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महंगाई से भी महंगी पड़ती है**सब्र की इंतेहा?*

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शशिकांत गुप्ते

जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी*
संत तुलसीबाबा ने उक्त चौपाई में मानव के मनोभाव को इंगित किया है। यहाँ पर भाव मतलब शुद्ध सात्विक भाव से है।
शुध्द सात्विक भाव को स्पष्ट करते हुए संत तुकारामजी ने कहा है,
देव भावाचा भुकेला, तुका वैकुंठासी गेला
संत तुकारामजी के कहने का आशय है भगवान भाव का भूखा है, ईश्वर ने तुकारामजी को शुद्ध भाव के बलपर आध्यात्म के परमसुख का आनंद प्राप्त करवाया।
यह तो दार्शनिक बात हुई। इनदिनों आमजन बाजार भाव से जूझ रहा है। आमदनी अठन्नी खर्चा रुपया वाली लोकोक्ति चरितार्थ हो रही है।
आश्चर्य की बात तो यह है कि, हमारे मुल्क के रहबरों को बाजार भाव दिखाई नहीं दे रहें हैं।
तुलसीबाबा ने कहा है जाकी रही भावना……. लेकिन व्यवहारिक धरातल पर भाव की जगह नज़र लिखा जाना चाहिए।
आखों से कम दिखाई देता है,मतलब नज़र कमजोर हो जाती है। नज़र कमजोर होने पर नज़र का चश्मा पहनना पड़ता है।
सियादतदानों का चश्मा बहुत ही नायाब तरीके का होता है।
सियासतदानों के चश्मे की फ्रेम ‘अ’ नीति की फ्रेम होती है उसमें बाई फोकल काँच लगे होतें हैं।
एक फोकल नजदीक के लिए दूसरा फोकल दूर की नजर के लिए होता है। सियासतदानों को बाईफ़ोकल चश्मे से नजदीक तो सिर्फ धनबली और बाहुबली ही दिखतें है, दूर के फोकल से सियासतदान आमजन को सिर्फ निहारतें रहतें हैं।
सियासतदानो को यदि आमजन स्पष्ट नज़र आने लगेंगे तो आमजन की शारीरिक,मानसिक और आर्थिक स्थिति भी दिखने लगेगी। वैसे आँखों के चिकित्सकों का कहना है कि नज़र कमजोर होने पर यदि चश्मा लगया जाता है तो निश्चित ही व्यक्ति को स्पष्ट दिखाई देगा ही। सियासतदान दूर की नज़र से आमजन को यदि देखना ही नहीं चाहे तो इसमें चश्मे का कोई दोष नहीं है।
जब सियासतदान भावनाहीन हो जातें हैं तब उनकी नज़र में आमजन की मूलभूत समस्याएं कैसे दिखाई देगी।
नज़र शब्द से याद आया कि सड़क पर करिश्मे दिखाने वाला सड़कछाप जादूगर भी कहता है, उसके पास कोई जादू नहीं है,ये सब नज़र बंदी का खेल है।
ठीक इसी तरह सियासतदान भी आमजन के साथ नजरबंदी का ही तो खेल खेल रहें हैं।
एक ओर सभी दूध के धुले लोग हैं, दूसरी ओर तकरीबन सभी ईडी और अन्य जाँच एजेंसियों की गिरफ्त में है।
हाँ यदि दूसरी ओर वाले किसी व्यक्ति का ज़मीर जाग जाए और वह इस ओर प्रवेश करले तो शर्तिया दूध का धुला हो जाता है।
इसका मुख्य कारण वह नजदीक की नज़र में दिखाई देने लगेगा।
सारे तीरथ बार बार नज़दीक की नज़र में एक बार।
इतना लिखकर मैने सीतारामजी पूछा आपका क्या अभिप्राय है?
सीतारामजी अपने व्यंग्य की भाषा में सिर्फ इतना ही कहा कि, शायर स्व. राहत इंदौरी के इस शेर के साथ इस लेख का समापन कर दीजिए। इस शेर में वे भाव हैं जब आमजन का सब्र टूट जाता है,तब वह क्या सोचता है?
जो दुनिया में सुनाई दे उसे कहते हैं ख़ामोशी
जो आँखों में दिखाई दे उसे तूफ़ान कहते हैं!

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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