डॉ. विकास मानव
परम आनंद ध्यानयोग की भी मंज़िल है और सम्भोगयोग की. आज के दौर मे सम्भोगयोग की साधना असंभव जितनी मुश्किल है. दुराचार, बदचलनी, नामर्दी सब चरम पर है इसलिए. इसलिए यहाँ मै आपका ध्यान ‘ध्यानयोग’ पर ला रहा हूँ. सम्भोगयोग की पात्रता के अभिप्सु कपल्स मुझ से कॉन्टेक्ट कर लेंगे.
योगसूत्र 1.2 में पतंजलि कहते हैं : योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः’ चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है।
चित्त की वृत्तियों के निरोध से तात्पर्य चित्त की वृत्तियों के सर्वथा रुक जाने से है। जब चित्त की वृत्तियों का निरोध हो जाता है, तभी साधक के भीतर योग घटित होता है।
योग घटित होने का आशय है कि चित्तवृत्तियों का निरोध होते ही उस समय द्रष्टा (आत्मा) की अपने स्वरूप में स्थिति हो जाती है। आत्मा की अपने स्वरूप में स्थिति से तात्पर्य है कि आत्मा अपने वास्तविक सच्चिदानंदस्वरूप को जान लेती है, पहचान लेती है और उसी स्वरूप में वह अवस्थित हो जाती है।
अहं ब्रह्मास्मि (मैं ब्रह्म हूँ), अयमात्मा ब्रह्म (यह आत्मा ही ब्रह्म है) की अनुभूति आत्मा को होती है।
यह स्थिति, यह अनुभूति ही योग है, समाधि है, मोक्ष है, आत्मसाक्षात्कार है, ब्रह्मसाक्षात्कार है। इस स्थिति में साधक सभी प्रकार के द्वंद्वों, दुःखों, बंधनों से मुक्त होकर परमानंद, ब्रह्मानंद की अवस्था को प्राप्त हो जाता है।
इस अवस्था में जीव और ब्रह्म का भेद मिट जाता है और जीव ब्रह्म में विलीन हो जाता है। जीव ब्रह्म के साथ एकाकार हो जाता है।
ब्रह्म आनंदमय है, इसलिए यह योगावस्था, मोक्षावस्था भी आनंदमय है। ब्रह्म का साक्षात्कार ही मानव जीवन का चरम लक्ष्य है। ब्रह्मसाक्षात्कार होने पर ही साधक को शाश्वत सुख, ब्रह्म सुख की प्राप्ति होती है और वह सभी प्रकार के दुःखों, द्वंद्वों, कर्मसंस्कारों व जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है।
ब्रह्मसाक्षात्कार हो जाने पर साधक संसार में रहता है, पर संसार उसमें नहीं रहता। वह निर्विकार, निर्दोष, निर्द्वंद्व, निर्भार और निर्भय हो जाता है। उसे यह संसार भी ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति के रूप में जान पड़ता है और वह संसार में ब्रह्मभाव में रहता हुआ, ब्रह्मदृष्टि से संसार को देखता हुआ, जानता हुआ, अनुभव करता हुआ तदनुरूप लोक-व्यवहार करता है।
वह कर्म करता है, पर हर कर्म को ब्रह्मदृष्टि से करता है और उसे ब्रह्म (ईश्वर) को ही अर्पण करता जाता है। इसलिए उसका कर्म भी अकर्म होता जाता है। आत्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान ही, अनुभूति ही योग है, मोक्ष है, मुक्ति है, समाधि है, निर्वाण है, कैवल्य है। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि जब आत्मा स्वभावतः नित्य, मुक्त, शुद्ध चैतन्य और ब्रह्म का अंश है तो फिर आत्मा बंधन में क्यों और कैसे पड़ती है? ‘मैं ब्रह्म हूँ,’ या ‘आत्मा ही ब्रह्म है’ इसकी अनुभूति जीवात्मा को स्वतः ही क्यों नहीं होती ?
