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बांग्लादेश में जन विप्लव भाग-2 : लोकतंत्र की परिधि लगातार सिकुड़ती जा रही है

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बांग्लादेश अभी उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है। राजनीतिक संघर्ष चरम पर पहुंच चुका है। विश्व साम्राज्यवादी महाशक्तियां खेल खेलने में लगी है। बांग्लादेश की राजनीतिक दिशा किस करवट बैठेगी। यह चल रहे संघर्ष के अंदर की मौजूद लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष जनपक्षधर ताकतों की सांगठनिक एकता और वैचारिक दक्षता पर निर्भर करेगा।

जयप्रकाश नारायण

उदारीकृत दुनिया में लोकतंत्र की परिधि लगातार सिकुड़ती जा रही है। उपनिवेशोत्तर दुनिया के बाद आजाद हुए मुल्कों का शासक वर्ग 20 वीं सदी के मध्य से लोकतांत्रिक मॉडलों के नए-नए रूपों को विकसित करने का प्रयोग अपने-अपने मुल्कों में कर रहा‌‌ था। जिससे इन देशों में लोकतंत्र का एक प्रभावशाली ढांचा, संस्थाएं और परिवेश विकसित हो सके।

हालांकि लंबे समय तक उपनिवेश रहे भू-मांगों के आजाद होने के क्रम में नये -नये राष्ट्र- राज्य भी बनते गए। इन राष्ट्र राज्यों को एक सार्वभौम संप्रभुता संपन्न देश होने के लिए आंतरिक संघर्षों से गुजरना पड़ा। जिस कारण उपनिवेश विरोधी मुक्ति संघर्षों के दौरान बनी विराट जन एकता खंडित भी हुई। इसके पीछे साम्राज्यवादी मुल्कों की रणनीति और‌ कार्य योजना भी कारगर भूमिका निभा रही थी। जिससे नए बने मुल्कों के बीच में लंबे समय तक तनाव संघर्ष और युद्ध चलता रहा।

इसका सबसे सटीक उदाहरण भारतीय उपमहाद्वीप है। जहां ब्रिटिश भारत के धर्म के आधार पर दो टुकड़े कर दिए गए थे।भारत और पाकिस्तान। ये सहोदर मुल्क चले तो लोकतांत्रिक रास्ते से ही लेकिन पाकिस्तान बहुत शीघ्र ही धर्म राज्य में पतित हो गया और वहां लोकतंत्र लगभग असफल होता चला गया।

लेकिन भारत अपने इतिहास के सबसे कठिन दौर पर विजय पाते हुए 500 से ज्यादा रियासतों के विलय के बाद एकताबद्ध स्वतंत्र राष्ट्र बनने की तरफ आगे बढ़ा। एक संविधान सभा का निर्माण किया गया ‌और 1950 में संविधान अंगीकृत करके सार्वभौम संवैधानिक गणतंत्र बन गया। भारत ने कमोवेश अपनी सार्वभौमिकता बनाए रखी है। साम्राज्यवादी दबाओं के बाद भी अपनी स्वतंत्रता संप्रभुता को सुदृढ़ करता गया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बने दोनों वैश्विक खेमों से अलग एक स्वतंत्र गुटनिरपेक्ष आंदोलन का नेता बना।

विगत 77 वर्षों में कई उतार-चढ़ाव के बावजूद अभी तक लोकतंत्र को बनाए रखा है। तथा एक हद तक वैश्विक मापदंडों पर खरा उतरा है। हालांकि भारत में भी पिछले कुछ वर्षों से लोकतंत्र के कमजोर होने, उसकी परिधि के सिकुड़ने तथा एक धर्म राज्य के रूप में पतित होने के खतरे आजादी तथाकथित अमृत काल के बाद ज्यादा वास्तविक लगने लगे हैं। खैर यह एक अलग विषय है।

पाकिस्तान भौगोलिक सांस्कृतिक रूप से दो भिन्न क्षेत्रों को लेकर बना था। इसलिए उसके आंतरिक अंतर्विरोध बाद के समय में इतने सक्रिय हो गए कि पाकिस्तान का पूर्वी भाग अलग होकर बांग्लादेश के रूप में सर्वथा एक नया राष्ट्र-राज्य बन गया। आज वही बांग्लादेश जन विप्लव के दौर से गुजर रहा है।

