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आज़म खां …..रामपुर का राजनीतिक-सामाजिक इतिहास

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कंवल भारती

निस्संदेह उत्तर प्रदेश के रामपुर में पहली बार कमल खिला है। समाजवादी पार्टी (सपा) के उस गढ़ में, जहां भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को कभी सफलता नहीं मिली, विधानसभा के उपचुनाव में भाजपा उम्मीदवार आकाश सक्सेना की मात्र 34 हजार वोटों से जीत, हालांकि ज्यादा मायने नहीं रखती, पर एक बड़ी सफलता जरूर है। राजनीति के गलियारे में इस सफलता के बहुत से मायने निकाले जा रहे हैं। यहां तक कहा जा रहा है कि रामपुर में सपा अब खत्म हो गई और मुस्लिम राजनीति भी नेतृत्व-विहीन हो गई है। रामपुर पश्चिमी उत्तर प्रदेश का वह जिला है, जहां सर्वाधिक मुस्लिम आबादी है, जिसके परिणामस्वरूप 50 प्रतिशत से भी अधिक यहां मुस्लिम मतदाता हैं। 

1977 तक कांग्रेस का गढ़ रहा रामपुर

सपा से पहले रामपुर कांग्रेस का गढ़ रहा है। अगर 1957 के विधानसभा चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार असलम खां की जीत को एक अपवाद मान लें, तो 1952 से 1977 तक यहां कांग्रेस की ही जीत हुई है। यह वह दौर था जब कांग्रेस का रथ ब्राह्मण, मुस्लिम, दलित और पिछड़ी जातियों के पहियों से चलता था। बनिया समुदाय तब भी कांग्रेस के साथ कम और उस समय की हिंदुत्ववादी पार्टी ‘जनसंघ’ के साथ ज्यादा था। लेकिन रामपुर में कांग्रेस की राजनीति का एक सच यह भी है कि वह कोठी खास बाग (रामपुर नवाबी पैलेस) की चारदीवारी में कैद रहती थी, और चुनाव के ऐन वक्त ही बाहर आती थी। 

रामपुर की आम जनता में न राजनीति की कोई समझ थी और न चेतना थी। कोठी खास बाग के दरबार में हाजिरी लगाने वाले कुछ लोग, जिनमें ब्राह्मण और हिंदू-मुस्लिम जमींदार शामिल थे, जनता के बीच जाकर, खास तौर से दलित बस्तियों में जाकर खैरात बांट देते थे, और उनके वोट पक्के हो जाते थे। वे न भी खैरात बांटते, तब भी जनता में कांग्रेस को वोट देने से इंकार करने का साहस नहीं था। इस तरह रामपुर से कांग्रेस के उम्मीदवार, जो स्वयं नवाब होते थे या उनके रिश्तेदार या चहेते, भारी बहुमत से जीतते रहते थे। 

आजम खां का आगाज

फिजा बदली, 1980 के दशक में, जब रामपुर की राजनीति में आज़म खां नाम के एक करिश्माई शख्स का उदय हुआ, जो न दरबारी था, न जमींदार घराने से था, न समृद्ध परिवार से था, और न अभिजात वर्ग से था। वह था एक साधारण परिवार (नाई बिरादरी) का, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से वकालत पढ़कर आया, एक तेज-तर्रार नौजवान, जिसने आते ही कोठी खास बाग से पंगा ले लिया। उसने लेबर यूनियन बनाकर बीड़ी-मजदूरों, रिक्शा-चालकों और कपड़ा मिल के कामगारों को, उनके हकों के लिए, बिल्कुल वामपंथी अंदाज़ में, सड़कों पर उतार दिया। रामपुर की गली-गली में आज़म-आज़म की धूम मच गई। 

