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स्मृतिशेष:हमेशा याद किए जाएँगे परशुराम यादव

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राहुल यादव

जाने- माने बिरहा गायक कलाकार परशुराम यादव का 31 अगस्त की सुबह दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। इनके निधन की खबर जैसे ही बिरहा जगत के रसिकों को हुई वैसे ही लोगों में  शोक की लहर दौड़ गई। बिरहा जगत में अपनी गायकी और सादगी की अमिट छाप छोड़ने वाले परशुराम यादव अपने पीछे चार पुत्रों और पत्नी को छोड़ गए।
परशुराम यादव का जन्म बलिया जिले के ग्राम नसीरपुर मठ, कोटवा नरायनपुर में 1 जनवरी 1958 को हुआ। इनके पिता का नाम देवनाथ यादव और माता का नाम मनबसिया था। ये चार भाई थे। परशुराम यादव अपने भाइयों में सबसे छोटे थे। शिवदयाल यादव सबसे बड़े तथा शिवबचन यादव दूसरे और शिवधर यादव तीसरे नंबर पर हैं। इनके मां-बाप को गुजरे काफी वक्त बीत चुका है। पूर्व में दिये गए अपने एक साक्षात्कार में बताया था कि, इनके पिताजी कलकत्ता की एक कंपनी में ड्राइवर की नौकरी करते थे। इनके नाना का नाम भी देवनाथ यादव था। वह कलकत्ता में खटाल चलाया करते थे। उन्होंने बताया था कि मेरी माँ, नाना की इकलौती औलाद थीं, इस कारण नाना की सारी सम्पत्ति हम लोगों को मिल गई। जिसके कारण हम लोग ननिहाल में ही रहा करते थे। तीसरी कक्षा तक की पढ़ाई हमने अपने पिताजी के साथ कलकत्ता में की, उसके बाद हम वापस नाना के घर पर ही रहने लगे।

उन्होंने बताया कि, जब हम चारों भाई जब छोटे थे, तो सबसे बड़े भइया शिवदयाल और उनसे छोटे भइया शिवबचन शौकिया  बिरहा गाते थे। जब हम गाने की बात करते तो हमारी पिटाई होती थी। लेकिन सच कहूं तो हमारा मन भी उन लोगों की देखी-देखा बिरहा गाने का करता था। फिर क्या हुआ कि बड़े भैया शिवदयाल की नौकरी आर्मी में लग गई और उनसे छोटे शिवबचन की नौकरी कॉलेज में लग गई। मैं और शिवधर बच गए। फिर हम लोग कमरा बंद करके गाने की प्रैक्टिस किया करते थे। मैं गाता था और शिवधर ढोलक बजाया करते थे। इसी तरह हमने गाना सीख लिया। बात 1968 की है। लंका, गाजीपुर जिले में चौधरी चरण साहब का कार्यक्रम था। उस समय मेरी उम्र काफी कम थी। उस समय सतीश सिंह बी.के.डी. पार्टी के थे, उनकी लड़की हमारे गांव में ब्याही थी और चूंकि मैं उस दौरान अपने गांव में इधर-उधर गाने लगा था, इसलिए एक दिन सतीश सिंह मेरे घर आये और चौधरी चरण सिंह के कार्यक्रम में मुझे गाने की बात कहकर चले गए। कार्यक्रम वाले दिन जब मैं कार्यक्रम में पहुंचा, तो मुझे बिरहा गाने के लिए मंच पर बुलवाए। चौधरी साहब ने कहा कि, तुम कुछ सुनाओगे बेटा? मैंने कहा, हां बाबूजी। इसके बाद मैंने एक गीत सुनाया, तो उन्होंने एक और गाने के लिए कहा। इस तरह से मैंने तीन गीत गाए। इसके बाद मुझे गाने के लिए खुली छूट मिल गई। इसके बाद मैं दंगल गाने लगा। रामदेव, हीरा, बुल्लू,रामअवध, रामकैलाश, शिवमूरत जी आदि बड़े गायकों के साथ गाने लगा।

बिरहा गायक कलाकार डा. मन्नू यादव उन्हें याद करते हुये कहते हैं, कलाकारों को महत्व देने और उसमें भी नवोदित कलाकार की जब बात की जाय तो भीष्म पितामह का कोई शानी नहीं मिलता। बात 1987 की है जब मैं कक्षा नौवीं का छात्र था। मेरे सामने डॉ परशुराम जी थे। मैंने एक गीत गाया और जब उनकी बारी आयी तो उन्होंने मेरे गीत की बहुत तारीफ की और कहा कि इतना अच्छा गाना एक मंजा हुआ गायक ही गा सकता है, जितना अच्छा इस छोटे से बच्चे ने गाया। यह सुनकर मेरा सीना गर्व से चौड़ा हो गया।

दूसरों को महत्व देने के मामले में मुझे उनकी सादगी सबसे अधिक प्रभावित करती थी। वे कभी यह नहीं सोचते थे कि हमारे सामने वाला गायक कलाकार अनुभव में कम और उम्र में छोटा है। अपने से छोटे और नवोदित कलाकारों को प्यार देना तो कोई भीष्म पितामह से सीखे। इसके उलट देखा जाय तो कुछ नामचीन गायक भी बनारस में थे जो मेरे साथ गाने से केवल इसलिए कतराया करते थे क्योंकि उस समय मैं नया था। यही नहीं कुछ बड़े ऐसे भी गायक थे जो नए गायकों के साथ कार्यक्रम रखे जाने पर गाने के लिए आते ही नहीं थे।

