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चेहरे पर चेहरे लगाते है लोग?*

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शशिकांत गुप्ते

इनदिनों देश में बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य को अंजाम दिया जा रहा है। सम्पूर्ण देश में स्वच्छता अभियान चल रहा है।
स्वच्छता अभियान मतलब सिर्फ कूड़ा कचरा साफ करने के लि ए ही नहीं चलाया बल्कि भ्रष्ट्राचार को भी खत्म करने के लिए जाँच एजेंसियां संक्रिय हैं।
आए दिन जाँच एंजेसियों द्वारा डाले जा रहें छापों की खबर समाचार पत्रों में प्रमुखता से छप रहीं हैं। ऐसी खबरें पढ़ कर बहुत खुशी होती है। अपना देश भ्रष्ट्राचार मुक्त हो जाएगा। विश्व गुरु बनने के लिए भ्रष्ट्राचार मुक्त होना जरुरी भी है।
देश में पिछले आठ वर्षों से मुक्त संस्कृति का उदय हुआ है। 28 दिसंबर 1885 में स्थापित एक राजनैतिक दल से देश को मुक्त करने की रणनीति को अमल में लाने की कोशिश की जा रही है।
जब उक्त विचार लेखक के मित्र सीतारामजी ने पढ़े तब सीतारामजी ने अपनी राय इस शेर के माध्यम से प्रकट की।
शायर शकील जमालीजी
का शेर है।
रिश्तों की दलदल से कैसे निकलेंगे
हर साज़िश के पीछे अपने निकलेंगे

जब जाँच के आंच की तपन झुलसाने लगती है तब जो स्थिति बनती है। इस स्थिति पर शायर माधव अवानाजी फरमातें हैं।
फिर चीख़ते फिर रहे बद-हवास चेहरे
फिर रचें जाने लगें हैं षडयंत्र गहरे

वर्तमान सियासत की गहराई को समझना बहुत कठिन है। किसी अज्ञात शायर ने क्या खूब कहा है।
समझने नहीं देती सियासित हम को सच्चाई
कभी चेहरा नहीं मिलता कभी दर्पण नहीं मिलता

जो भी अभियान जनहित में चलाया जाता है। ऐसे हर अभियान को क्रियान्वित करने के पीछे निष्पक्ष मानसिकता होनी चाहिए।
शायर नाज़ मुज़फ़्फ़राबादी फरमातें हैं
चापलूसी मुनाफ़िक़त साज़िश
ये सिफ़त हर कनीज़-ओ-दासव में थी

(मुनाफ़िक़त का अर्थ दोहरे चरित्र वाला)
अब इसके आगे लिखने के लिए कुछ रहा ही नहीं। बस यही कहना है जो किसी अज्ञात शायर ने कहा है।
छा जाती है चुप्पी अगर गुनाह अपने हो
बात दूजे की हो तो शोर बहुत होता है।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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