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आदिवासियों के आंदोलन पर पुलिसिया कहर

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छत्तीसगढ़ के बीजापुर जिले में पेटी ठेकेदार समेत 4 लोग पिछले 9 दिन से लापता हैं. बताया जा रहा है कि ये सभी सड़क निर्माण के काम में लगे हुए थे. इन सभी का 24 दिसंबर से अब तक कोई सुराग नहीं मिला है. बताया जाता है कि भाकपा माओवादी का सैन्य विभाग पीएलजीए के प्लाटून ने इनको गिरफ्तार कर लिया है. ऐसी आशंका जताई जा रही है. खबरों के अनुसार फिलहाल इस मामले की अब तक कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है.

जानकारी के मुताबिक, कोंडागांव निवासी निमेंद्र कुमार दीवान और नीलचंद नाग, लोहंडीगुड़ा निवासी टेमरू नाग के साथ ही बारसूर निवासी चापड़ी बत्तैया लापता है. ये सभी गए 24 दिसंबर को जिले के भाकपा माओवादी के प्रभावित गोरना इलाके में गए थे, जिसके बाद वहां से लौटे ही नहीं. इनके परिजनों ने रविवार को मीडिया को इसकी जानकारी दी है.

अब इनके परिजन भाकपा माओवादी से अपील कर रहे हैं कि ‘यदि उनके परिवार के सदस्य उनके के कब्जे में हैं तो वे उनकी सकुशल रिहाई कर दें.’ सोचिये जरा, कितनी आसानी से इनके परिजन भाकपा माओवादी से अपील कर रहे हैं, मीडिया इनकी रोती सुरतो को छाप रहा है, अगर यही लोग पुलिस के कब्जे में होता तो क्या इनकी इतनी हिम्मत होती कि वह पुलिस से अपील कर पाती ? इतना ही नहीं मीडिया को भी इतनी हिम्मत होती कि वह रोती सूरतों की तस्वींरें छाप पाता ?

इसी इलाके में कुछ दिन पूर्व सड़क निर्माण के काम का जायजा लेने के लिए पहुंचे सब इंजीनियर और उनके साथ विभाग के प्यून को पीएलजीए के गुरिल्लों ने गिरफ्तार कर लिया था. 12 नवंबर की देर शाम भाकपा माओवादी ने प्यून को रिहा कर दिया. रिहा हुए प्यून ने बताया कि ‘रात लगभग 8:30 बजे उसे लौकी की सब्जी और भात (चावल) खिलाया था. आंखों में पट्टी बांध कर यहां वहां घुमाते रहे. उसके बारे में पूछताछ भी की लेकिन किसी तरह से उसे प्रताड़ित या फिर पीटा नहीं गया था.’ क्या आप यही व्यवहार की उम्मीद पुलिसिया गिरोह से कर सकते हैं कि बिना अपशब्द कहे, खाना खिलाये और पीटे भी नहीं ?

सड़क और कैम्प निर्माण के खिलाफ आदिवासियों का आन्दोलन

अब आते हैं सड़क निर्माण के खिलाफ पिछले लगभग डेढ़ साल से शांतिपूर्ण आन्दोलन कर रहे आदिवासियों के सवाल पर. इसी बीजापुर जिले के ग्राम पंचायत बुर्जी में 7 अक्तूबर, 2021 से आदिवासी समुदाय के युवाओं द्वारा आंदोलन चलाया जा रहा है. इस आंदोलन की मांगों इस प्रकार है –

  1. अड्समेटा नरसंहार पर न्याय करने,
  2. गंगालूर से पुसनार नये रोड के निर्माण पर रोक लगाने,
  3. पुलिस कैम्प की स्थापना पर रोक,
  4. महिलाओं के साथ अत्याचार, हत्या और बलात्कार की घटनाओं पर रोक लगाने
  5. नक्सली बताकर आदिवासियों को फर्जी केसों में जेल में बंद करने और
  6. फर्जी एनकाउंटर पर रोक लगाने

इस बेहद ही शांतिपूर्ण आंदोलन पर ‘सुरक्षा’ बलों ने आदिवासियों पर बड़ा हमला कर दिया है. इस हमले में कई आदिवासी गंभीर रूप से घायल हो गए हैं. तकरीबन 200 लोगों को चोटें आयी हैं जिनमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं. खबर के अनुसार, मूलवासी बचाओ मंच द्वारा संचालित इस आंदोलन पर इसी 15 दिसंबर की रात एक बजे डोजियर गाड़ी और जेसीबी समेत अन्य गाड़ियों के साथ पुलिसिया गिरोह मौके पर पहुंचे और आंदोलनकारियों को उकसाना शुरू कर दिया.

