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जन सरोकार के मुद्दों से बेवफ़ाई करती हुई कविता

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मुनेश त्यागी 

       पिछले दिनों, एक साहित्यिक कार्यक्रम में जाना हुआ, जिसमें 95% कविगण थे। इनमें पुरुष और महिलाएं कवित्रियां भी शामिल थीं। इनमें अधिकांश खाते-पीते और मध्यम वर्ग के लोग शामिल थे। कमाल की बात यह है कि इनमें कोई गरीब गुरबा, मजदूर, किसान शामिल नहीं था। यह मध्यम वर्ग का जमावड़ा था। इनमें पुराने कवि एवं नौजवान और उभरते हुए कवि और कवित्रियां भी शामिल थीं। इनमें हिंदू, मुस्लिम धर्मों के लोग शामिल थे। इनमें सवर्णों और गरीब व वंचित जातियों के लोग भी शामिल थे, मतलब यह कई धर्मों और कई जातियों के कवियों लेखकों का जमावड़ा था।

      जब कार्यक्रम शुरू हुआ तो कई लोगों, पदाधिकारियों और प्रोफेसरों ने अपने विचार व्यक्त किए। इस  कार्यक्रम में कविताओं और विचारों के जरिए धार्मिक भावनाओं का प्रचार-प्रसार हो रहा था, जिसमें लाल गाल बाल जुल्फ और देवी देवताओं और भगवान खुदा की बातें भी हो रही थीं, जैसे सारी की सारी कविताओं और विचारों में ये सब ही रचे बसे थे। पिछले सात आठ साल की कविता में यह मूलभूत बदलाव देखा गया कि इस कविता गोष्ठी में समाज में इस वक्त फैली गरीबी शोषण जुल्म अपराध हिंसा अन्याय महंगाई गरीबी लाचारी और आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे समाज पर कोई कविता नहीं हो रही थी। जैसे सारे के सारे कवियों ने इन सब जन विरोधी मुद्दों से आंखें ही मीच रखी हों।

     इन आधुनिक कवियों की कविताओं में किसानों की समस्याएं मौजूद नहीं थीं, मजदूरों के भयंकर शोषणकारी हालात सिरे से ही गायब थे, महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध और हिंसा पर कोई बात नहीं हो रही थी। पूरे देश में पसरी गरीबी इन कविताओं से एकदम नदारद थी। शिक्षा स्वास्थ्य रोजगार से वंचित किए जा रहे सभी गरीबों किसानों मजदूरों पर कोई बात नहीं हो रही थी। पूरे देश में अमीरी गरीबी की बढ़ती खाई जिसमें 10% लोगों के पास 78 प्रतिशत राष्ट्रीय धन शामिल है, उस पर कोई चर्चा नहीं हो रही थी।

     देश दुनिया के कल्याण के वैश्विक और देश के विचार इन कविताओं में मौजूद नहीं थे। इन कविताओं में समता समानता क्रांति जनवाद धर्मनिरपेक्ष समाजवाद और सामाजिक परिवर्तन के नारे और बातें, सबके कल्याण की बात, जनता की एकजुटता साझी संस्कृति की हिफाजत की बात, सारे भारत की जनता की एकजुटता और संघर्ष की बातें सिरे से ही गायब थीं।

      इन खाते-पीते मध्यवर्गीय कवि और कवित्रियों की कविताओं में, सरकार की जनविरोधी नीतियां शामिल नहीं थीं। जिस तरह से पूरे देश में गरीबी का तांडव मचा हुआ है, यह सब इनकी कविताओं से एकदम गैरहाजिर था। राज्य और सरकार की मक्कारियों पर इन्हें कुछ नहीं कहना था, सरकार की चालाकियों की जानिब से इन सब ने आंखें चुरा रखी थीं, देश में बढ़ती अमीरी गरीबी की खाई पर से इन सब ने मौन साध रखा था।

      इनकी कविताएं सुनकर लगा कि जैसे इन सब ने कसम खा रखी है कि संवैधानिक मूल्यों को आगे बढ़ाने और पुष्पित पल्लवित करने पर इन्हें कोई कविता नहीं करनी है, कहनी है। इन सब की रचनाएं चीख चीख कर कह रही थी कि जैसे उन्हें सिर्फ भावनाओं पर आधारित कविताएं करनी हैं, पुरानी जनविरोधी मान्यताओं और समाज में फैलाई जा रही धर्मांधताओं को ही खाद पानी देना है।

