Site icon अग्नि आलोक

*स्त्री- पुरुष के संबंध का दार्शनिक- वैज्ञानिक सच

Share

 डॉ. विकास मानव*

      _एक वास्तविक पति चाहे जितना बड़ा हो जाये, अंततः पत्नी के समक्ष शिशु ही बना रहता है। ईश्वर की सृष्टि में पति-पत्नी का रिश्ता एक आत्मा, एक मन और एक ही विशेषताओं के प्राणों का है। तात्पर्य यह कि इन दोनों के लिए एक आत्मा, एक मन और एक ही जैसे प्राण आविर्भूत करके ब्रह्माण्ड में भेज दिए। एक का पुरुषतत्व प्रधान खण्ड और दूसरे का स्त्रीतत्व प्रधान खण्ड।_

        दुर्योग से वे किसी कारण-परिणाम के चक्र में पड़कर काल-खंड में पृथक-पृथक हो गए और तभी से वियोग में व्याकुल होकर बार-बार जन्म-मरण के चक्कर काटते हुए अपने खंडों की खोज में बराबर भटक रहे हैं। स्त्री-पुरुष विवाह तो करते हैं अपने-अपने खण्डों की खोज में लेकिन न आत्मखण्ड मिलते हैं, न मनखण्ड और न प्राण ही। परिणाम यह होता है उनमें मतभेद रहता है, विचरभेद रहता है।

       _शक्ति और तत्व की दृष्टि से आंतरिक शक्ति में स्त्री या पत्नी में पुरुष से अधिक सहनशक्ति, धैर्य, शांति और दया, करुणा विद्यमान है और इसिलए जब दोनों में वर्चस्व का प्रश्न आता है तो पुरुष पत्नी के सामने शिशु सिद्ध होता है जिसे वह अपनी बुद्धि-कौशल से प्रेम, स्नेह, सौहार्द में बदलकर रिश्ते की गरिमा  बनाये रखने में सफल रहता है।_

*स्त्री के विविध रूप :*

      उपनिषद का एक सूत्र है-

_एकोSहम् बहुस्याम्।_

    _परब्रह्म की इच्छा है–मैं एक अनेक रूप हो जाऊं। संसार में जन्म लेकर स्त्री ने इस सूत्र को चरितार्थ किया। यह निर्विवाद सत्य है कि ब्रह्म निरपेक्ष है। लेकिन उसकी इच्छा, उसकी योजना माया सम्पन्न करती, शक्ति पूर्ण करती है। पृथ्वी पर स्त्री माया स्वरूपा है, शक्तिस्वरूपा है। स्त्री माँ रूप, पत्नी का रूप, प्रेमिका का रूप, बहन का रूप धारण कर सभी की भूमिकाओं को, सभी किरदारों को बखूबी जीती है।_

     स्त्री (जिसमें सच में स्त्रित्व हो) एक्टिंग नहीं करती, बल्कि वह अपनी रूह डालकर हर किरदार को जीवंत बना देती है।

      *इंसानी देह की खासियत :*

      व्यक्ति वृहत समाज की सबसे छोटी इकाई है। व्यक्ति-व्यक्ति से समाज बना और समाजों से गांव, कस्बे, शहर और अन्त में बना देश। देश या राष्ट्र कोई भौगोलिक क्षेत्र नहीं है।

      _उसका निर्माण होता है नागरिकों से। इन सबके मूल में है परब्रह्म परमात्मा की इच्छा, प्रेरणा और अनुकम्पा। मनुष्य इस संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। मनुष्य इसलिए मनुष्य है, क्योंकि उसके पास ‘मन’ है। मन संसार में किसी प्राणी को उपलब्ध नहीं है सिवाय मनुष्य के। मनुष्य ही मनुज है क्योंकि वह देवपुरुष ‘मनु’ की सन्तान  है।_

      चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद यह चौरासी अंगुल का मानव शरीर जीवात्मा को मिला है। भारतीय मनीषियों ने मानव शरीर की श्रेष्ठता स्वीकार की है। उसकी एक विशेषता 

