कुलदीप कुमार
दुबली पतली काया और उस काया में क़ैद ऐसा व्यक्तित्व जो एक लेखक, पत्रकार, राजनीतिज्ञ, शिक्षक, वक्ता, संगठनकर्ता था। जिसने अपनी कलम से गुलामी, अन्याय, असमानता, शोषण, छुआछूत, सामंती अत्याचार आदि के विरुद्ध एक सिपाही बन कर लड़ा।
बहुमुखी प्रतिभा के संपन्न और प्रखर स्वतंत्रता सेनानी तथा निष्पक्ष पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी जी के अनेक रूप थे और हर रूप हर छवि एक दूसरे से बढ़ कर थी।
एक छटपटाती आत्मा, न्याय के लिए संघर्ष में सुख का अनुभव करने वाला एक समर्पित जीवन, जो आदर्श के लिए जिया और आदर्श की वेदी पर कुर्बान हो गया।
जिसने अंग्रेजों, अन्याय और शोषण के विरुद्ध देशवाशियों को जगाया, शिक्षित किया, लामबंद किया, प्रोत्साहित किया और आज़ादी के लिए ललकारा और कानपुर में दंगों को रोकने के प्रयास में साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ गया।
लेकिन अपनी मौत से भी उन्होंने एक शिक्षा दी आने वालीं पीढ़ी को।
गणेश शंकर का जन्म 26 अक्टूबर 1880 को प्रयाग में हुआ था। इनके पिता एक शिक्षक थें। गणेश जी की शिक्षा ग्वालियर से हुई थी।
आर्थिक समस्या के कारण उनकी पढाई ज्यादा नहीं चली लेकिन उन्होंने स्वाध्याय जारी रखा।
अपनी मेहनत से उन्होंने सरकारी नौकरी भी पा ली लेकिन अंग्रेजों से उनकी सहमति नहीं बनी और उन्होंने वो नौकरी छोड़ दी।
इसके बाद कानपुर में करेंसी विभाग में नौकरी किये। वहां भी अंग्रेजी अधिकारी से नहीं बना तो नौकरी छोड़ दिए।
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इनकी प्रतिभा को पहचान लिया था। और उन्होंने ‘सरस्वती ‘ पत्रिका का संपादन गणेश जी से करवाया।
लेकिन राजनीति के तरफ झुकाव के कारण उन्होंने इस पत्रिका का संपादन बहुत जल्द छोड़कर मालवीय जी की पत्रिका ‘अभ्युदय’ का संपादन करने लगे।
इसके बाद उन्होंने कुछ दिन ‘प्रभा ‘ पत्रिका का भी संपादन किया।
अंत में उन्होंने अक्टूबर 1913 में ‘प्रताप ‘ नामक साप्ताहिक पत्रिका का संपादन शुरू किया और अपने इस पत्रिका के माध्यम से उन्होंने किसानों की समस्याओं को सबके सामने रखा।
गणेश शंकर विद्यार्थी राष्ट्रवादी और मार्क्सवादी विचारधारा दोनों से एक सामान प्रभावित थे।
उन्होंने अपने ‘प्रताप ‘ पत्रिका के माध्यम से भगत सिंह को जोड़ा और रामप्रसाद बिस्मिल समेत अनेक क्रांतिकारियों के जीवनी को इस पत्रिका के माध्यम से लोगों के सामने रखा। तथा क्रांतिकारियों के लेखों को भी प्रकाशित किया।
उन्होंने ‘सरस्वती, अभ्युदय, प्रभा और प्रताप’ के अलावा ‘कर्मयोगी, स्वराज और हितवार्ता’ पत्रिकाओं के लिए भी काफी लेख लिखें।
‘शेख चिल्ली की कहानियां ‘ हिंदी साहित्य को उनकी ही देन है।
बाल गंगाधर तिलक का उनपर काफी प्रभाव रहा। मार्च 1931 को जब कानपुर में हिन्दू-मुस्लिम दंगा भड़का तो उन्होंने इसे रोकने की कोशिश की किंतु दंगाइयों ने इनकी हत्या कर दी।
इस प्रकार निर्भीक और निष्पक्ष पत्रकारिता का यह दीपक साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ते हुए 25 मार्च 1931 को बुझ गया।
जयंती पर इस कलम के सिपाही को नमन्..!
– कुलदीप कुमार,
प्रस्तुतकर्ता – डाक्टर अमलदार नीहार, प्रोफेसर,टाउन डिग्री कॉलेज, बलिया,उप्र, संपर्क –94540 32550,
संकलन व संपादन – निर्मल कुमार शर्मा गाजियाबाद उप्र संपर्क – 9910629632