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*भारत के धनपशु/सम्पदा-शूकर* 

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         ~ पुष्पा गुप्ता

 भारत के धनपशु या सम्पदा-शूकर इन्द्रिय-भोग और रुग्ण ऐन्द्रिक तुष्टि के लिए बैंकाक, पटाया, या हैसियत थोड़ी अधिक हो तो अम्स्टर्डम जाते हैं। 

साहित्य में भी ऐसा ही होता है। जब यश कामना एक मनोग्रंथि बन जाती है तो हिन्दी के कवि-लेखक पगलाये हुए, थूथन उठाकर हवा में प्रसिद्धि और पुरस्कार की मादक गंध सूँघते हुए साहित्यिक मदनोत्सवों और उन राजपथों की ओर भागते हैं जहाँ से होकर पुरस्कारों के पुष्प और स्वर्णमुद्राएँ बिखेरते हुए संस्कृति की राजनर्तकी का रथ गुज़रने वाला होता है। 

पूरे देश में ख़ून की नदियाँ बहाने और नगर के नगर जलाकर राख कर देने के बाद बाँसुरी बजाने वाला राजा अपनी ड्योढ़ी पर महामात्य, अमात्यों और सेनानायक के साथ खड़ा राजधानी के मार्गों और वीथिकाओं पर मचे इस हड़बोंग को देखता है और हँसते हुए कहता है, “देखो, ये ही लोग ‘मानवता के शिल्पी’ और ‘सत्यान्वेषी’ कहलाते हैं।

       इनमें से कई अपने को ‘प्रगतिशील’ और ‘जनवादी’ आदि न जाने क्या-क्या कहते हैं। लेकिन वस्तुतः ये सब हड्डी पर लपकने वाले गली के कुत्ते हैं।

 कचरे की ढेरी पर थूथन मारते संस्कृति के सूअर हैं। हाँ, इनकी एक दुर्लभ विशिष्टता यह है कि ये अपने सबसे घृणित कुकर्मों को भी सुन्दर शब्दों की रेशमी चादर से ढँक सकते हैं।

     इनकी इस कला की हमें सबसे अधिक आवश्यकता है। इनमें से कुछ सबसे योग्य को चुनकर बुलाओ, उन्हें स्वर्णमुद्राओं और प्रशस्ति-पत्रों से ढँक दो और देश भर में कला-साहित्य-संस्कृति के ढेरों प्रतिष्ठान बनवा कर उन्हें ऊँचे आसनों पर बैठाओ।

      जो इस प्रस्ताव को न मानने वाले कुछ हठी हैं जो राजधानी और साहित्योत्सवों की ओर फटकते ही नहीं, उनपर सतर्क दृष्टि बनाये रखो।

सही समय पर उनके साथ क्या करना है, क्या यह तुम्हें बताने की आवश्यकता है?”

“नहीं महाराज, कदापि नहीं!” — महामात्य और सांस्कृतिक मामलों के प्रभारी अमात्य एक साथ बोल उठते हैं।

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