उपनिवेशों के आजाद होने के बाद वहां दो तरह के शासक वर्ग बने। जिसमें एक निम्न पूंजीवादी शासक वर्ग था। जिसने सत्ता पाते ही ‌अपने देश में पूंजीपतियों नौकरशाहों और विदेशी शासकों यानी साम्राज्यवाद के साथ गठजोड़ के द्वारा राष्ट्र निर्माण का रास्ता चुना। दूसरे सर्वहारा के वर्ग दृष्टिकोण वाले समाजवादी देश। (इस आलेख में इनके संकटों कमजोरियों और सीमाओं पर चर्चा नहीं करेंगे) क्योंकि यहां हम भारतीय उपमहाद्वीप के तीसरे सबसे बड़े देश बांग्लादेश में घट रही रहे घटनाक्रमों तक ही अपने को सीमित रखना चाहेंगे।

उपनिवेशोत्तर दुनिया में दो अंतर्विरोध काफी सक्रिय थे। एक था अमेरिका के नेतृत्व में विश्व साम्राज्यवादी व्यवस्था के साथ सोवियत संघ के नेतृत्ववाली समाजवादी व्यवस्था। यानी पूंजीवाद बनाम समाजवाद। दूसरा-नव स्वतंत्र देश के शासक वर्ग के अपने देश की जनता के साथ अंतर्विरोध। यानी सामंती पूंजीवादी समाज के साथ मेहनतकश व उत्पीड़ित वर्ग का अंतर्विरोध। ठोस अर्थों में कहें तो श्रम के साथ पूंजी का अंतर्विरोध।

इस संघर्ष में अधिकांश नव स्वतंत्र देशों के शासक अपने वर्ग चरित्र के अनुकूल अमेरिकी साम्राज्यवादी खेमे के साथ आर्थिक राजनीतिक और रणनीतिक सहयोगी बने। फिर भी विश्व जनगण का केंद्रीय अंतर्विरोध ‌साम्राज्यवाद बनाम समाजवाद के बीच था। जिस संघर्ष को शीत युद्ध के नाम से जाना जाता है।

“एक कथन है कि युद्ध के बाद राजनीतिक संघर्ष तीखा हो जाता है। राजनीतिक संघर्ष जब सामाजिक-आर्थिक गुत्थियों को सुलझाने में जब असफल हो जाते हैं। तब प्रत्यक्ष युद्ध की शुरुआत होती है। इसलिए राजनीति भी युद्ध का ही एक जारी रूप है। जहां सामाज की जड़ों में सक्रिय अंतर्विरोध बहुत ही सूक्ष्म और तीव्रतम रूप में अभिव्यक्त होते हैं।”

अमेरिका के नेतृत्व में बने विश्व साम्राज्यवादी गठजोड़ ने दुनिया में खेमे बंदियां शुरू की। हालांकि 50 का दशक समाजवादी क्रांति के तूफानी काल का दशक था। इसलिए नव स्वतंत्र देशों के निम्न पूंजीवादी शासक वर्गों की कमजोर जन पक्षधरता और राष्ट्रीय हितों की रक्षा के ‌प्रति दृढ़ता के अभाव के चलते अमेरिका द्वारा इन्हें अपने पक्ष में जीत लेने में मदद मिली। संभावित समाजवादी क्रांतियों से डरे हुए इन शासक वर्गों को अमेरिका ने नई-नई सैनिक संधियों द्वारा अपने गठजोड़ में शामिल कर लिया।

भारतीय उपमहाद्वीप में पाकिस्तान अमेरिका की इसी कूटनीतिक रणनीति का केंद्र बना। जिस कारण से वहां लोकतंत्र को फलने फूलने में बधाएं आयीं। पाकिस्तान 1970 तक सैनिक शासकों के ही अधीन बना रहा। 1970 में हुए पाकिस्तान में चूनावके परिणाम स्वरूप विकसित हुए राजनीतिक घटनाक्रमों ने पाकिस्तान की भू राजनीतिक स्थिति को पलट दिया और इस संघर्ष से दिसंबर 71 और जनवरी 72 के दरम्यान बांग्लादेश अस्तित्व में आया।