 यह है कि जो समस्त विश्व की नियंत्रणकारिणी शक्ति है, उसकी सर्वश्रेष्ठ लीलाएं मानव शरीर के आश्रय से ही प्रकट होती हैं।

     परमात्मा के तो वैसे अनेक अवतार हुए हैं किन्तु जो अवतार सर्वाधिक माननीय हैं, राम, कृष्ण और बुद्ध के जिनके आश्रय से इन काल-खण्डों की समस्त धर्म-साधनाएं विकसित हूईं। 

      दूसरी विशेषता यह कि जगन्नियन्त्रणकारिणी शक्ति जिसे महामाया, आदिशक्ति, पराशक्ति, प्रकृति, स्त्री, शक्ति आदि विभिन्न नामों से पुकारा जाता है और जो घट-घट में, अणु-अणु में व्याप्त है, लेकिन मानव शरीर ही एक ऐसा केंद्र है जिसका आश्रय करके वह अपने आपको पूर्ण रूप से प्रकाशित कर सकने में समर्थ होती है वह।

तीसरी विशेषता : इन्हीं तत्वों से मानव शरीर की भी रचना हुई। जो शरीर में है, वह ब्रह्माण्ड में है और जो ब्रह्माण्ड में है, वह सब शरीर में भी है। प्रत्येक प्राणी, प्रत्येक जीव उस परम शक्ति का विचार, इच्छा, ज्ञान, क्रिया, अनुभूति आदि के रूप में हर क्षण अनुभव करता है।

      _मानव पिण्ड स्थित जगन्नियंत्रणकारिणी महाशक्ति का मुलकेन्द्र है जहां से खण्ड-खण्ड होकर ज्ञान ,विज्ञान, विचार, इच्छा, क्रिया आदि रूपों में प्रकाशित होती है वह।_

*नारीत्वयुक्त नारी नारायणी का स्वरूप :*

      अखिल विश्व में चैतन्य और क्रियाशील महाशक्ति का एक केंद्र है नारी, मगर इस रहस्य से बहुत कम लोग परिचित होंगे कि पुरुष से अधिक स्त्री क्यों अधिक सुन्दर, सुडौल और आकर्षक दिखलायी पड़ती है ?

      _स्त्री के व्यक्तित्व भीतर ऐसा कौन-सा तत्व है जो आनन्द के लिए मनुष्य को प्रेरित ही नहीं करता बल्कि आकर्षित भी करता है ?_

      इसका एक महत्वपूर्ण कारण है कि जिसकी हम साधारण जन कल्पना भी नहीं कर सकते। 

*पहली विशेषता :*

      ब्रह्म मुहूर्त में मनुष्य के मुख में ढाई (2.5) बून्द अमृत-क्षरण होता है जिससे उसे जीवनी शक्ति मिलती है। एक बूंद उसके मुंह में गिरती है जिससे उसकी लार बनती है। दूसरी बून्द हृदय में आती है, जिससे उसका हृदय धड़कता है और उसकी श्वास चलती है और आधी बून्द उसकी नाभि में आती है जिससे भोजन पचाने की क्रिया होती है।

     _स्त्री के मुख में मनुष्य की तुलना में ढाई बून्द के बजाय साढ़े तीन बून्द (3.5,) अमृत-क्षरण होता है। ढाई बून्द का उपयोग स्त्री का पुरुष की तरह ही होता है। एक बूंद उसके लिये विलक्षणता उतपन्न करके स्त्री के भीतर पुरुष में भिन्नता ले आती है। वह एक बूंद उसकी नाभि से होती हुई समस्त अंग-प्रत्यंग में आकर सौंदर्य, स्निग्धता, कोमलता,आकर्षण और साथ ही स्त्री के भीतर एक गन्ध उत्पन्न करती है।_

       उस स्त्री-गन्ध को हमारे विद्वानों ने #पुष्पली #गन्ध कहा है। उसी पुष्पली गन्ध से सारे पुरुष स्त्री की ओर अनायास आकर्षित होते हैं। सभी मादा जीवों में वह पुष्पली गन्ध पाई जाती है जिसके कारण विशेष क्षणों में नर जीव मादा जीव की ओर आकर्षित हो जाते हैं।

