डॉ. विकास मानव
योगी अणु के समान छोटा या अदृश्य हो सकता है। वह रूई से भी हलका होकर उड़ सकता है। हनुमान की तरह।
योगी पहाड़ के समान बड़ा बन सकता है। वह अन्य शरीर में प्रवेश कर सकता है। योगमार्ग के साधकों को ये सारी सिद्धियाँ अनायास ही हस्तगत हो जाती हैं. जो साधक इन सिद्धियों, शक्तियों, विभूतियों, ऐश्वर्यों के प्रलोभन में, आकर्षण में पड़कर क्रीड़ा-कौतुक करने लगते हैं, वे योग के चरम तक, शीर्ष तक पहुँच पाने में असफल रहते हैं। वे इससे आगे की यात्रा कर ही नहीं पाते।
असुर, दानव तप से प्राप्त शक्तियों का उपभोग व दुरुपयोग करने के कारण आत्मसाक्षात्कार जैसे महान लक्ष्य की प्राप्ति से सर्वथा वंचित ही रहते थे. तपस्वी होते हुए भी अंततः विनाश को ही प्राप्त होते थे। वे तप से प्राप्त होने वाली सिद्धियों, शक्तियों के आकर्षण में ही डूबे रह जाते थे।
देव, ऋषि, संत, योगी आदि तप से प्राप्त शक्तियों का प्रयोग पर-पीड़ा व पतन निवारण के लिए ही किया करते थे। साथ ही वे दूसरों को धर्ममार्ग, मोक्षमार्ग पर चलने की प्रेरणा भी दिया करते थे।
अस्तु योगदर्शन में योगाभ्यास से प्राप्त शक्तियों, सिद्धियों व ऐश्वर्यों के प्रलोभन में न पड़ने का उपदेश किया गया है; क्योंकि योगी तभी अपने जीवन के चरम को पा सकता है तथा योग व अध्यात्म के शीर्ष को छू सकता है। योगी का अंतिम लक्ष्य आत्मदर्शन ही होना चाहिए, ईश्वरदर्शन ही होना चाहिए। योगी का अंतिम लक्ष्य मोक्ष, मुक्ति व कैवल्य ही होना चाहिए। ऐसा होना तभी संभव है, जब हम योगमार्ग पर अटूट श्रद्धा, भक्ति व समर्पण के साथ ‘चरैवेति, चरैवेति’ का पालन करते हुए सदा चलते ही रहें, बढ़ते ही रहें, तब तक जब तक कि हम अपनी मंजिल तक न पहुँच जाएँ।
राजयोग, मंत्रयोग, क्रियायोग, अभ्यास और वैराग्य, हठयोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग आदि किसी भी मार्ग का अवलंबन करते हुए हम अवश्य ही अपने सर्वोच्च लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। सतत योगाभ्यास से जब हमारे चित्त के समस्त विकार, संस्कार मिट जाते हैं तब आत्मा अपने असली स्वरूप को पहचान पाती है; क्योंकि तत्त्वज्ञान की वृद्धि होती है। आत्मा को प्रकृति, देह, मन व इंद्रियों से भिन्न होने का संपूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
यही मोक्ष है, मुक्ति है, समाधि है। इस अवस्था में संसार में रहते हुए भी साधक संसार के प्रभाव से अछूता रहता है। अस्तु वह देह में रहते हुए भी विदेह की स्थिति में रहता है; क्योंकि चित्त निर्मल होने पर जब उसे अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है, तब उसका प्रकृति में और उसके कार्यों में स्वभाव से ही वैराग्य हो जाता है।
अंत में जब योगी का विवेकज्ञान की महिमा में भी वैराग्य हो जाता है तब उसके विवेकज्ञान में किसी प्रकार का विघ्न नहीं पड़ता, वह निरंतर उदित (प्रकाशमान) रहता है और तब उसे तत्काल ही धर्ममेघ समाधि की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार विवेकज्ञान से भी वैराग्य हो जाने पर जब योगी को धर्ममेघ समाधि की प्राप्ति होती है तो फिर उस धर्ममेघ समाधि से उसके अविद्यादि पाँचों क्लेश तथा पाप, पुण्य तथा पाप- पुण्य मिश्रित ऐसे तीनों प्रकार के कर्म संस्कार समूल नष्ट हो जाते हैं।
इस प्रकार वह योगी जीवनमुक्त हो जाता है। महर्षि पतंजलि (योगसूत्र- 4/30) में इस सत्य को इस तरह प्रकाशित कर रहे हैं :
ततः क्लेशकर्मनिवृत्तिः ॥
अर्थात-उस धर्ममेघ समाधि से क्लेश और कर्मों का सर्वथा नाश हो जाता है।
जीवनमुक्त योगी के संदर्भ में आचार्य शंकर विवेक चूड़ामणि (439-41) में कहते हैं :
‘जिसका देह और इंद्रिय आदि में अहंभाव तथा अन्य वस्तुओं में इदं (यह) भाव कभी नहीं होता, वह पुरुष जीवनमुक्त माना जाता है। जो अपनी तत्त्वावगाहिनी बुद्धि से आत्मा और ब्रह्म तथा ब्रह्म और संसार में कोई भेद नहीं देखता, वह पुरुष जीवनमुक्त माना जाता है। साधु पुरुषों द्वारा इस शरीर के सत्कार किए जाने पर और दुष्टजनों से पीड़ित होने पर भी जिसके चित्त का समान भाव रहता है, वह मनुष्य जीवनमुक्त माना जाता है।’
जीवनमुक्त योगी को ही गीता में स्थितप्रज्ञ कहा गया है :
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥
अर्थात- जिस काल में यह पुरुष मन में स्थित संपूर्ण कामनाओं को भली भाँति त्याग देता है और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।
यदि हमें सचमुच ही सांसारिक कष्ट-क्लेषों, कामनाओं, वासनाओं, विकारों के विकराल समंदर से पार उतरना है, जन्म-मरण के बंधन को तोड़ जाना है और अपने आत्मस्वरूप में स्थित हो जाना है, जन्म-जन्म से प्यासी अपनी आत्मा को ब्रह्मानंद की अनुभूति पानी है, अपने अंतस् को ब्रह्मज्योति से जगमगाना है.