तब से बांग्लादेश ने कई तरह के उथल-पुथल देखे हैं। बंगबंधु मुजीब और जनरल जियाउर रहमान की हत्या और तख्ता पलट ने बांग्लादेश में लोकतंत्र की जड़ों को भारी छति पहुंचाई। बाद के घटनाक्रमों में बांग्लादेश में लोकतंत्र धीरे-धीरे बहाल हुआ और जनरल जियाउर्रहमान की बेगम खालिदा जिया और‌ शहीद बंगबंधु शेख मुजीब की बेटी शेख हसीना अलग-अलग समय में बांग्लादेश की प्रधानमंत्री बनती रही।

ऐसा लगा कि अब बांग्लादेश लोकतांत्रिक पटरी पर धीरे-धीरे आगे बढ़ता रहेगा और उसकी जड़ें बांग्लादेश में इतनी मजबूत हो जाएगी कि उसे उखाड़ना आसान नहीं होगा। उसके कई कारण थे। एक-बंगाल में स्वतंत्रता संघर्ष की गौरवशाली परंपरा के कारण उपनिवेशवाद विरोधी गहरी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक चेतना। दूसरा-बंगाली नवजागरण से उपजा आधुनिक नागरिकता बोध। तीसरा -बंगाल की अपनी समृद्ध साझा सांस्कृतिक राजनीतिक विरासत।

इन सब सकारात्मक कारकों के योगफल से उम्मीद थी कि बांग्लादेश पाकिस्तान के उलट सैन्य इस्लामी राष्ट्र बनने से अलग जाकर मलेशिया सिंगापुर की दिशा में आगे बढ़ेगा और यहां लोकतंत्र का परचम लहराएगा। ऐसा दिखा भी था। कई उतार-चढ़ावों के बाद अंततोगत्वा बांग्लादेश लोकतंत्र के रास्ते पर लौट आया। जो पिछले 20 वर्षों से चल भी रहा था। इस कड़ी में 2009 में शेख हसीना चुनाव जीतकर बांग्लादेश की प्रधानमंत्री बनी। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि 2009 में शेख हसीना का चुनाव जीतना कमोबेश लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत संभव हुआ था। उस समय दक्षिणपंथी पार्टी बांग्लादेश नेशनलिस्ट की बेगम खालिदा जिया प्रधानमंत्री थी और सत्ता स्थानांतरण में कोई दिक्कत नहीं आई थी।

लेकिन जैसे ही शेख हसीना दूसरी बार जीत कर प्रधानमंत्री बनीं उनकी कार्यशैली उद्देश्य और लोकतांत्रिक संस्थाओं पर एकाधिकार करने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ती गई। यह वही दौर है जब उदारीकरण के बाद बांग्लादेश में नए तरह की आर्थिक समृद्धि देखी गई। वहां का गारमेंट उद्योग दुनिया का सबसे तेज गति से फलता फूलता उद्योग में बदल रहा था और बांग्लादेश मानव जीवन मूल्य सूचकांक के सभी पैमानों पर तेजी से ऊपर उठ ‌रहा था।

यहां तक कि वह भारतीय उपमहाद्वीप के सभी देशों को पछाड़ते हुए से तेज गति से प्रगति करने लगा। उदारीकरण निजीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों का स्वाभाविक परिणाम संपदा का कुछ हाथों में केंद्रीकरण व्यापक जनता का दरिद्रीकरण होता है। जिससे आर्थिक और राजनीतिक सत्ता का कुछ हाथों में सिमटती जाती है।

बेगम शेख हसीना के कार्यकाल में बांग्लादेश में जो कुछ घटित हो रहा था। उसके बारे में आमतौर पर भारतीय मीडिया में कम देखने सुनने को मिलता था। क्योंकि ऐसा माना जाता है की बांग्लादेश की सरकार भारत के साथ अपने स्वाभाविक मित्रवत संबंधों से बंधी हुई है।

2014 में भारत के सत्ता पर संघ नीति मोदी सरकार के आने के बाद भारत बांग्लादेश के बीच में रहस्यमय रिश्तों की एक पूरी श्रृंखला शुरू हुई। मोदी तथा उनके मित्र पूंजीपतियों के हितों के अनुकूल बांग्लादेश के साथ भारत के संबंधों को पुनर्परिभाषित किया जाने लगा। जिससे बांग्लादेश में हो रहे सत्ता के केंद्रीकरण लोकतंत्र के चीर हरण नागरिक अधिकारों पर हमले और जन आंदोलन जन संघर्षों के दमन की खबरें भारतीय समाचार पत्रों से गायब होने लगी।