आजम खां, सपा नेता

आजम खां रातोरात गरीब-मजलूमों के नेता बन गए और जो राजनीति कोठी खास बाग में कैद थी, वह चारदीवारी तोड़कर जनता के बीच आकर बैठ गई। फिर तो, हर नुक्कड़-चौराहे पर, हज्जाम की दुकानों पर और चाय के खोखों और चाकू-बाज़ार के पटरों पर, और बुद्धिजीवियों की महफ़िलों में आज़म खां ही लोगों की जुबान पर रहते थे। 

निस्संदेह आज़म खां ने रामपुर में राजनीति का मिजाज ही नहीं, रुख भी बदल दिया था। अब राजनीति का तानाबाना जनता के बीच बुना जाने लगा था, जिसका परिणाम यह हुआ कि 1977 में कांग्रेसी उम्मीदवार मंजूर अली खां की जीत के बाद, फिर नवाब खानदान का कोई वारिस नहीं जीता। राजनीति में आज़म खां ने नवाब परिवार के आधिपत्य की ईंट से ईंट बजा दी थी। एक प्रकार से यह रामपुर की जनता के हित में ही था, क्योंकि जन-प्रतिनिधि बनकर भी नवाब हकीकत में अभिजात वर्ग का ही प्रतिनिधित्व करते थे। 

रामपुर नवाब के वर्तमान वारिस नवाब काजिम अली खां उर्फ नावेद मियां आज़म खां की राजनीति के ऐसे शिकार हुए कि नावेद मियां को रामपुर सदर से कभी जीत हासिल नहीं हुई, और स्वर क्षेत्र से भी, जहां से वह एक बार विजयी हुए थे, आज़म खां के बेटे अब्दुल्ला से हार गए। आज़म की अवामी राजनीति का तीर, ग़ालिब के शब्दों में, नावेद मियां के ‘सीना-ए-बिस्मिल से (ऐसा) परफ्शां निकला’ कि वह आज़म खां के दुश्मन नंबर एक हो गए।

आज़म खां ने पहला विधानसभा चुनाव रामपुर सदर से 1980 में जनता पार्टी (एस) के टिकट पर लड़कर जीता था। 1985 में वह लोकदल के टिकट से लड़े और जीते, 1989 में वह जनता दल और 1991 में चंद्रशेखर की समाजवादी जनता पार्टी के टिकट पर जीते। 1993 में वह सपा में आए, और तब से 2022 तक कुल छः चुनावों में उन्होंने अपनी जीत हासिल की। लेकिन इसी वर्ष भड़काऊ भाषण के अपराध में उनको तीन साल की सजा होने के बाद उनकी विधायकी समाप्त हो गई, और उपचुनाव में पहली बार रामपुर सदर से सपा की हार और भाजपा की जीत हुई। अब कहा जा रहा है कि रामपुर से सपा की हार ने आज़म खां के पतन की तहरीर लिख दी है।

हार के कारण

यह हार कैसे हुई? इसके तीन बड़े कारण हैं, जिनके ऊपर चर्चा करना जरूरी है। पहला कारण है, जिला प्रशासन ने उन मुस्लिम इलाकों को पुलिस छावनी में बदल दिया, जहां सपा के वोटर थे। अख़बारों में छपी खबरों के मुताबिक़ पुलिस ने कई इलाकों में मुलसमानों को घरों से ही नहीं निकलने दिया। कई जगहों पर पुलिस ने वोटरों के पहचान पत्र चेक किए, और यह जानकार कि वे मुसलमान हैं, उन्हें घरों को वापस भेज दिया। जबकि पहचान पत्र चेक करने का काम मतदान अधिकारीयों का है। 

जिन लोगों ने पुलिस की इस कार्यवाही का विरोध किया, उनके ऊपर लाठीचार्ज किया गया। मुस्लिम इलाकों में पुलिस की इस दहशत ने नागरिकों को बाहर नहीं निकलने दिया, जिससे बूथों पर सन्नाटा पसरा रहा। इन बूथों पर सबसे न्यूनतम मतदान हुआ, और अखबार की खबर के अनुसार 45 बूथ ऐसे रहे, जहां वोटों की संख्या सौ के अंक तक भी नहीं पहुंच सकी। 