ग्रामीण व मूलवासी बचाओ मंच के अध्यक्ष सोनी पुनेम व उपाध्यक्ष बिन्तु उइके ने बताया कि फोर्स के पहुंचते ही आंदोलनकारी सुरक्षा बलों के वाहनों के सामने खड़े हो गए और उन्होंने पुलिसिया गिरोह से सवाल पूछना शुरू कर दिया कि आखिरकार जवान किस अधिकार के साथ गांव में कैम्प लगाने आये हैं ? गांव में न ग्राम सभा की बैठक हुई है और न ही किसी ने पुलिस कैम्प की मांग की है. ऐसे में बगैर अनुमति के सड़क का निर्माण कर नये पुलिस कैम्प को क्यों स्थापित किया जा रहा है ?

प्रत्यक्षदर्शियों का कहना था कि इसी बीच पुलिस के जवानों ने कुछ महिलाओं को धक्का मार दिया जिससे एक महिला गढ्ढे में गिर गई. महिला को गढ्ढे में गिरा देख कर आंदोलनकारी भड़क उठे और उन्होंने वाहनों को चारों तरफ से घेर लिया. आंदोलनकारी कुछ करते उससे पहले ही सुरक्षा बल के जवानों ने उन्हें खदेड़ना शुरू कर दिया. और इसके साथ ही जवानों ने लाठियों से आंदोलनकारियों की पिटाई शुरू कर दी, जिसमें एक लाठी ग्रामीण और मूलवासी बचाओ मंच के उपाध्यक्ष बिंतु उइके के सिर पर लगी और उनका सिर फूट गया और उससे खून की धार फूट पड़ी. चोट लगते ही वह जमीन पर गिर पड़े. इस घटना में उनके घुटने और कलाई में भी गहरी चोट आयी है.

आंदोलन में तकरीबन 1000 से 1200 तक लोग शामिल थे. पुलिस के दौड़ा-दौड़ा कर मारने व भगदड़ मचने से करीब 200 लोगों को चोटें आयी हैं. किसी का सिर फटा है तो किसी का घुटना छिल गया है. इस घटना में कुछ लोगों के पैर भी टूटे हैं. उनमें छोटू पुनेम, सुक्का पुनेम, सोना पुनेम, हुंगा कुंजाम, पोदीया पुनेम, सुकराम कुंजाम, मनकी कुंजाम, मुन्ना पुनेम, तुलसी पुनेम, सावित्री पोटम, मिटकी पोटम समेत कई लोग शामिल थे. खबर के अनुसार, ग्रामीणों ने बताया कि पुलिस की गोलियों के डर से ढेर सारे आंदोलनकारियों ने अपना घर छोड़ दिया है और वे जंगल में जाकर छिप गए हैं.

हालांकि पुलिस के इस बर्बर रवैये से भी आंदोलनकारियों के हौसले नहीं टूटे. भले ही रात के अंधेरे में आंदोलनकारियों को मार पीट कर धरना स्थल से हटा दिया गया था लेकिन उसके अगले ही दिन यानी 16 दिसंबर, 2022 को सुबह फिर से आंदोलनकारी उस स्थान पर जमा हो गए जहां से उनका आंदोलन चल रहा था. लोगों का कहना है कि फोर्स फिर आई और उसमें गंगालूर थाना इंचार्ज पवन वर्मा भी शामिल थे. आंदोलनकारियों की मानें तो थाना इंचार्ज ने कहा कि सड़क व नया पुलिस कैम्प स्थापित होकर रहेगा. उनके पास भारत सरकार का आदेश है. इतना बोलकर आंदोलनकारियों को संयुक्त फोर्स ने दौड़ाना शुरू कर दिया.

आखिर आदिवासी सड़क और कैम्प निर्माण का विरोध क्यों करते हैं ?

भारत सरकार आदिवासियों के ‘विकास’ के लिए कृतसंकल्पित है. वह आदिवासियों के ‘विकास’ के लिए पूरी ताकत झोंके हुए है. आदिवासी ‘विकास’ नहीं चाहते हैं और वह अपनी पूरी ताकत से इस ‘विकास’ को रोकने के लिए कृतसंकल्पित है. तब सवाल यही उठता है कि यह कौन सा और कैसा विकास है, जो भारत सरकार करना चाहती है और आदिवासी नहीं चाहते ?

