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जुगाड़ू है सियासत?

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शशिकांत गुप्ते

महाराष्ट्र के प्रख्यात साहित्यकार,
व्यंग्यकार, निर्भय पत्रकार हाजिर जवाबी स्व. प्रहलाद केशव अत्रेजी के एक व्यंग्य का स्मरण हुआ।
अत्रेजी ने लिखा है,गणित के शिक्षक को कभी भी बाजार में खरीदारी (shopping) के लिए नहीं भेजना चाहिए, कारण गणित का शिक्षक खरीदारी करने के बाद सिर्फ टोटल चेक करता है। भावताव नहीं करता है। मतलब उसे बाजार के भाव से कोई सरोकार नहीं होता है।
आज सियासत में यही हो रहा है।
सियासत में विरोध के स्वरों को गालियों की उपमा दी जा रही है,और गालियों की गिनती की जा रही है।
गालियों की गिनती सियासी मुद्दा है, लेकिन देश में बढ़ती महंगाई पर लगाम लगाने का माद्दा हमारे पास नहीं है।
हमारी स्मृति में, हमें सन दो हजार चौदह के पूर्व महंगाई स्पष्ट समझ में आती थी,तब हम महंगाई को डायन उपाधि से विभूषित कर विरोध करने के लिए सड़कों पर नाचते गाते थे। यह विरोध करने का नायाब तरीका था। महंगाई का विरोध या जश्न था यह आज स्पष्ट हो रहा है?
अब तो सार्वजनिक पटल पर हमारी स्मृति सिर्फ मलिन नहीं हुई है,अदृश्य हो गई है।
किसी युवती के पार्थिव शरीर को भारतीय संस्कार,संस्कृति के विपरित मध्य रात्रि मिट्टी के तेल से तरबतर कर अनल को समर्पित कर दिया जाता है।
देश का नाम रोशन करने वाली युवतियों की अस्मत पर हमला होने पर भी हमारी स्मृति गहरी नींद में सोती है।
ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर मुंह में दही जमने वाली कहावत चरितार्थ हो रही है।
आज बेरोजगारों की गिनती देश के सियासी पटल से गायब है।
इनदिनों सिर्फ और सिर्फ वोटों की गिनती का ही गणित लोकप्रिय है।
वोटों की गिनती के लिए केलकुलेटर की आवश्यकता नहीं होती है,ई वी एम मशीन ही बहुमत की संख्या का जुगाड कर देती है?
जुगाड शब्द का अर्थ होता है।
किसी समस्या को हल करने का एक त्वरित और अभिनव तरीका
जुगाड व्यंग्यात्मक अर्थ होता है,
Manipulation,चालाकी
इनदिनों सच में किसी नहीं हर एक समस्या के लिए उक्त अभिनव तरीके को ही अपनाया जा रहा है।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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