      _पुरुषों के अन्दर स्त्रियों के लिए एक नैसर्गिक आकर्षण उसी पुष्पली गन्ध के कारण रहता है जिसे यह निरीह नर समझ नहीं पाता और स्त्री की ओर खिंचने लगता है।_

       परिणाम यह होता है वह बेचारा समाज, संस्कार और अप्रिय वर्जनाओं की प्रताड़ना का शिकार हो जाता है। 

*एक अलग तथ्य :*

      विज्ञान के अनुसार जब एक परमाणु को तोड़ा जाता है तो वह तीन भागों में विभाजित हो जाता है–प्रोटॉन, न्यूट्रॉन और इलेक्ट्रान। प्रोटोन धन आवेश युक्त एक तरंग है, इलेक्टॉन ऋण आवेश युक्त तरंग है और न्यूट्रॉन अवेशविहीन तरंग है।

       _प्रोटोन और न्यूट्रॉन न्यूक्लियस (केंद्र) में रहते हैं और इलेक्ट्रॉन परमाणु की परिधि पर बराबर चक्कर लगाते हैं। प्रोटोन धनात्म और पुरुषवाची है और इलेक्ट्रॉन ऋणात्मक और स्त्रीवाची है। इसलिए ही इलेक्ट्रान प्रोटोन के चक्कर काटते हैं। न्यूट्रॉन न्यूट्रल और ब्रह्मस्वरूप है। वह प्रोटोन के साथ ही है।_

        प्रोटोन और न्यूट्रॉन– दोनों स्थितिशील ऊर्जा के रूप हैं और इलेक्ट्रॉन गतिशील ऊर्जा के द्योतक। जैसे किसी उपवन में एक पेड़ है और उस पेड़ पर कोई बेल पेड़ को अपने आगोश में लेकर चिपटती हुई ऊपर को चढ़ती है।

       इलेक्ट्रान और बेल में गतिशील ऊर्जा संचारित है जो कि शक्ति ( प्रकृति) की प्रतीक है. पेड़ और प्रोटोन अपने स्थान पर स्थिर हैं जो स्थितिशील ऊर्जा के प्रतीक है जो शिव है– युगों-युगों से तपस्या में लीन, समाधि में लीन। 

*दूसरा तथ्य :*

      अब हम दूसरे पहलू पर विचार करते हैं गर्भ में जो भ्रूण की रचना होती है, उसे हम एटॉमिक बॉडी कहते हैं। उसमें 24 जीवाणु पुरुष के और 24 जीवाणु स्त्री के होते हैं। इन 24 + 24 = 48 जीवाणुओं के मिलन से पहली कोशिका निर्मित होती है और इस पहली कोशिका से जो प्राण पैदा होता है, उससे फीमेल भ्रूण  बनना शुरू होता है।

      _24 + 24 = 48 की यह संतुलित कोशिका है जिससे स्त्री शरीर की रचना होती है।_

      पुरुष शरीर की रचना के लिए जो जीवाणु होता है, वह 47 जीवाणुओं का होता है। उसके सन्तुलन में एक तरफ 23 और एक तरफ 24 जीवाणु होते हैं। (X स्त्री के =24 और पुरुष के Y=23)।

     _बस, यहीं से पुरुष के व्यक्तित्व में सन्तुलन टूट जाता है। स्त्री का व्यक्तित्व सन्तुलन की दृष्टि से बराबर है और इसीलिए स्त्री में अनिर्वचनीय सौंदर्य है, स्निग्धता है, कोमलता है,  सुडौलता है और चुम्बक की तरह आकर्षण उसके व्यक्तित्व में पैदा हो जाता है।_

      पुरुष स्त्री के समीप आते ही अनजाने ही उसकी ओर खिंचने-सा लगता है जिसका कारण वह स्वयं नहीं जान पाता। उसे ऐसा लगता है कि स्त्री के और निकट जाने पर उसे कोई अनिर्वचनीय सुख, अनिर्वचनीय शांति और अनिर्वचनीय आनन्द की अनुभूति होगी।

*मौलिक विभिन्नताएं :*

      दो छोटी छोटी विशेषताएं जो पुरुष की तुलना में स्त्री में अलग होती हैं, जो पुरुष और स्त्री में मौलिक भिन्नता ले आती हैं।

