अग्नि आलोक

विभ्रम का राजनीतिक इस्तेमाल और लोकतंत्र का संकट

Share

सामाजिक समरसता और संसाधनिक संतुलन का महत्त्वपूर्ण सवाल अभी भी गैर-भाजपाई राजनीतिक कार्यकर्ताओं के सामने चुनौती के रूप में जस-का-तस बना हुआ है। भारत के पुराने अंतर्विरोधों, विरोधाभासों और विभ्रमों का उभार तथा राजनीतिक इस्तेमाल भारत के संविधान और लोकतंत्र का संयुक्त संकट है। नागरिक जीवन के अन्य बड़े-बड़े संकटों के सूत्र भी कहीं-न-कहीं इसी संकट से जुड़े हैं। देखना दिलचस्प होगा कि इस ऐतिहासिक घड़ी में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में इंडिया अलायंस और उसके राजनीतिक कार्यकर्ता कितनी सावधानी से अपनी भूमिका को पहचानते और अदा करते हैं।

प्रफुल्ल कोलख्यान 

भारत बहुत बड़ा एवं पुराना देश और सही अर्थों में अपेक्षाकृत नया राष्ट्र है। पुराने देश और नये राष्ट्र के भूगोल में अंतर भी है। भारत के लोगों की भावुक सांद्रताओं और सांस्कृतिक तरंगों में पुराने देश के विविध भौगोलिक छाप विद्यमान रहे हैं। किसी देश, राष्ट्र, सभ्यता को समझने के लिए उस के भूगोल, इतिहास, धन-व्यवहार की पद्धति, आजीविका का तौर-तरीका, सृष्टि-संरचना में निहित प्राकृतिक हिस्सेदारों के साथ संबंध, धर्माचरण के आग्रहों के प्रति बदलते दृष्टिकोणों की समझ जरूरी होती है। कहना न होगा कि किसी एक व्यक्ति के लिए यह संभव नहीं हो सकता है, चाहे वह कितना भी समझदार क्यों न हो। मनुष्य की ज्ञान-पद्धति की सीमाओं पर फिर कभी। अभी तो इतना ही कि मनुष्य के मन में पूर्ण बनने की जन्म-जात आकांक्षा होती है। इस असंभव को संभव करना उस के वश में तो होता नहीं, इसलिए पर्याप्त को ही पूर्ण मानने की मानसिकता में रहा करता है। कभी-कभी ज्ञान की पर्याप्तता अपने अ-ज्ञानी होने की प्रतीति की मानसिकता तक भी ले जाती है।

स्वाभाविक है कि जो जहां होता है, अपनी यात्रा वहीं से शुरू कर सकता है। साधारणतः घर परिवार समाज में रहनेवालों की यात्रा में फिर वहीं लौट आने की प्रवृत्ति होती है जहां से वह चला होता है। यह मनुष्य की भौतिक यात्रा के बारे में जितना सच है, मानसिक यात्रा के बारे में भी उतना ही सच है। हम इतिहास तक पहुंचने की कोशिश वहीं से शुरू कर सकते हैं, जहां हम होते हैं। हम वर्तमान में होते हैं। यह सच है कि हमारा भौतिक शरीर तो वर्तमान में होता है लेकिन हम अपनी मानसिकता में कभी अतीत, तो कभी भविष्य के किसी बिंदु पर रह रहे होते हैं।

काल-प्रवाह में वर्तमान के बिंदु पर अपनी मानसिकता को टिकाना बहुत मुश्किल होता है। इसलिए राजनीति का कुत्सित इरादा साधारण नागरिकों को कभी अतीत, तो कभी भविष्य की तरफ खींच ले जाने की कोशिश में लगा रहता है, ऐसा करने में उसे कोई बहुत मुश्किल तब तक नहीं होती है, जब तक नागरिकों के भौतिक अस्तित्व पर कोई बड़ा संकट जोर-जोर से दस्तक न देने लगे। वर्तमान में भारत के लोग लोकतंत्र में हैं और निस्संदेह इस की आबादी के बहुत बड़े हिस्से का नागरिक जन-जीवन अपने अस्तित्व के भौतिक संकट के दौर से गुजर रहा है।

भारत पुराना देश है। यह कई किश्तों में बसा है। भिन्न-भिन्न काल-खंड में विभिन्न नस्लों, रंगों, हुनरों, धर्माचरणों, विभिन्न प्रकार की आस्तिक-नास्तिक परंपराओं से संबंधित लोगों के जत्थों का आना जारी रहा और इस तरह से भारत किश्तों में बसता रहा, बनता रहा। कवि-गुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविता में इस बसाव का बहुत सम्यक विवरण है, हेथाय आर्य, हेथाय अनार्य, हेथाय द्राविड़-चीन, शक-हूण-दल, पठान-मोगल एके देहे होलो लीन। यह सब होने में सदियां लग गई। सदियों के उथल-पुथल, उत्थान-पतन, शत्रु-मित्र, शोषण-पोषण-तोषण की असंख्य शृंखलाओं के घात-प्रतिघात-संघात की असह्य पीड़ाओं को भोगते हुए ‘एक देह में लीन’ होने की अनंत प्रक्रियाएं चलती रही। इन प्रक्रियाओं में भूगोल, इतिहास, धन-व्यवहार की पद्धतियों, आजीविका के तौर-तरीकों, सृष्टि-संरचना में निहित प्रकृति के विपुल तत्वों, अन्य प्राणियों के सह-अस्तित्व, प्राकृतिक उपादानों, हिस्सेदारों के साथ संबंध, धर्माचरणों के आग्रहों के प्रति बदलते दृष्टिकोणों की अपनी भूमिका रही है।

