उद्देश्य इसी योगकाया को उपलब्ध होना है। कब प्राप्त होगी यह योगकाया–निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता।
इस परम उपलब्धि के बाद आत्मा की दो अन्तिम अवस्थाएं रह जाती हैं। एक है–‘सिद्धावस्था’ और दूसरी है–‘दिव्यावस्था’।
दिव्यावस्था को उपलब्ध आत्मा की अवरोहण यात्रा समाप्त हो जाती है और आगे के लिए केवल मात्र रह जाता है–निर्वाण जिसके पश्चात है–परमशून्य यानी परमात्मा।
{चेतना विकास मिशन}

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