शेष विश्व में बांग्लादेश में घट रही घटनाओं को लेकर रिपोर्टें छप रही थी। वहां चल रहे टारगेटेड क्रूर दमन और अवामी लीग के युवा वाहिनी के कृत्य, प्रशासन तंत्र के दुरुपयोग पुलिस की बर्बरता और समाचार पत्रों के मुंह बंद करने की घटनाएं कभी-कभी छनकर सामने आ जाती थी। लेकिन उन्हें सांप्रदायिक एंगल से ही भारत में पेश किया जाता था। जिससे शेख हसीना की छवि को स्वच्छ और लोकतांत्रिक बनाए रखा जा सके।

जिसका परिणाम हुआ कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं बाधित हो गई ।जनता के आक्रोश को अभिव्यक्ति देने के सबसे प्रभावशाली मंच चुनावी संस्थाओं का भी अपहरण कर लिया गया। 2024 के फरवरी में बांग्लादेश में जब चुनावहुआ तो सबसे बड़ी पार्टी बीएनपी ने उसका बहिष्कार किया।जमाते इस्लामी पर प्रतिबंध लग चुका था। बेगम खालिदा जिया को 17 साल की सजा देखकर जेल में डाल दिया गया था।

बड़ी संख्या में लोकतांत्रिक और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को दंडित किया जाने लगा। कट्टरपंथी ताकतें सकिय हो गई थी। कई लोकतांत्रिक प्रगतिशील यूट्यूबर समाचार संकलक हिंदू मुस्लिम पत्रकारों की हत्या कर दी गई। इसकी कुछ खबरें छनकर भारत भी आई थी। यहां तक की नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस को “जो इस समय वर्तमान सरकार की अगुवाई कर रहे हैं।”, भी भ्रष्टाचार के आरोप में सजा दे दी गई थी। जबकि माइक्रोफाइनेंस बैंक की उनके द्वारा बनाई गई आर्थिक नीतियों की ग्रामीण जीवन को बेहतर बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका थी। जिससे बांग्लादेश की महिलाओं में आर्थिक समृद्धि आई थी और वे गारमेंट उद्योग की रीढ़ बन गई थी।

इस तरह से विपक्ष के छोटे से छोटे केंद्र को ध्वस्त करने का हर संभव प्रयास किया गया और असहमति की आवाजों को कुचल दिया गया। पश्चिमी जगत से आ रहे समाचारों पर यकीन करें तो विरोधियों को दंडित करने के लिए यातना के नए-नए केंद्र बनाए गए। जहां विरोधियों को कैद कर दिया जाता था। कई तो गायब कर दिए गए। इस समय एक “मिरर हाउस” नाम के यातना गृह की चर्चा दुनिया भर में हो रही है।

2024 के फरवरी का चुनाव महज एक नाटक बन कर रह गया। “विपक्ष मुक्त बांग्लादेश” में चुनाव हुआ। बीएनपी ने चुनाव का बहिष्कार किया। जमाते इस्लामी पर प्रतिबंध लगा ही था। इसलिए शेख हसीना ने विपक्ष के तौर पर अपने ही लोगों को खड़ा कर चुनाव का प्रहसन कराया और भारी बहुमत से जीत कर सत्ता में बनी रहीं। विदेशी मीडिया और सरकारों ने बांग्लादेश को चेतावनी देकर लोकतंत्र के अपहरण पर चिंता जताई और इसे निष्पक्ष चुनाव मानने से इनकार कर दिया।

लेकिन अपने पड़ोसी देश में हो रहे लोकतांत्रिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं के खात्मे की जानकारी हम भारतवासियों के पास नहीं थी। शेख हसीना ने बांग्लादेश के लोकतंत्र को लोकतंत्त्रिक तानाशाही में बदल दिया था। 2024 में हुए चुनाव के परिणाम को बांग्लादेश की जनता ने स्वीकार नहीं किया। चुनाव में हुए भ्रष्टाचार से आक्रोश और विरोध अंदर अंदर बढ़ने लगा। इस बीच छात्रों युवाओं में बेरोजगारी चरम पर पहुंच गई। सामाजिक विषमता की खाएं तेजी से बढ़ रही थी और बांग्लादेश में मुट्ठी भर उद्योगपति सत्ता के संरक्षण में फल फूल रहे थे। संस्थाओं को कमजोर कर दिया गया था।

भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और मित्रवाद चरम पर था। विश्वविद्यालयों-कॉलेजों की स्थिति बदतर हो चुकी थी। नौकरियों के अभाव तथा भ्रष्टाचार के कारण कॉलेज और विश्वविद्यालय के छात्रों-युवाओं में हसीना सरकार के खिलाफ आक्रोश की आग धीरे-धीरे सुलगने लगी। एक खबर के अनुसार ‌भारत की तरह वहां भी 2012 से लगातार पेपर लीक हो रहे थे। छात्राओं व युवाओं ने जब भी इस पर आवाज उठाई तो युवा अवामी लीग के हथियारबंद गिरोह उन पर हमला करने लगे। यहां तक शिक्षकों और बुद्धिजीवियों को भी नहीं बक्शा गया।

जिस कारण विश्वविद्यालय और कॉलेज विरोध के केंद्र बने और छात्रा युवाओं ने इस आंदोलन की कमान संभाल ली। “यूथ अगेंस्ट डिस्क्रिमिनेशन” नाम से संगठन का निर्माण हुआ जिसने विरोध की आवाज बुलंद करना शुरू किया।

वर्तमान घटनाक्रम- बांग्लादेश में नौकरियों के आरक्षण कोटा को लेकर छात्रों में व्यापक आक्रोश था। 1971 के मुक्ति युद्ध के दौरान जिन परिवारों ने उनमें भागीदारी की थी उनके लिए 30% कोटा रिजर्व था। इसके अलावा विकलांगों के लिए एक प्रतिशत, स्वदेशी समुदाय के लिए पांच प्रतिशत, महिलाओं के लिए 10%,अविकसित जिलों के लिए 10% का आरक्षण कोटा निर्धारित किया गया था। योग्यता के आधार पर सिर्फ 44% सीट ही भारी जानी थी।

साल 2018 में छात्र समूहों द्वारा बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए। जिसके कारण हसीना सरकार ने कोटा खत्म कर दिया। फिर जून 2024 में हाई कोर्ट और बाद में बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के फैसले को पलट दिया और स्वतंत्रता सेनानियों के परिजनों के लिए 30% आरक्षण को खत्म करने को अवैध बताया। इसके बाद फिर से हसीना की सरकार ने आरक्षण की व्यवस्था को लागू कर दिया। इससे बांग्लादेश के युवा छात्र-छात्राएं भड़क गए और सड़कों पर उतर आए। इस आंदोलन पर भारी दमन हुआ और कुछ छात्र-छात्राएं मारी गई।

बांग्लादेश के विद्यार्थी पिछले एक महीने से अधिक समय से कोटा सिस्टम के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे थे। उनका कहना था कि योग्यता के आधार पर सिर्फ 44% युवाओं को सरकारी सेवाओं में नियोजित किये जाने से प्रतिभाशाली छात्र-छात्राओं का अवसर छिन जाएगा।

छात्रों का दूसरा आरोप था कि इस व्यवस्था द्वारा आगामी लीग की युवा शाखा के लोगों को सरकारी सेवाओं में नियोजित कर सरकार समानांतर व्यवस्था बना रही है। छात्रों का यह अनुभव था कि छात्र-युवा आंदोलन के दौरान युवा अवामी लीग के कार्यकर्ता आंदोलनकारी युवाओं पर पुलिस के साथ मिलकर जुल्म ढाते हैं और उनके आंदोलन को असफल करने की कोशिश करते हैं।

जून से ही आंदोलन शांतिपूर्ण ढंग से चल रहा था। कोर्ट ने भी कोटा को घटकर 10% कर दिया। लेकिन तब तक परिस्थितियों आगे निकल गई थी। 15 जुलाई को छात्रों के ऊपर दमन शुरू हो गया जिसमें भारी तादात में नौजवान मारे गए। प्रशासनिक पुलिस अधिकारियों के साथ झड़पें होने लगीं। यहां से आंदोलन का स्वरूप बदल गया और छात्रों-युवाओं महिलाओं तथा व्यापक नागरिक समाज के निशाने पर हसीना सरकार आ गई। आंदोलन की मुख्य माग हसीना सरकार के इस्तीफे के रूप में ठोस हो गई।

