अग्नि आलोक

*आपातकाल की यातनाओं को याद कर आज भी सिरह उठते हैं लोग*

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*आपातकाल की 50 वी वर्षगांठ पर विशेष लेख* 

*रामबाबू अग्रवाल*

इस 25 जून को आपातकाल के 50 साल पूरे हो रहे हैं जिन लोगों आपातकाल की यातनाओं को भोगा है और सरकार के,शासन के उस वक्त के तानाशाही पूर्ण रवैयों को देखा है आज भी वे उन घटनाओं को याद कर सिहर उठते हैं ।

आजाद भारत के इतिहास में 25 जून की तारीख अहम है। इसी दिन यानी 25 जून 1975 को स्वतंत्र भारत के इतिहास का  सबसे ज्यादा अलोकतांत्रिक दौर शुरू हुआ था। उस दौर की केवल कल्पना ही आज के युवा कर सकते हैं, खासकर तब जबकि आज अभिव्यक्ति के ढेरों साधन मौजूद है और अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर पूरी दुनिया में नये सिरे से आवाज उठाई जा रही है, ऐसे में बड़ा आश्चर्य होता है कि दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र ने नागरिक अधिकारों को छीन लेने, विरोधियों, विपक्षियों और लाखों लोगों को जेल में डाल देने और प्रेस पर प्रतिबंध के जाने कैसे दिन देखे?

– इमरजेंसी लागू कर तत्कालीन सरकार ने सत्ता सुख के लिए देश को जेलखाना बना दिया था25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक का 21 महीने की अवधि में भारत में आपातकाल घोषितथा। तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इन्दिरागांधी के कहने पर भारतीय संविधान की धारा 352 के अधीन आपातकाल की घोषणा कर दी।स्वतंत्र भारत के इतिहास में यह सबसे विवादास्पद और अलोकतांत्रिक काल था। आपातकालमें चुनाव स्थगित हो गए तथा नागरिक अधिकारों को समाप्त करके मनमानी की गई। इंदिरागांधी के राजनीतिक विरोधियों को कैद कर लिया गया और प्रेस पर प्रतिबंधित कर दियागया। प्रधानमंत्री के बेटे संजय गांधी के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर पुरुष नसबंदी अभियानचलाया गया। इस जबरदस्ती के कारण पुरे देश के ग्रामीण क्षेत्र में भय एवं रोष का वातावरणबन गया एवं पुलिस तथा कांग्रेस के नेताओं की अवैध कमाई का जरिया बन गया यह● अभियान ।

आपातकाल का वो दौर इतना भयानक था कि कांग्रेस भी अब उसे भूल मानती है लेकिन उस वक्त की बगावत जैसे हालात की दुहाई भी दी जाती है तो क्या देश में सचमुच बगावत के हालात बन रहे थे? सच ये है कि सरकार की नीतियों की वजह से महंगाई दर 20 गुना बढ़ गई थी. गुजरात और बिहार में शुरू हुए छात्र आंदोलन से उ‌द्वेलित जनता सड़कों पर उतर आई थी. उनका नेतृत्व कर रहा था सत्तर साल का एक बूढ़ा जयप्रकाश नारायण जिसने इंदिरा सरकार की जन विरोधी नीतियों के खिलाफ संपूर्ण क्रांति का नारा दिया। जयप्रकाश नारायण ने इसे ‘भारतीय इतिहास की सर्वाधिक काली अवधि’ कहा था। जयप्रकाश जी के आह्वान से प्रेरित होकर देशभर से कई महिलाओं और पुरुषों ने खुद को लोकतंत्र बचाने के आंदोलन में झोंक दिया। आपातकाल के दौर की तानाशाही के विरोध में ‘लोक संघर्ष समिति’ बनायी गयी। इसके बैनर तले सत्याग्रह हुआ, जिसमें देश भर में डेढ़ लाख लोगों ने गिरफ्तारी दीं। इंदिरा जी ने सबको बंदकर सोचा कि अब आंदोलन दब गया है। अतः उन्होंने लोकसभा के चुनाव घोषित कर दिये । जेल में बंद नेताओं ने ‘जनता पार्टी’ के बैनर पर चुनाव लड़ने का निश्चय किया गया। अधिकांश बड़े नेता तो हिम्मत हार चुके थे; पर जब उन्होंने जनता का उत्साह देखा, तो वे राजी हो गये।

देश के कुछ प्रतिशत नागरिक अब भी अघोषित इमर्जेन्सी जैसा महसूस करते है। असहमति को बर्दाश्त नहीं करती है यह सरकार भी क्यों? क्योकि कई केन्द्रय मंत्री, संसद, विधायक अपने क्षेत्र की सही बात रखना चाहते है तो उन्हें व्हिप के जरिये रोक दिया जाता है और कहा जाता है कि आप पार्टी फोरम पर बोल सकते है पर सार्वजनिक नहीं। फिर वे पर्सनल वार्ता में यह बातें बताते है। ऐसा सभी राजनितिक दाल करते है सिर्फ सत्ताधारी ही नहीं। व्हिप के कारण क्षेत्रों की सही आवाज़ संसद और विधानसभा में उठ नहीं पाती है।

राजनितिक दलों के चंदे में ट्रांसपेरेंसी होना चाहिए। चुनाव आयोग ने बोला है। हमको पता होना चाहिए अभी सत्ताधारी पार्टी को 80% चंदा मिला और बाकी सब दल 20% में निबट जाए। चंदा देने वालो में डर बहुत ज्यादा है इस बात से पता चलता है। SIBI के इलेक्ट्रॉनिक कोड सिर्फ सरकार ही पता कर सकती है पर किसी भी राजनितिक दल को ये जानकारी नहीं मिलती। ये सब प्रश्न फिर से उठ रहे है।

  *(लेखक इंदौर के वरिष्ठ समाजवादी नेता सोशलिस्ट पार्टी इंडिया के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और आपातकाल में मीसाबंदी रहे हैं)*

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