सपा प्रत्याशी आसिम रज़ा का बयान है कि 252 बूथों पर पुलिस ने योजनाबद्ध तरीके से लोगों को वोट नहीं डालने दिया। कई बूथों पर तो सिर्फ 25, 28, 34, और 40 वोट ही पड़े, जबकि इन बूथों पर लगभग 900 और 1000 के बीच वोटर थे। इसका क्या मतलब है? क्या यह बलपूर्वक मतदान को रोका जाना नहीं है? इस ज्यादती के खिलाफ सपा प्रत्याशी ने चुनाव आयोग को शिकायत भेजकर पुन: मतदान कराने की मांग की है। पर शायद ही चुनाव आयोग इसका संज्ञान ले।

दूसरा कारण, कांग्रेस के नवाब काजिम अली उर्फ नावेद मियां की बगावत है, जिन्होंने खुलेआम भाजपा के उम्मीदवार का न सिर्फ समर्थन किया, बल्कि उसके पक्ष में प्रचार भी किया। यह बगावत यहां तक थी कि भाजपा के कई बड़े नेता और योगी सरकार के कई मंत्री भी, जो भाजपा-प्रत्याशी के प्रचार के लिए रामपुर आए, नावेद मियां से मिलने उनके आवास ‘नूर महल’ जाते थे। इस बगावत के लिए, हालांकि कांग्रेस ने उन्हें पार्टी से 6 साल के लिए निष्कासित कर दिया है, पर इसका कोई असर नावेद मियां पर नहीं पड़ना है, क्योंकि अभिजात वर्ग हमेशा सत्ता के साथ रहता है, और वह बिना किसी संकोच के, भाजपा में भी शामिल हो सकते हैं। सपा-प्रत्याशी को हराने में नावेद मियां की भूमिका एक बड़ा कारक है।

तीसरा कारण यह है कि प्रदेश में योगी सरकार के आने के बाद मुसलमानों में एक नई दहशत का वातावरण विकसित हुआ है। इस वातावरण में सुरक्षित रहने के लिए भाजपा की शरण ही आसान तरीका है। इस वजह से भी रामपुर में बहुत से मुसलमान भाजपा में शामिल होकर राष्ट्रवादी हो गए हैं। भाजपा का एक मुस्लिम विंग भी है, जो पसमांदा मुसलमानों को भाजपा से जोड़ने का काम करता है। हालांकि इन राष्ट्रवादी मुसलमानों की बहुत बड़ी तादाद रामपुर में नहीं है, पर ऐसे लोग जितने भी हैं, उन्होंने उपचुनाव में सपा के खिलाफ भाजपा का ही समर्थन किया है। इनमें कुछ वे मुसलमान भी शामिल हैं, जिनके ऊपर आज़म खां ने जुल्म किए थे, जिसकी प्रतिक्रिया में वे भाजपा में गए।

इसके अतिरिक्त, एक कारण वह वर्ग भी है, जो आज़म खां के जुल्मों का शिकार हुआ है। इनमें मुसलमान और हिंदू दोनों शामिल हैं, पर अधिकतर मुसलमान ही हैं। इनमें अधिकांश पीड़ित लोग अभी भी आज़म खां के खिलाफ अदालतों के चक्कर काट रहे हैं। स्वाभविक है कि उन लोगों से सपा के पक्ष में मतदान करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

लेकिन गौरतलब सवाल हार-जीत का नहीं है। चुनाव में जीत-हार कोई बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है। दो उम्मीदवारों के संघर्ष में किसी एक को हारना ही होता है। यहां बड़ा मुद्दा आज़म खां के पतन का है। एक ऐसा जन नेता, जो ट्रेड यूनियन के नेता की तरह उभरा हो, जिसने रामपुर के बीडी-मजदूरों, रिक्शा-चालकों और अन्य कामगारों के हक की लड़ाई लड़ी हो, और जो रामपुर की अवाम में लोकप्रिय हो, उसकी राजनीति का पतन क्यों हो गया? 