       इनकी कविताओं को सुनकर लगा कि जैसे आज साहित्य समाज का दर्पण नहीं, बल्कि वह पूंजीपतियों, धन्ना सेठों,  सरकार की चालाकियों और मक्कारियों को बचाने और छिपाने का कवच बन गया है और उनका पिछलग्गू होकर रह गया है और इसने कसम खा रखी है कि जनता के मुद्दों पर, शोषण, जुल्म ओ सितम, गरीबी, लाचारी, अन्याय, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई और हिंदुस्तानियत के हो रहे विनाश और क्षरण पर, कोई बात नहीं करनी है, कोई कविता नहीं रचनी और कहनी है और साहित्य को लुटेरे समाज और सामाजिक व्यवस्था का नौकर और पिछलग्गू ही बना देना है।

      जब हमने इन सब मुद्दों को वहां पर मौजूद अपने पुराने कवि मित्रों के सामने उठाया तो उन्होंने माना कि आज कविता आपने सही मुद्दों, उद्देश्यों और मान्यताओं से भटक गई है और वह जनकल्याण के जरूरी मुद्दों से बेवफा हो गई है और उन्होंने यह भी माना कि आज अधिकांश कवि और रचनाकार दौलत वालों के जाल में फंसकर लालची, पेट पिपासु और सेठाश्रयी कवि बन गए हैं और उनकी कविताओं का जन सरकारों से कोई भी मतलब नहीं रह गया है।

     पहले गोष्ठियों, कवि सम्मेलनों और नौचंदी जैसे आयोजनों में जन सरोकारों को बढ़ाने वाली, शोषण अन्याय और जुल्मो-सितम का विरोध करने वाली, जनता को मानवीय नजर और नजरिया देने वाली और हौंसला बढ़ाने वाली कमाल की कविताएं कही जाती थीं। लोग वहां जा जाकर उन कविताओं को नोट करते थे और फिर मीटिंगों, जलसे जलूसों में उनको गाया करते थे। मगर आज की अधिकांश कविताएं हिंदू मुसलमान के बीच, आपसी नफरत के ध्रुवीकरण की मुहिम को आगे बढ़ा रही हैं, मनुवादी सोच और धर्मांधताओं को आगे बढ़ा रही हैं और वे जन सरोकारों से कोसों दूर चली गई हैं।

      इस गोष्ठी को देख सुनकर लगा कि हम तमाम जनवादी, प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी और जन रक्षक लेखकों, कवियों और तमाम साहित्यिक कर्मियों को और जोरदार एवं आक्रामक तरीके से जनता के बीच जाना चाहिए और जनता के मुद्दों पर कविता और लेखन करना चाहिए, और इन जन विरोधी और साम्प्रदायिक रचनाकारों का भंडाफोड़ करना चाहिए।

      इसी के साथ यह भी जरूरी है कि फिलहाल के सांप्रदायिक, धर्मांध और जनविरोधी माहौल का मुकाबला करने के लिए हमें भगत सिंह, प्रेमचंद, अंबेडकर, निराला, दिनकर, फैज अहमद फैज, हबीब जालिब, काजी नजरुल इस्लाम, साहिर लुधियानवी, अदम गोंडवी, बाबा नागार्जुन, शलभ श्रीराम सिंह, ओमप्रकाश बाल्मीकि, पाश , दुष्यंत कुमार और सफदर हाशमी की जनवादी और क्रांतिकारी रचनाओं और कविताओं की साहित्यिक परंपरा और विरासत को आगे ले जाने की जरूरत है।

      आज हमें भी अपनी कविताओं, जनगीतों, लेखों और साहित्य के माध्यम से, उसी क्रांतिकारी और जनवादी साहित्यिक रचनाओं के माध्यम से, जनता की समस्याओं का चित्रण करना चाहिए और जनगीतों के माध्यम से जनता को प्रतिरोध करने का हौंसला प्रदान करना चाहिए, तभी इन भटके हुए साहित्यकारों को, कवियों को, एक समाज समर्थक दिशा मिल पाएगी और तभी सही मायनों में साहित्य समाज का दर्पण बन पाएगा।

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