स्वामीनाथन एस अंकलेसरिया अय्यर
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का माफिया डॉन-कम-राजनेता आनंद मोहन सिंह को रिहा करना भयावह है। सिंह एक आईएएस अधिकारी की हत्या के लिए 15 साल जेल में रहा। उसे इसलिए नहीं छोड़ा गया कि वह बहुत बीमार है या उसे कोई असाध्य बीमारी है या बहुत लंबा वक्त सलाखों के पीछे गुजार चुका है। बल्कि, उसे वक्त से पहले इसलिए छोड़ा जा रहा है ताकि अगले चुनावों में फायदा लिया जा सके। आनंद मोहन को अब भी राजपूत हीरो की तरह देखा जाता है जो शायद अपने दम पर बहुत सारे वोट दिलवा सकता है। दया के लिए बने सिस्टम का ऐसा दुरुपयोग अदालतों से बदलाव की पुकार लगाता है। बिहार में सजा माफी के नियम उनकी रिहाई की अनुमति देते थे जिन्होंने 14 साल की सजा काट ली हो। मगर एक शर्त थी कि ड्यूटी पर सरकारी कर्मचारी की हत्या करने वाले की रिहाई नहीं होगी। नीतीश ने यह प्रावधान बदल दिया ताकि आनंद मोहन बाहर आ सके। यह बेहद घटिया और घिनौनी राजनीति है।
नीतीश कुमार: सिद्धांतवादी नेता की छवि तार-तार
पिछले अगस्त में मैंने लिखा कि मैं एक भारतीय होने पर शर्मिंदा हूं क्योंकि 2002 दंगों में बिलकिस बानो का गैंगरेप और उसके परिवार को मौत के घाट उतारने वाले 11 दोषियों को गुजरात सरकार ने रिहा कर दिया था। इतना ही नहीं, रिहाई के बाद अपराधियों को फूल-मालाएं पहनाई गईं, सम्मानित किया गया। लेकिन अब नीतीश जो बीजेपी के बड़े नैतिक विरोधी बने फिरते हैं, उसी रास्ते पर चल पड़े हैं। मैं डर से इतना सुन्न हो चुका हूं कि शर्म भी नहीं आ रही।
लालू यादव के राज में पनपे गैंगस्टर-राजनीति नेक्सस को खत्म करने का वादा कर नीतीश सत्ता में आए। पहले कार्यकाल में गैंगस्टर्स के खिलाफ कार्रवाई की, जनता ने भी सराहा और दोबारा चुना। अब उन्होंने लालू की पार्टी से हाथ मिला लिया है और जिस माफिया को जेल भिजवाया था, उसके साथ गलबहियां करने में गुरेज नहीं करते।
एक सिद्धांतवादी राजनेता की उनकी छवि तार-तार हो चुकी है। उन्होंने इतनी बार राजनीतिक साथी बदले हैं कि कोई नहीं जानता वह किस पाले में खड़े हैं। ज्यादा वक्त नहीं बीता, कुछ लिबरल्स उन्हें सेक्युलर हीरो बता रहे थे जो बीजेपी के खिलाफ विपक्षी फ्रंट का नैतिक अगुवा बन सकता था। आज यह हास्यास्पद लगता है।
दया की आड़ में राजनीतिक फायदा उठाने की चाल
दुनियाभर में हत्यारों को आमतौर पर निंदा होती है, भले ही उनके कितने ही चाहने वाले हों, बहिष्कार होता है। पहले हत्यारों को फांसी दे दी जाती थी, अब उन्हें कुछ दशक जेल में गुजारने के बाद रिहा कर दिया जाता है। दया को ठीक समझा गया क्योंकि हत्यारे ताउम्र उस जुर्म को लेकर शर्मिंदगी के साथ जीते। भारत में इस धारणा का कोई आधार नहीं मालूम होता। कुछ हत्यारे अपनी जाति, समुदाय या राजनीतिक दल के हीरो बने रहते हैं, चाहे अपराध कुछ भी हो। बहिष्कार तो दूर की बात है, उनकी रिहाई पर स्वागत में भीड़ उमड़ती है। जिनके गले में फांसी का फंदा होना चाहिए, हार पहनाए जाते हैं। नतीजा, कुछ कुटिल राजनेताओं ने उन्हें जल्द से जल्द रिहा करना शुरू कर दिया है। दिखावा दया का होता है लेकिन असल में राजनीतिक फायदे के लिए।
आनंद मोहन की रिहाई के तयशुदा वक्त पर हजारों समर्थक जमा हो गए थे। उसकी रिहाई के फैसले पर हंगामे से सरकार शर्मिंदा हो गई। एक हत्यारे को खुलकर नायक की तरह पेश करता दिखने से बचने के लिए, आनंद मोहन को तड़के 4 बजे रिहा किया गया और राज्य से बाहर पहुंचा दिया गया। नीतीश को लगता है कि इससे उनके लिबरल साथियों का गुस्सा कम होगा और राजपूत वोट भी आ जाएंगे।
’14 साल जेल काफी नहीं, कम से कम 30 साल’
इतिहास दिखाता है कि कई बार लोग हत्या के झूठे आरोप में भी दोषी करार दिए गए हैं, फांसी भी हुई। मौत की सजा पर रोक से बेगुनाहों को फांसी जैसे घोर अन्याय का खात्मा हो सकता है। मैं भारतीय सिस्टम का पक्षधर हूं जहां मौत की सजा बेहद जघन्य अपराधों में दी जाती है और उम्रकैद आम है।
लेकिन 14 साल के बाद इस आधार पर रिहा कर देना कि उन्होंने प्रायश्चित कर लिया है, सुधर गए हैं या बहुत कुछ झेल लिया है, काफी है? यह नियम बदलना चाहिए। क्या किसी को लगता है कि डॉन प्रायश्चित करते हैं 14 साल जेल में रहने के बाद जिम्मेदार नागरिक बन जाते हैं और इसलिए उन्हें रिहा कर देना चाहिए? दोषी करार दिए गए हत्यारों को वक्त से पहले रिहा करना अन्याय है। बिलकिस बानो और उस आईएएस अधिकारी की पत्नी के साथ हुए अन्याय के बारे में सोचिए।
हत्यारों की रिहाई के लिए 14 साल बेहद कम वक्त है। डॉन जेल के भीतर से भी अपना आपराधिक साम्राज्य चलाते रहते हैं। राजनेता भी ताकतवर बने रहते हैं। उनके परिवार वाले काम संभाल लेते हैं।
दोषियों की रिहाई के लिए राज्य सरकारों के विवेक की सीमाएं तय करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर होनी चाहिए। जिन हत्यारों का पॉलिटिकल और क्रिमिनल रिकॉर्ड है, उन्हें रिहाई से पहले कम से कम 30 साल जेल में रखने का प्रावधान हो। इससे हत्यारों के जेल के भीतर रहते हुए ऑपरेट करने की ताकत तो नहीं कम होगी मगर जो मारे गए हैं, उनके परिवारों को थोड़ा न्याय जरूर मिल सकेगा। और इससे सियासी फायदे के लिए उनकी रिहाई का सिलसिला भी थमेगा।