आजम खां का पतन

असल में एक कामयाब आदमी जब आसमान की बुलंदियों पर चला जाता है, तो वह जमीन के मसायल भूल जाता है, या उनकी ओर से आंखें मूंद लेता है। आज़म खां ने यही किया। जिस नवाबी अभिजात्यता के खिलाफ बगावत के लिए वह जाने जाते थे, बाद में उन्होंने स्वयं भी उसी अभिजात्यता को ओढ़ लिया। 

उत्तर प्रदेश की सपा सरकार के मुखिया भी रामपुर के मामले में कोई दखल नहीं देते थे। रामपुर के कई नेताओं और बुद्धिजीवियों ने तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को आज़म खां के गलत कार्यों के खिलाफ शिकायतें भेजीं, पर किसी शिकायत का कोई संज्ञान नहीं लिया गया। आज़म खां रामपुर के अघोषित मुख्यमंत्री बने हुए थे। उनका विरोध करने की हिम्मत किसी में नहीं थी। 

जिस समय आज़म खां जौहर यूनिवर्सिटी के निर्माण के लिए धन उघाने और जमीन हथियाने की मुहीम को अंजाम दे रहे थे, उसी समय उनके एक-एक कार्य का दस्तावेजीकरण भी भाजपा के आकाश सक्सेना द्वारा किया जा रहा था। नावेद मियां भी इसमें आकाश का सहयोग कर रहे थे। इन दोनों ने मिलकर जो पटकथा तैयार की, उसका आज़म खां को दूर-दूर तक अंदाज़ा नहीं था। जब सारी पटकथा तैयार हो गई, तो आज़म खां के दुर्भाग्य से उत्तर प्रदेश की सपा सरकार भी चली गई, और भाजपा सत्ता में आ गई। इधर योगी आदित्य नाथ मुख्यमंत्री बने, और उधर आकाश सक्सेना की लिखी पटकथा पर अभिमंचन का काम शुरू हुआ। एक-एक कर आज़म खां के खिलाफ धड़ाधड़ नब्बे मुकदमे दायर हो गए, जिनमें कई मुकदमों में उनका बेटा और उनकी बीवी भी अभियुक्त हैं। रामपुर के जिस जिला अधिकारी के खिलाफ चुनावी सभा में आज़म खां ने अपमानजनक भाषण दिया था, उसने भी पटकथा के अभिमंचन में सूत्रधार का काम किया। परिणामत: आज़म खां को अपने बेटे और बीवी सहित आत्मसमर्पण करना पड़ा। लगभग ढाई साल जेल में रहने के बाद उन्हें जमानत मिली। और अभी जिस पहले केस में उन्हें तीन साल की सजा हुई है, और जिसकी अपील उनके द्वारा जिला जज एवं सत्र न्यायलय में की गई है, उसी ने रामपुर में उनके राजनीतिक रथ को रोक दिया है। 

हालांकि, अभी यह कहना मुश्किल है कि आज़म खां का सियासी पतन हो गया है। पर इस बात को समझना मुश्किल नहीं है कि उनकी बाकी जिंदगी अब नब्बे मुकदमों में पैरवी करते हुए ही बीतेगी, और जिन मामलों में सजा होगी, उनमें खिलाफ अपील करते हुए। लेकिन इस बात से मेरी सहमति बिल्कुल नहीं है कि आज़म खां के सियासी पतन से मुस्लिम राजनीति का भी पतन हो गया है। मेरे विचार में मुस्लिम राजनीति जैसी कोई चीज न पहले कहीं थी और न भारतीय राजनीति में अब दिखाई दे रही है। असल में तो मुसलमानों ने अपनी राजनीति का विकास अभी किया ही नहीं है।

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