1- पुष्पली गन्ध और

 2- 48 जीवाणुओं की कोशिका।

*रस-सिद्धांत :*

      हमारे प्राचीन मनीषियों ने साहित्य में सुखानुभूति के लिए ‘रस-सिद्धान’ को जन्म दिया था। सुंदरता, मधुरता, स्निग्धता सुख की उद्दीपक है। अतः सौंदर्य-शास्त्र को काम-परम्परा की विचारधारा के अन्तर्गत रखा जा सकता है। कविता, नाटक, कला, चित्रकला, गायन, वादन, नृत्य आदि इसी के अंग हैं और रस-सिद्धान्त के अन्तर्गत आते हैं।

    _सभी में काम की पूर्ति होती है। शिशु का माता के प्रति जो अनजाना-सा आकर्षण है, जो नैसर्गिक है, वह भी अप्रत्यक्ष रूप से कामजन्य ही है।_

      वह माता की गोद में जाना चाहता है, सीने से लगना चाहता है और दूध पीना चाहता है, सभी के पीछे वही छिपा हुआ कामजन्य तथ्य है जिससे शिशु अभी अपरिचित है।

*काम महत्वपूर्ण पुरुषार्थ :*

      वैदिक वाङ्गमय में जो चार पुरुषार्थ बतलाये गए हैं, उनमें ‘काम’ को भी एक पुरुषार्थ माना गया है। यह ध्रुव सत्य है कि काम पुरुषार्थ सफल होने पर ही चौथे पुरुषार्थ ‘मोक्ष’ की उपलब्धि हो सकती है, इससे पहले नहीं। तन्त्र में काम को साधना के रूप में स्वीकार किया गया है।

      _जैसे पुरुष के लिए जीवन में दूसरे पुरुषार्थ ‘अर्थ’ की हर समय आवश्यकता पड़ती रहती है, उसी तरह तीसरा पुरषार्थ ‘काम’ भी उतना ही आवश्यक और महत्वपूर्ण है। लेकिन डोंगी पाखंडी और सत्य से मुँह मोड़ने वाले कमजोर समाज ने उसे निकृष्ट मानकर उसे त्यागने की बार-बार प्रेरणा दी है।_

       मगर यह परम सत्य है कि योग-तांत्रिक साधना-परम्परा में ‘काम’ को धर्म-साधन का एक आवश्यक उपकरण माना गया है। इस महत्वपूर्ण उपकरण की अवहेलना अवांछनीय है। क्योंकि समस्त सृष्टि के मूल में ‘काम’ ही है।

        _इसलिए वैदिक काल में ‘काम’ को ‘आदिदेव’ की संज्ञा मिली। काम की जो निज शक्ति है, उसे संज्ञा मिली–‘रति’ की। काम पुरुषवाचक और रति स्त्रीवाचक है। एक की अभिव्यक्ति पुरुष में और दुसरी की अभिव्यक्ति स्त्री में होती है। तन्त्र में शिव और शक्ति के लिए ‘कामेश्वर’ और ‘कामेश्वरी’ शब्दों का प्रयोग किया गया है क्योंकि दोनों ‘आदिकाम’ है।_

       दोनों के मिथुन भाव से सृष्टि का आरंभ हुआ है। सारे संसार के मूल में शिव-शक्ति का ही मिथुन सम्बन्ध है–

   _”शिवशक्तिसमायोगाद् जायते सृष्टि कल्पना।”_

     -तन्त्र-मत में आदिवासना निस्संदेह वही है जो आध्यात्मिक रूप में पुरुष और प्रकृति के सम्बन्ध में या आकर्षण में द्योतित होती है और स्त्री-पुरुष के शारीरिक संसर्ग में परिणत होती है। विश्व का आविर्भाव ‘स्त्रीतत्व’ और ‘पुरुषतत्व’ के संयोग से हुआ है। परमात्मा ‘शिव’ है और परनेश्वरी ‘शिवा’ है।

      _पुरुष मरमेश्वर है और स्त्री (प्रकृति या शक्ति) परमेश्वरी है। सभी पुरुष परमेश्वर हैं और सभी स्त्रियां परमेश्वरी हैं-_

