लाल बहादुर सिंह
मोदी ने एलान किया है कि 25 जून को हर वर्ष संविधान हत्या दिवस के रूप में मनाया जायेगा। इस घोषणा का क्या हस्र होगा इसका अंदाजा इसी तरह के एक और दिन की घोषणा का जो हस्र हुआ है उससे लगाया जा सकता है – 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका दिवस के रूप में मनाने का ऐलान। अब शायद लोगों को उसकी याद भी नहीं है।
दरअसल संविधान मोदी जी के गले की फांस बन गया है। वे जितना ही संविधान को लेकर उछल कूद कर रहे हैं, ओवर रिएक्ट कर रहे हैं उतना ही उसका फंदा उन के गले में कसता जा रहा है। संविधान की कसौटी पर आने वाले दिनों में रोजगार के अधिकार, जाति जनगणना जैसे सवालों पर उनकी और परीक्षा होती रहेगी। दरअसल देश की जनता ने संघ परिवार और मोदी की मंशा को समझने में देर जरूर की लेकिन चूक नहीं की – ये लोग मूलतः संविधान में उल्लिखित मूल्यों समानता, स्वतंत्रता, भाईचारा और हर तरह के – सामाजिक, आर्थिक , राजनीतिक- न्याय के विरुद्ध हैं। लोगों को अपने अनुभव से यह समझ में आ गया कि भले संविधान को एक झटके में रिजेक्ट नहीं किया जा रहा है। लेकिन टुकड़े-टुकड़े में उसे कुतरा जा रहा है, उसकी भावना के खिलाफ काम किया जा रहा है और संविधान की जो मूल आत्मा है उसे ही मिटा देने की तैयारी है।
विभाजन विभीषिका पर भी लोगों को यह समझते देर नहीं लगी कि इसका एकमात्र उद्देश्य सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करना है। यह पाखंड की चरम सीमा थी कि जिन लोगों ने खुद ही टू-नेशन थियरी गढ़ा था और दंगों में हिस्सा लिया था, वही लोग विभाजन विभीषिका की बात कर रहे हैं। दरअसल इससे वे मुसलमानों और कांग्रेस को विलेन के रूप में खड़ा करना चाहते हैं कि इन्हीं लोगों ने देश का बंटवारा किया और जो हिंदू मारे गए या विस्थापित हुए, उस सब के लिए यही लोग जिम्मेदार हैं। लेकिन जनता पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। लोगों को अब यह याद भी नहीं है कि ऐसा कोई दिन घोषित हुआ भी था।
संविधान हत्या दिवस दरअसल मोदी जी स्वयं जो संविधान की हत्या कर रहे हैं उसे छिपाने का आवरण मात्र है। लोकतंत्र का आधार जो संवैधानिक संस्थाएं हैं, उन पर नियंत्रण कायम कर लिया गया है, न सिर्फ कार्यपालिका पर अंकुश लगाने की उनकी स्वायत्तता और स्वतंत्रता खत्म कर दी गई है बल्कि सत्ता के खेल में उनका जमकर दुरुपयोग किया जा रहा है।
असहमत आवाजों पर रोक- वर्तमान आपातकाल में पिछले अनुभव से सीखते हुए विरोधी दल के नेताओं की wholesale गिरफ्तारी नहीं हो रही, बल्कि यह काम सेलेक्टिव ढंग से राजनीतिक जरूरत के हिसाब से अलग-अलग समय पर हो रहा है। नया यह भी है कि नागरिक समाज से भी इसी तरह सेलेक्टिव गिरफ्तारियां हो रही हैं और असहमत आवाजों को चुन-चुनकर खामोश किया जा रहा है। अल्पसंख्यकों पर राज्य की विशेष कृपा है। उन्हें टाइट किया जा रहा है, यह संदेश देने के लिए उनके ऊपर भी कुछ प्रतीक चुनकर बर्बर जुल्म ढाया जा रहा है।
पिछले दस साल में धर्मनिरपेक्ष समाजवादी गणतंत्र की ऐसी-तैसी कर दी गई है। धर्म से राज्य के अलगाव की वैज्ञानिक आधुनिक अवधारणा की बात छोड़ दीजिए, सर्व धर्म समभाव के रूप में परिभाषित धर्मनिरपेक्षता की उदारवादी अवधारणा को कब की तिलांजलि दे दी गई है। व्यवहारतः भारत एक हिंदू बोलबाला वाला राज्य बन चुका है। मुस्लिम आबादी को जीवन के हर क्षेत्र में किनारे धकेल देने की कोशिश है। अब बस उन्हें disenfranchise करना बाकी है।उनकी दोयम दर्जे की नागरिकता को लेकर भी CAA के माध्यम से शुरूआत हो चुकी है। बस एनआरसी और NPR बाकी हैं जिनसे यह परिघटना अपने आखिरी अंजाम तक पहुंच जाएगी।