यह सत्य है कि आत्मा नित्य, मुक्त, शुद्ध चैतन्य, अविनाशी और ब्रह्म का अंश है। सच पूछा जाए तो आत्मा बंधन में नहीं पड़ती है, बल्कि उसे बंधन में होने का भ्रम हो जाता है। आत्मा अकर्त्ता है, क्योंकि वह प्रकृति और उसके व्यापारों की द्रष्टा मात्र है। चैतन्य उसका स्वभाव है।
सांख्य दर्शन के अनुसार पुरुष (आत्मा) और प्रकृति के आकस्मिक संबंध से बंधन का प्रादुर्भाव होता है। पुरुष (आत्मा) बुद्धि, अहंकार और मन से भिन्न है, परंतु अज्ञान के कारण वह अपने को उन वस्तुओं से पृथक नहीं समझ पाता है।
इसके विपरीत वह स्वयं को बुद्धि या मन से अभिन्न समझने लगता है। सुख और दुःख बुद्धि या मन में समाविष्ट होते हैं। अस्तु पुरुष (आत्मा), जीवात्मा, अपने को बुद्धि या मन से अभिन्न समझकर दुःखों का अनुभव करता है। इसकी व्याख्या एक उपमा से की जा सकती है।
जिस प्रकार एक सफेद, पारदर्शी स्फटिक; लाल पुष्प की निकटता से लाल दिखाई देता है, उसी प्रकार नित्य और मुक्त आत्मा, जीवात्मा पुरुष अपने को शरीर, बुद्धि, अहंकार, मन तथा इंद्रियों से युक्त समझने लगता है तथा सुख-दुःख की अनुभूति स्वयं करने लगता है।
जिस प्रकार एक पिता अपने पुत्र की सफलता और अपने पुत्र के सुख को देखकर सुखी होता है और अपने पुत्र की असफलता और दुःख से दुःखी होता है; वैसे ही शरीर, मन, बुद्धि, अहंकार और इंद्रियों से तादात्म्य स्थापित कर लेने के कारण शरीर और मन के सुख-दुःख को जीवात्मा स्वयं का सुख-दुःख समझने लगती है। यही बंधन है और यही दुःख का कारण है।
माया, भ्रम, अज्ञान, अविद्या के वशीभूत होकर आत्मा बंधनग्रस्त हो जाती है और अपने वास्तविक सच्चिदानंदस्वरूप को भूल जाती है और फलस्वरूप तब तक द्रष्टा, जीवात्मा अपने चित्त की वृत्ति के अनुरूप ही अपना स्वरूप समझती रहती है और उसे अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान नहीं होता और वह दुःख और बंधन से ग्रसित हो जाती है और दुःख पाती है, जीवन और मरण के चक्र में पड़ी रहती है। इसलिए चित्तवृत्तिनिरोधरूप योग मनुष्य का परम कर्त्तव्य है।
‘चित्त की वृत्तियों विरोध’ का मतलब है चित्त की चंचलता, चपलता का पूर्णरूपेण अंत हो जाना। चित्त का प्रयोग सामान्य तौर पर ‘मन’ के लिए किया जाता है जबकि मन, बुद्धि और अहंकार का समुच्चय चित्त है। ये अत्यंत ही चंचल है। अतः स्वरूप बोध के लिए इसका निरोध अत्यंत ही आवश्यक है।
चित्त की वृत्तियों का मतलब है चित्त अथवा मन में उठने वाली अच्छे-बुरे, शुभ-अशुभ संस्कारों, स्मृतियों, कामनाओं, वासनाओं, इच्छाओं, विचारों की लहरें। मन में उठने वाले संकल्प-विकल्प की लहरें ही वृत्तियाँ हैं। मन में उठ रही इन लहरों का सदैव के लिए मिट जाना ही चित्त की वृत्तियों का निरोध है।
जब तक चित्त में, मन में ये लहरें उठ रही हैं तब तक द्रष्टा, जीवात्मा को अपने वास्तविक सच्चिदानंदस्वरूप का बोध नहीं हो सकता। जैसे जब तक समुद्र में तेज लहरें उठ रही हैं, तब तक आकाश में उगे हुए पूर्ण चंद्रमा का प्रतिबिंब समुद्र में स्थिर नहीं हो सकता; क्योंकि लहरें उसे स्थिर होने या टिकने ही नहीं देतीं, पर समुद्र की लहरों के शांत होते ही आकाश के चंद्रमा का पूर्ण प्रतिबिंब समुद्र के अंदर भी पूर्णरूपेण स्थिर दिखाई पड़ने लगता है और तब उसे देखकर, उसके सौंदर्य को देखकर मन आह्लादित हो उठता है।
वैसे ही जब योग साधनों के निरंतर अभ्यास से चित्त में, मन में उठ रही लहरें पूर्णरूपेण मिट जाती हैं, तब मन निर्मल हो जाता है, मन मिट जाता है, मन अ-मन हो जाता है तब द्रष्टा को स्वरूप बोध होता है। चित्त की वृत्तियों का निरोध ज्ञान, कर्म, भक्ति आदि योग साधनों के निरंतर अभ्यास से ही संभव हो पाता है।
ज्ञान, कर्म, भक्ति, स्वाध्याय, जप, तप, ध्यान, अभ्यास-वैराग्य आदि योग साधनों से ही चित्त की वृत्तियों का निरोध होता है और आत्मा पर चढ़े हुए अज्ञान, अविद्या, माया, भ्रम के आवरण मिट जाते हैं तथा जीवात्मा को अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप का बोध होता है।
जब तक आकाश बादलों से आच्छादित रहता है तब तक सूर्य का प्रकाश छिपा रहता है, पर आकाश में आच्छादित बादलों के छँटते ही पूरा आकाश सूर्य के प्रकाश से जगमगा उठता है। वैसे ही आत्मा पर छाए अज्ञान, अविद्या, माया, भ्रम के आवरण के छँटते ही आत्मा अपने शुद्ध, चैतन्यस्वरूप को प्राप्त कर लेती है।
यह अवस्था ही योग की अवस्था है। यह सुख-दुःख से परे परमानंद, ब्रह्मानंद की अवस्था है। अद्वैत वेदांत के अनुसार यह जीव और ब्रह्म, आत्मा और ब्रह्म की अभिन्नता, एकता और अद्वैतता के ज्ञानबोध की अवस्था है।