अलग-अलग तरह की जीवन स्थितियों के बीच विकसित आस्था और विश्वास के विभिन्न और भिन्न तरह के मामला में अंतर्विरोधों, विरोधाभासों और विभ्रमों के विघटनकारी प्रभाव के लिए भी पर्याप्त जगह की कोई कमी नहीं होती है। भारत की संस्कृति में उपस्थित पवित्र सहमिलानी प्रवृत्ति नैसर्गिक रूप से विघटनकारी प्रभाव को निष्क्रिय करती रही। विघटनकारी प्रवृत्ति को निष्क्रिय करने की यही सांस्कृतिक दक्षता भारतीयता का सांस्कृतिक हुनर है। इस अर्थ में भारतीयता किसी भी तरह की बाल्कनीकरण (Balkanisation) से बचाव का एक सांस्कृतिक हुनर है। भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति के बनने में इस सांस्कृतिक हुनर के सार के अखंड प्रवाह का अमित योगदान है। इस गंगा-जमुनी संस्कृति के प्रवाह की जबरदस्त राजनीतिक अभिव्यक्ति 1857 के ‘मुक्ति संग्राम’ में हुई थी।

कंपनी ने जैसे-तैसे 1857 के ‘मुक्ति संग्राम’ पर काबू पा लिया। कंपनी का शासन खत्म हुआ, भारत का शासन सीधे ब्रिटिश हुकूमत के हाथ में आ गया। अचंभित ब्रिटिश हुकूमत को भारतीय लोगों की इस सांस्कृतिक और राजनीतिक एकता का रहस्य तत्काल समझ में नहीं आया। 15 जनवरी 1784 को विलियम जोन्स के द्वारा स्थापित ‘एशियाटिक सोसाइटी’ के माध्यम से कराये गये विभिन्न अध्ययनों के निष्कर्षों से ब्रिटिश हुकूमत के सामने यह रहस्य खुल गया। वे भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति की शक्ति को समझ गये। यह स्वाभाविक बात है कि जब किसी की शक्ति का रहस्य खुल जाता है तो उस की कमजोरी भी छिपी नहीं रह पाती है।

ब्रिटिश हुकूमत ने भारत के अंतर्विरोधों, विरोधाभासों और विभ्रमों के विघटनकारी तत्वों को उस के हवा-पानी में जहर मिलाकर देना शुरू कर दिया। भारत के बसाव के सब से ऊपरी परत पर जहर ने अपना काम करना शुरू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि हिंदू-मुसलमान के बीच विघटनकारी तत्व जाग गया। मुहम्मद अली जिन्ना जैसे नेताओं ने इस जहर की क्षमता को बहुत अधिक बढ़ा दिया। भारत के बसाव के अन्य परतों पर भी इस जहर का थोड़ा-बहुत प्रभाव पड़ना शुरू तो हुआ लेकिन डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर, महात्मा गांधी, सरदार पटेल, नेहरु आदि के कारण हिंदू-मुसलमान के अलावा कोई तत्व देश-विभाजन तक नहीं पहुंचा।

यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि 1857 की ‘रक्त-सनी’ जमीन पर ही राष्ट्र पिता महात्मा गांधी के ‘सत्य अहिंसा’ का राजनीतिक फूल खिला था। इस फूल की सुगंध जिन्हें भी लगी उन्होंने पुराने देश के नये राष्ट्र में बदलने के लिए स्वतंत्रता आंदोलन की राजनीतिक प्रक्रिया में अपना तन-मन-धन समर्पित कर दिया। लेकिन बेहतर भोजन और काम की बेहतर स्थिति की मांग से शुरू हुआ आंदोलन 18 फरवरी 1946 के बाद अपने राष्ट्रवादी मांग की तरफ बढ़ते हुए ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बगावत में बदलने लगा। नेता जी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज से लगाव और मजदूर संगठनों, कम्युनिस्ट नेताओं की भूमिका ने इसे और प्रभावी बना दिया था। बगावत पर काबू तो ब्रिटिश हुकूमत ने पा लिया लेकिन उनकी समझ में आ गया कि महात्मा गांधी और कांग्रेस का होना उन के बचाव का पक्का आश्वासन नहीं हो सकता है।