गणतंत्र को किस तरह चंद पूंजीपति घरानों की oligarchy में बदल दिया गया है, हाल ही में अंबानी परिवार की शादी के नाम पर जो फूहड़ तमाशा हुआ, प्रधानमंत्री भी गए, वह इसका नमूना है। इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण लेटरल एंट्री है जहां धनिक वर्गों के प्रतिनिधि/ कर्मचारी केंद्र सरकार के सर्वोच्च पदों पर सिविल सेवा में रख लिए जाते हैं और उनके पक्ष में नीतियां बनाते हैं, फिर अपनी इच्छानुसार अपनी पुरानी कम्पनी में वापस चले जाते हैं ! राज्य और इजारेदार पूंजीपतियों का फर्क ही मिट गया है।
वैसे तो भारत का संविधान कोई यूनिवर्सल franchise द्वारा देश की समस्त जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा नहीं बनाया गया था। जाहिर है इसमें कम्युनिस्टों के विचार तो छोड़ ही दीजिए, भगत सिंह के विचार की भी बात मत करिए, यहां तक कि गांधी जी के भी अनेक विचार शामिल नहीं हुए, दरअसल वे संविधान को तैयार होते देखने के लिए जीवित भी नहीं रहे। बताया जाता है की काम का अधिकार उन्हीं की सोच के अनुरूप डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स में जरूर शामिल कर लिया गया लेकिन उसे मौलिक अधिकार नहीं बनाया गया। डा अंबेडकर ने भले ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष के बतौर संविधान लिखा, लेकिन उनके मूल विचार जो उन्होंने स्टेट एंड माइनोरिटीज में व्यक्त किए थे, मसलन जमीन का राष्ट्रीयकरण और किसानों में वितरण या राजकीय समाजवाद, उन्हें स्वीकार नहीं किया गया।
स्वाभाविक रूप से संविधान में कुछ ऐसी बात, ऐसे loop-holes, मुख्यपृष्ठ की बातों का फुटनोट में निषेध, जरूर मौजूद रहा जिससे कालांतर में उसका दुरुपयोग संभव हुआ और संस्थागत तौर पर बहुत कुछ ऐसा रहा जिसने देश को आज मौजूदा हालत में पहुंचाया है जहां चंद हाथों में सत्ता और अर्थ का संकेंद्रण हो गया और विराट आबादी हर तरह के अन्याय और जुल्म का शिकार होती गई। सबको सुलभ अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं, नौकरी रोजगार सबके लिए जनता मोहताज होती गई।
जाहिर है संविधान में भगत सिंह, डा अंबेडकर, गांधी या अन्य जनोन्मुखी विचारों के अनुरूप अनेक बदलाव वांछित हैं जो उचित समय पर जनता करेगी।
पर यह सच है कि हमारे संविधान की प्रस्तावना, उसका मूल ढांचा हमारी आजादी की लड़ाई के महान मूल्यों को प्रतिबिंबित करती है। और संघ भाजपा उसे ही बदलना चाहते हैं।
वे मौजूदा संविधान को बदलकर इसे सांप्रदायिक कारपोरेट फासीवाद की निर्देशिका बनाना चाहते हैं।
इसलिए इस संविधान की हिफाजत आज लोकतंत्र की रक्षा की अनिवार्य शर्त बन गया है। इसीलिए जनता उनके द्वारा संविधान की हत्या के खिलाफ खड़ी हो रही है। जिससे ध्यान हटाने के लिए वे पचास साल पहले इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल की याद दिला रहे हैं। जाहिर है उस आपातकाल की भी सख्त मजम्मत होनी चाहिए और उस समय जनता ने इंदिरा गांधी और कांग्रेस को माकूल सजा दिया और सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया। लेकिन जाहिर है दो गलत चीजें मिलकर सही नहीं हो जाती। इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया, उससे मोदी का दस साल से जारी बर्बर फासीवादी निजाम सही नहीं हो जाता।
जनता पचास साल पुराने आपातकाल को भी जानती है, उसका तब जिस तरह विरोध किया उसी तरह आज मोदी के अघोषित आपातकाल के विरुद्ध खड़ी हो रही है, उसे मालूम है की यह विभाजनकारी है, अल्पसंख्यकों को डेमोनाइज करने वाला, आरक्षण और नौकरियों को खत्म करने वाला, सामंती ब्राह्मणवादी दबंगों के वर्चस्व को गरीबों दलितों पर थोपने वाला, चंद याराना धन कुबेरों के हाथ सारी राष्ट्रीय संपदा को लुटाने वाला तथा आम जनता के दरिद्रीकरण का शासन है।
जाहिर है जनता 25 जून संविधान हत्या जैसे पुराने घिसे जुमलों के झांसे में आने वाली नहीं है, बल्कि वह मोदी द्वारा संवैधानिक मूल्यों की हत्या के खिलाफ कमर कस कर तैयार हो रही है।