“पुरुषः परमेशान:

 प्रकृति: परमेश्वरी।

शंकर: पुरुषा: सर्वे 

स्त्रियः सर्वा: महेश्वरी।”

  दोनों के बीच आकर्षण है और आकर्षण की परणति संसर्ग में होती है।

       *’काम’  किसे कहते हैं ?*

      काम से तात्पर्य निकलता है–इन्द्रियों की संतुष्टि की अभिलाषा से। दस इंद्रियां होती हैं। पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच कर्मेन्द्रियाँ। ज्ञानेन्द्रियाँ बुद्धीन्द्रिय हैं। इनके द्वारा मनुष्य को अनुभव और बोध प्राप्त होता है।

       _कर्मेन्द्रयों द्वारा मनुष्य कार्यरत होता है। रही मन की बात तो मन दसों इंद्रियों से अलग है। वह उनका स्वामी है। सभी इंद्रियां उसके नियन्त्रण में हैं।_

 तैत्तरीय उपनिषद में कहा गया है–

“आत्मा मनोमयः।”

आगे कहा गया है-

“आत्मानं रथिनं विद्धि

शरीरं रथमेव तु। 

बुद्धिं तु सारथिम् विद्धि 

मनः प्रग्रहमेव च।।

(प्रग्रह=लगाम )

“इंद्रियेभ्य: परं मनो।”

( इंद्रियों से मन अलग है। )

      जैविक आवश्यकता उत्पन्न होने पर जीवात्मा में जो शक्ति प्रवाहित होती है उससे जो तनाव उत्पन्न होता है, उसका निरसन इंद्रियों द्वारा ही होता है।

      _तनाव के निरसन से जो तुष्टि की अवस्था आती है, उससे सुख का अनुभव होता है। भूख लगना तनाव है, प्यास लगना तनाव है। अन्न-जल लेने से तुष्टि होती है। एक ओर सभी इंद्रियों का सम्बन्ध शरीर से है और दूसरी ओर उनका सम्बन्ध मन से है।_

      यही कारण है कि इन्द्रियाँ और उनकी नैसर्गिक क्रियाएं शारीरिक और मानसिक सुख की आधार है।

*यौन ऐषणा :*

      तन्त्रशास्त्र ने काम को मनोविज्ञान के सिद्धांतों के संदर्भ में स्पष्ट किया है। उसके अनुसार काम का तात्पर्य उन ऐषणाओं से है जो मनुष्य में भोग के लिए, जीवन के लिए तथा इंद्रियों की सन्तुष्टि के लिए होती हैं।

      _इन्हीं ऐषणाओं में ‘यौन ऐषणा’ भी है जसके लिए अधिकांशतया ‘काम’ शब्द का प्रयोग होता है।_

      काम-तृप्ति आवश्यक है, वांछनीय है। काम-तृप्ति के बिना न तो जीवन तथा समाज धारण हो सकता है और न हो सकता है धारण धर्म ही। धर्म, अर्थ और काम– इन तीनों पुरुषार्थों की साधना का स्वाभाविक परिणाम है–सुख।

      _सुख ‘स्व’ की एक विशेषता है। सुख एक ओर मन की विशेष अवस्था है और दूसरी ओर है जीवन का आधार। लेकिन अपने इन लौकिक पहलुओं के साथ जहां सुख इहलौकिक है, वहीं पारलौकिक भी है। सुख का एक रूप शारीरिक है और दूसरा है मानसिक।_

       काम की अभिव्यक्ति स्वाभाविक है क्योंकि काम जीवन का आदर्श है। काम का दमन व्यक्तिगत और सामाजिक वर्जनाओं और अव्यवस्थाओं को न सिर्फ प्रोत्साहित करता है, बल्कि उन्हें जन्म भी देता है जो आगे चलकर भयंकर रूप धारण कर लेता है।