आदिवासी क्षेत्रों में भारत सरकार के विकास का पैमाना है – सड़क और पुलिसिया कैम्प. सड़क इसलिए कि आदिवासियों के पहाड़ी इलाकों के नीचे खनिज संपदा का विशाल भंडार है. खनिज संपदा के दोहन के लिए सड़क चाहिए जिससे होकर इन निकाले गये खनिजों को बड़ी-बड़ी गाडियों में ढोकर देशी-विदेशी कम्पनियों को बेचकर यह कम्पनियां अकूत मुनाफा कमा सके. और पुलिसिया कैम्प इसलिए कि मुनाफा कमाने की इस मशीनरी की सुरक्षा सुनिश्चित हो.

आदिवासी इस ‘विकास’ का विरोध क्यों करते हैं ? तो जवाब है इसलिए कि सरकार के इस विकास में आदिवासी कहीं भी नहीं आते. मसलन,

  1. खनिज उत्खनन के लिए बड़े पैमाने पर आदिवासियों को उनके जमीन से खदेड़ दिया जाता है, और उनके पुनर्वास का कोई इंतजाम नहीं किया जाता.
  2. खनिज उत्खनन से निकले अपशिष्ट पदार्थों का कोई समायोजन नहीं किया जाता, जिससे उसके आसपास का हवा, पानी और जमीन बड़े पैमाने पर प्रदूषित होता है, जिससे बड़े पैमाने पर आदिवासी मौत के शिकार होते हैं
  3. उत्खनन और परिवहन कार्य में बाहर से आये लोगों द्वारा आदिवासियों की सम्पत्ति (मुर्गा, खस्सी वगैरह) छीन ले जाते हैं.
  4. बाहर से आने वालों के कारण आदिवासियों की संस्कृति पर सबसे घातक प्रभाव पड़ा है.
  5. आदिवासी युवतियों के साथ छेड़छाड़, बलात्कार की घटनाओं में अप्रत्याशित बढ़ोत्तरी दर्ज होती है, जिसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं होती क्योंकि इस कुकर्म में कैम्प लगाये पुलिसिया गिरोह की सबसे बड़ी भूमिका होती है.
  6. किसी प्रकार के विरोध करने पर सीधे हत्या कर दी जाती है, चाहे वह कैम्प के अंदर हो या बाहर.
  7. आदिवासियों के संगठित प्रतिरोध को सीधे माओवादी का नाम देकर क्रूरतापूर्ण हत्या इन तथाकथित सुरक्षा बलों द्वारा की जाती है.
  8. सबसे गौरतलब यह है कि आदिवासियों के विकास की सरकारी योजनाओं में स्कूल, अस्पताल, बिजली, पानी नहीं आता है, केवल और केवल सड़क और फौज आता है, इसके सिवा और कुछ भी नहीं.

ये तो चंद उदाहरण हैं, जिस कारण आदिवासी विरोध करते हैं. आदिवासी छोड़िये, हम शहरों यें रहने वाले क्या पुलिसिया गिरोह के कुख्यात कारनामों के बारे में नहीं जानते ? क्या हम नहीं जानते किस तरह यह पुलिसिया गिरोह लोगों को परेशान करता है, जहां शिक्षित लोग और जागरूक समाज मौजूद है ? फिर तो आदिवासियों के बीच तो घनघोर अशिक्षा, अज्ञानता और पिछड़ापन मौजूद है, वहां यह दुष्कर्मी पुलिसिया गिरोह किस कदर आतंक मचाता है, सिहरन भर देने के लिए काफी है.

आदिवासियों के असली हितैषी हैं माओवादी और उनकी गुरिल्ला सेना

आदिवासी इलाकों की आज सबसे बड़ी जरूरत शिक्षा, मेडिकल, विस्थापन झेल रहे आदिवासियों के पुनर्वास है, जिसे यह सरकार स्थापित करने के बजाय केवल सड़क बनाती है और फौज के सहारे आतंक मचाती है, जिसका समुचित प्रतिरोध केवल और केवल भाकपा माओवादी ही कर रही है.

भाकपा माओवादी ही वह सत्ता का नया आयाम है जो आदिवासियों के समुचित विकास, उसके शिक्षा, मेडिकल, विस्थापन की समस्या का सभी समाधान प्रस्तुत कर रहा है. यही कारण है कि माओवादी और उसकी गुरिल्ला आर्मी आदिवासियों ही नहीं देश की तमाम मेहनतकश आवाम के हृदय में बसता है, जिसे उखाड़ फेंकना किसी पुलिसिया गिरोह के किसी भी आतंक के बूते से बाहर की चीज है, इसके उलट यह माओवादी ही वह वैकल्पिक सत्ता है जो आदिवासियों के साथ साथ देश के तमाम लोगों की समस्याओं का वास्तविक हल प्रस्तुत करेगा.

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