आंदोलन के तप और ताप से निकले नेताओं और संविधान सभा के सदस्यों ने इस बात के महत्व को ठीक-ठीक समझा कि नये राष्ट्र के लिए पुराने देश के अंतर्विरोधों, विरोधाभासों और विभ्रमों में निहित विघटनकारी तत्वों और प्रसंगों से मुक्ति पाना बहुत जरूरी है। इस अर्थ में भारत राष्ट्र का अपने-आप से भी कोई कम मुकाबला नहीं था। भारत के संविधान में जान-बूझकर और बहुत सचेत भाव से इस के लिए कोशिश की गई। आजादी के आंदोलन के दौरान लगभग सभी भारतीय भाषाओं का कहीं-न-कहीं जमकर इस्तेमाल हुआ। लेकिन संविधान सभा की भाषा इंग्लिश रखी गई तो इस के अपने कारण रहे हैं।

सब से बड़ा कारण तो यह भी रहा होगा कि समान ध्वनि और वर्तनी के विभिन्न शब्द विभिन्न भाषाओं में अलग-अलग और कभी-कभी विपरीत अर्थ देते हैं, तो अर्थ के भ्रम से बचने का सुगम उपाय इंग्लिश का इस्तेमाल ही था। दूसरी बात यह भी कि नये राष्ट्र के संविधान के लिए उपयोगी अधिकतर स्रोत सामग्री भी इंग्लिश में ही उपलब्ध रही होगी। ऐसी कई बातों और संविधान के महत्त्वपूर्ण प्रावधानों के कारण राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ, जिस की कोई बहुत बड़ी भूमिका आजादी के आंदोलन में नहीं थी, के लोगों ने भारत के संविधान में कुछ भी भारतीय न होने की बात उठाने लगे।

पिछले दो बार अपराजेय बहुमत के बल पर ‘जैसा मन वैसा’ करने का हौसला बना चुकी भारतीय जनता पार्टी इस संविधान में भारी बदलाव की तरफ बढ़ रही थी। कुछ बदलाव किया भी गया। लेकिन संविधान के बुनियादी ढांचा की अ-परिवर्तनीयता का संदर्भ उनके अपने लोगों के बीच भी हौसले को हुस्स कर देता है। सर्वसत्तावाद की झोंक का ही नतीजा था कि नरेंद्र मोदी का इरादा ‘संविधान में बदलाव’ से आगे बढ़कर ‘संविधान के बदलाव’ का हो गया। भारत का संविधान ‘संविधान में बदलाव’ का तो रास्ता देता है लेकिन ‘संविधान के बदलाव’ का रास्ता नहीं देता है। संवैधानिक पद पर आरोहण के पहले ही संविधान के प्रति ‘सच्ची श्रद्धा’ और रक्षा का विधि-पूर्वक शपथ लेना होता है। अब तो खैर 240 में सिमट जाने के बाद फिलहाल तो वह इरादा कोई प्रासंगिकता नहीं रखता है।

लेकिन यह तो सावधानी से समझना ही होगा कि संकट पूरी तरह से टला नहीं है। नरेंद्र मोदी के पिछले शासन-काल में कौन-सा खतरा उभर गया था? खतरा यह था कि आजादी के बाद भारत के अंतर्विरोधों, विरोधाभासों और विभ्रमों के विघटनकारी तत्वों को संविधान को आत्मार्पित करते हुए “हम भारत के लोग” ने भुला दिया था, उसे फिर से ब्रिटिश हुकूमत की राजनीतिक शैली को ‘अपडेट’ करते हुए, जगाने और ताकत देने की परियोजना में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी को लगा दिया गया था।

इस के लिए पारंपरिक रूप से राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ की विचारधारा के बाहर के नेता लोगों को भारतीय जनता पार्टी ने अपनी झोली में भरना शुरू कर दिया था। सत्ता का लोभ और विभागीय कार्रवाई से संरक्षण के दो प्रमुख औजार काम में लाये जा रहे थे। यह परियोजना अभी पूर्ण रूप से बंद नहीं कर दी गई है, न स्थाई तौर पर इरादा बदल गया है। हां, बहुत महत्त्वपूर्ण अंतर यह जरूर आया है कि इस परियोजना के लिए पिछले शासन-काल जैसा खुला सत्ता-समर्थन शायद मुश्किल हो। सत्ता-समर्थित पूंजीवाद, मीडिया घराना और अराजक तत्व के साथ की तमन्ना अभी बाकी है।

सामाजिक समरसता और संसाधनिक संतुलन का महत्त्वपूर्ण सवाल अभी भी गैर-भाजपाई राजनीतिक कार्यकर्ताओं के सामने चुनौती के रूप में जस-का-तस बना हुआ है। भारत के पुराने अंतर्विरोधों, विरोधाभासों और विभ्रमों का उभार तथा राजनीतिक इस्तेमाल भारत के संविधान और लोकतंत्र का संयुक्त संकट है। नागरिक जीवन के अन्य बड़े-बड़े संकटों के सूत्र भी कहीं-न-कहीं इसी संकट से जुड़े हैं। देखना दिलचस्प होगा कि इस ऐतिहासिक घड़ी में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व में इंडिया अलायंस और उसके राजनीतिक कार्यकर्ता कितनी सावधानी से अपनी भूमिका को पहचानते और अदा करते हैं।

Exit mobile version