जद्दू अखाड़े से अपनी गायकी की शुरुआत करने वाले परशुराम यादव ने तीन साल पहले एक मुलाक़ात के दौरान बताया था कि, जद्दू अखाड़ा आज तीन घरानों में विभक्त हो चुका है, एक है कुसुम पराग, दूसरा राजपुरम सदगुरू अखाड़ा और तीसरा जय अखाड़ा। इनमें से राजपुरम सद्गुरू अखाड़ा ही मेरा अखाड़ा है।

मंच पर गाते हुये परशुराम यादव।

परशुराम यादव के बिरहा क्षेत्र में कदम रखते ही गायन की शुद्धता पर विशेष बल दिया जाने लगा। परिणाम यह हुआ कि इनकी देखी-देखा दूसरे कलाकारों की भी मजबूरी हो गई और उन्होंने अपने बिरहा गीतों में व्याकरणीय शुद्धता पर ध्यान देना शुरू कर दिया। बिरहा कोश के संपादक और कौशांबी के एडीएम न्यायिक डॉ विश्राम यादव कहते भी हैं कि, बिरहा में संस्कृत की तत्समनिष्ठ शब्दावली और उसे परिष्कृत एवं परिमार्जित करने का काम परशुराम यादव ने ही किया। उनका निधन बिरहा जगत की एक अपूर्णीय क्षति है जिसे भरा नहीं जा सकता। उन्होंने बिरहा जगत में जो प्रयोग किया उसको लेकर आज के समय में यही कहा जा सकता है कि इसे अब शायद ही कोई दूसरा भर पाए। इनकी गायकी में शुद्धता के साथ ही साहित्यिक मिश्रण हो जाने से श्रोताओं की बिरहा गीतों की मिठास दुगुनी हो गई। कई बड़े कलाकार परशुराम यादव के खिलाफ दंगल में जाने से भी बचने लगे। जो जाता था वह पूरी तैयारी के साथ जाता था।
ख्यातिलब्ध बिरहा गायक कलाकार दुर्जन यादव ने भी परशुराम यादव के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए कहा है कि आज हमारे बीच से बिरहा जगत का एक और सितारा चला गया। सोहर गीतों की उनकी प्रस्तुति अद्वितीय थी। अद्वितीय प्रस्तुुतियों और पकड़ के कारण ही उत्तर प्रदेश सरकार से उनको पंडित की उपाधि प्राप्त हुई। उनकी भाषा शुद्ध साहित्यिक कोटि में आती थी। वे खुद भाषा के प्रति सजग थे और चाहते थे कि दूसरे साथी भी सचेत रहें। उनकी चिन्ताएं बिरहा में आती फूहड़ता तक ही सीमित नहीं थी बल्कि वे आने वाली नई पीढ़ी को लेकर भी चिंतित थे। कभी-कभी बातों-बातों में वे अपनी चिंताएं व्यक्त भी करते थे। वे कहते थे जिस तरह से आज हमारे समाज में भोजपुरी गीतों की  देखी-देखा और अपनी लोकप्रियता के साथ पैसे की चाह में लोग कुछ भी गा रहे हैं वह हमारे समाज को कहाँ  ले जायेगा।

जैसा कि खुद परशुराम यादव ने बातचीत में बताया था कि, सामाजिक और ऐतिहासिक गीत गाना हमारी पहले से ही प्राथमिकता रही है । इसलिए मैं समाज में इस प्रकार के गीत पेश करना चाहता हूं जिसे हमारे समाज की बेटी, बहू, हमारी माताएं और छोटे बच्चे बैठकर एक साथ सुन सकेें।

गायक कलाकार काशीनाथ यादव कहते हैं , पंडित जी से ही प्रेरित होकर मैंने भी बिरहा गाना शुरू किया। यूं तो बिरहा के बडे़-बड़े गायकों को देखा और सुना भी लेकिन भीष्म पितामह जैसा कोई नहीं मिला। उनका व्यक्तित्व अलग  तरह का था। उन्होंने बिरहा भाषा के गँवारुपन को दूर करने का प्रयास किया। जब भी उनका कोई नया गीत आता तो लगता कि अब इससे अच्छा नहीं गा पायेंगे, लेकिन इसके बाद जो गाते वो उससे भी अच्छा गाते। फिर यही लगता कि अब इससे अच्छा नहीं गा पायेंगे, यह थी उनकी गायकी की विशेषता। वे छंद विधान ककहरा, सीधा, पलट, अधर, जंजीरा जैसी तमाम विधाओं में गाते थे।

जौनपुर जिले के सेहमलपुर गांव निवासी गिरिजेश यादव परशुराम यादव के निधन पर दुखी होकर कहते हैं, परशुराम यादव जैसा पढ़ा-लिखा और विद्वान बिरहा जगत में कोई दूसरा नहीं है। उनकी गायकी साहित्यिक छौंक से भरी रहती थी। जितने प्रकार के छंद विधान उनके बिरहा में मिल जायेंगे उतना किसी गायक में आपको नजर नहीं आयेगा। भीष्म पितामह का जाना हम सभी बिरहा के रसिकों के लिए दुखद है।
परशुराम बिरहा को एक सम्मानित ऊंचाई पर ले जाने के लिए हमेशा याद किए जाएँगे।

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