      _ऐसी ही भयंकर स्थितियों से बचने के लिए हमारे प्राचीन समाज ने गणिकाओं की अवधारणा की थी और उसकी समुचित व्यवस्था युक्तिसंगत मानी गयी थी। गणिका के प्राचीन और नवीन कई रूप हैं–प्रेमिका, देवदासी, नगरवधू, विषकन्या, आम्रपाली, कॉलगर्ल आदि।_

      live in relationship भी इसी का अधुनातन रूप है जो महानगरों में बहुतायत में देखने को मिल रहा है। इसमें युगल बिना विवाह किए शादीसुदा के रूप में बड़े शान से रहते हैं। जब तक मन चाहा तब तक रहे और जब मन उचट गया, सम्बन्ध तोड़ दिया।

      _गणिका समाज का एक आवश्यक अंग माना अवश्य गया था जिसका आरम्भ वैदिक काल में ही हो गया था, लेकिन उसका इस समय यह रूप हो जाएगा–किसी ने सोचा न होगा। समाज को सार्वजनिक रूप से पतित होने से बचाने के लिए यह व्यवस्था बनाई गई थी, लेकिन क्या पता था कि युवा समाज गंदगी का ही रूप ले लेगा।_

*दाम्पत्य जीवन और गृहस्थ आश्रम :*

      सनातन विचार दर्शन में नर-नारी के नैसर्गिक आकर्षण को काम का साधन माना गया है। वह आकर्षण ही ‘प्रेम’ है। नर-नारी के एक प्रेम की अभिव्यक्ति दाम्पत्य जीवन है जो गृहस्थ आश्रम का आधार है। शारीरिक प्रेम, मानसिक प्रेम और आत्मिक प्रेम–ये तीनों तल के प्रेम गृहस्थ आश्रम में हो सकते हैं।

     _इसीलिए हमारे धर्म में, हमारी  संस्कृति में परिणय की अवधारणा रखी है, शादी की नहीं। शादी तो परिणय की अवधारणा का विकृत रूप है। शादी के नाम से युगल के मन में लड्डू फूटने लगते हैं और एक अनचाहा सा नशा-सा छाने लगता है।_

       लेकिन परिणय में यह बात नहीं है। यहां काम-वासना को महत्व न देकर काम-साधना की मूल भावना को सामने रखा गया है।

      _ब्रह्मचर्य आश्रम में 20 से 25 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए युवक और युवती ने जो तप किया गया, उसके व्यवहारिक रूप में परीक्षण के लिए परिणय की व्यवस्था की गई गृहस्थ आश्रम में। गृहस्थ आश्रम में हमारे अधिकांश ऋषि, मुनि रहते हुए काम- साधनारत रहे और अध्यात्म मार्ग में आगे बढ़े। बिन्दु साधना उसी का एक रूप है।_

      नर-नारी का संसर्ग शरीर तथा आत्मा के नैसर्गिक संसर्ग का खेल है। खजुराहो के मन्दिर की दीवारों पर गढ़ी गई काम मूर्तियां और अजन्ता-एलोरा की गुफाओं की दीवारों पर बनाये गए  भित्ति-चित्र इनके साक्ष्य हैं।

       _पत्नी के रूप में नारी केवल त्याग-तपस्या  की मूर्ति है। इसका सत्व केवल पति है। पतिव्रता का आदर्श भी यही है कि मन, वचन और कर्म से पत्नी अपने को पति में लीन कर दे। स्त्री पत्नी के रूप में जहां एक ओर प्रमदा है तो दूसरी ओर पूज्या भी।_

      पत्नी कभी प्रेमिका का रूप, कभी माँ का रूप तो कभी बहन और व्यवस्थापिका का रूप धारण करती है। जीवन में उसके नित नए-नए रूप दिखते हैं, नए-नए आयाम में वह जीती है और हर हालत में वह अपने पति को खुश और संतुष्ट देखना चाहती है।

       _पति जहाँ एक ओर पत्नी का रक्षक है, पालक है तो दूसरी ओर वह उसके लिए परमेश्वर है। चौंकने की आवश्यकता नहीं–क्योंकि पति के प्रति प्रेम, भक्ति, समर्पण और त्याग का जीवन जीते हुए ही स्त्री को आत्मतल की उपलब्धि सम्भव है। सीता, राधा, मीरा हमारे समाज में जीते-जागते उदाहरण हैँ।_ 

Exit mobile version