विरोध प्रदर्शन और आंदोलन को समाप्त कराने के लिए 15 जुलाई के बाद हसीना सरकार ने छात्रों और आंदोलनकारियों के समक्ष वार्ता का प्रस्ताव रखा। जिसे छात्रों ने ठुकरा दिया। बढ़ते विरोध प्रदर्शन और हिंसक घटनाओं के मध्य बांग्लादेश में 4 अगस्त 2024 रविवार का दिन निर्णायक साबित हुआ।

जब हिंसक हमले में 14 पुलिसकर्मी सहित 90 से अधिक लोग मारे गए और 300 से अधिक नौजवान तथा नागरिक घायल हुए। बांग्लादेश जुलाई के पहले सप्ताह से ही आरक्षण के खिलाफ हिंसक प्रदर्शनों की चपेट में था। एक रिपोर्ट के अनुसार रविवार के विरोध प्रदर्शन से पहले 200 से ज्यादा लोग मारे जा चुके थे और 1200 से ज्यादा घायल हुए थे।

अंत में 5 अगस्त का वह निर्णायक दिन आया जब आंदोलनकारी छात्र युवाओं के साथ व्यापक नागरिक समाज और महिलाओं के संगठनों ने प्रधानमंत्री के त्यागपत्र की मांग के साथ प्रधानमंत्री के आवास के घेराव का ऐलान कर दिया और लाखों की तादाद में बांग्लादेश के सुदूर इलाकों से छात्र, नौजवान, नागरिक ढाका में निर्दिष्ट जगह पर इकट्ठा हो गए। ज्यों ही प्रदर्शन वहां से आगे बढ़ा तो शेख हसीना ने हाई पावर अधिकारियों की मीटिंग बुलाई। जिसमें सेना और पुलिस के अधिकारी शामिल थे।

सेना अध्यक्ष ने प्रधानमंत्री के समक्ष त्याग पत्र देने का सुझाव दिया। उन्होंने स्थिति की गम्भीरता और जटिलता को देखते हुए प्रधानमंत्री से कहा कि आपके पास से 45 मिनट है। आप त्यागपत्र दे दें और किसी भी स्थिति में 45 मिनट के अंदर देश छोड़ दें। उनके जिद करने पर उनकी बेटी और बाद में उनके बेटे के साथ वार्ता कराई गई और इस तरह शेख हसीना को वायुसेना के हेलीकॉप्टर पर बिठाकर भारत रवाना कर दिया। जो नोएडा के एक सैनिक हवाई अड्डे पर उतरा।

इस प्रकार बांग्लादेश के अंदर चल रहे छात्र-युवा आंदोलन का एक चरण पूरा हुआ और निरंकुश हो चुकी जन विरोधी प्रधानमंत्री शेख हसीना को बांग्लादेश छोड़कर भारत में शरण लेनी पड़ी। जब इस घटना की खबर भारत में पहुंची तो भारतीय नागरिक आश्चर्यचकित थे। अभी थोड़े दिन पहले ही तो शेख हसीना भारत आकर गई थी और भारत में उनका जोरदार स्वागत हुआ था।

व्यापक जन विप्लव के दबाव में शेख हसीना सरकार का पतन हो चुका था। उन्हें भारत में अस्थाई शरणार्थी के रूप में रुकने की इजाजत मिल गई है। बांग्लादेश के छात्रों की मांग पर नोबेल पुरस्कार विजेता मोहम्मद यूनुस को कार्यकारी निकाय बनाकर देश की सत्ता बागडोर उनके हाथ में सौंप दी गई है। उन्होंने छात्रों विशेषज्ञों और गण मान्य लोगों को लेकर 16 सदस्यीय एक कमेटी बनाई है। जो धीरे-धीरे अपना काम संभाल रही है।

अभी 3 दिन पहले खबर आई है कि उन्होंने इस कमेटी का विस्तार करके 18 सदस्यीय कर दिया है। देश अभी उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है। राजनीतिक संघर्ष चरम पर पहुंच चुका है। विश्व साम्राज्यवादी महाशक्तियां खेल खेलने में लगी है। बांग्लादेश की राजनीतिक दिशा किस करवट बैठेगी। यह चल रहे संघर्ष के अंदर की मौजूद लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष जनपक्षधर ताकतों की सांगठनिक एकता और वैचारिक दक्षता पर निर्भर करेगा।

जारी…
(जयप्रकाश नारायण किसान नेता और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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