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*सत्ता और समाज : पहचान की राजनीति*

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        ~ पुष्पा गुप्ता 

पहचान की राजनीति  (Identity Politics) अपने हर रूप में बुर्जुआ वर्ग और उसकी राज्यसत्ता की ही सेवा करती है। आज़ादी के बाद तीन दलित राष्ट्रपति पद पर रह चुके हैं । दर्ज़नों केंद्र में मंत्री रह चुके हैं। पर इससे दलितों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया। अब फ़ासिस्ट सत्ता के सूत्रधारों ने एक आदिवासी स्त्री को राष्ट्रपति पद पर बैठाया है।

       कोई गोबरगणेश ही सोच सकता है कि इससे आदिवासियों की जीवन-स्थिति में कोई फर्क पड़ेगा। आदिवासी समुदाय दशकों से अपनी जगह-ज़मीन से बेदखल किया जा रहा है।

      विरोध की आवाज़ उठाने पर माओवादी होने का ठप्पा लगाकर उन्हें जेलों में ठूँस दिया जाता है। उनके गाँव के गाँव उजाड़ दिये जाते हैं। आगे भी यह सिलसिला जारी रहेगा। कोई फर्क नहीं पड़ेगा।

आइडेंटिटी पॉलिटिक्स के अलमबरदार और बहुतेरे अंबेडकरवादी बुद्धिजीवी यह कहते मिल जायेंगे कि सत्ता में भागीदारी से दलितों की स्थिति बदल जायेगी। सवाल यह है कि किस सत्ता में भागीदारी से? बुर्जुआ राज्यसत्ता में उत्पीड़ित समुदायों के चंद लोगों की भागीदारी से बुर्जुआ राज्यसत्ता का चरित्र नहीं बदल जायेगा।

     वह हर हाल में बुर्जुआ वर्ग की ही सेवा करेगी। उत्पीड़ित समुदायों में से शासक वर्ग हमेशा कुछ अगुआ तत्वों को चुनकर राज्यसत्ता के अहलकार का काम दे देता है। फिर वे दैत्याकार राज्य मशीनरी के ही कल-पुर्ज़े बन जाते हैं।

     इससे राज्यसत्ता के सामाजिक आथार और अवलंबों का विस्तार हो जाता है जो उसके टिकाऊपन की एक बुनियादी गारंटी होता है। बुर्जुआ संसदीय राजनीति में अबतक जितनी भी दलित हितों की दुहाई देने वाली पार्टियाँ आयीं, उन्होंने बुर्जुआ वर्ग की ही सेवा की।

     दलितों के बीच से उभरे मुट्ठी भर बौद्धिक अभिजातों को थोड़ी मलाई चाटने का मौका देने के अतिरिक्त उन्होंने आम मेहनतकश शोषित-उत्पीड़ित बहुसंख्यक दलितों के विभ्रमों को बढ़ाने और उनकी रेडिकल परिवर्तनकामी चेतना को कुंद करने का ही काम किया।

जबतक चीज़ों को वर्गीय नज़रिए से नहीं देखा जायेगा तबतक सामाजिक उत्पीड़न के सभी रूपों की ऐतिहासिक समस्या के वैज्ञानिक और व्यावहारिक निराकरण को समझना नामुमकिन होगा। मज़दूर वर्ग और सभी मेहनतकशों की वर्गीय लामबंदी के साथ ही दलितों, स्त्रियों, आदिवासियों और अन्य तमाम उत्पीड़ित समुदायों की मुक्ति के जुझारू आंदोलन संगठित किये जा सकते हैं।

    1950 तक कम्युनिस्ट आंदोलन अपनी विचारधारात्मक कमज़ोरियों के कारण, ईमानदारी और कुर्बानियों के बावजूद ऐसा न कर सका। बाद के कालखण्ड में संसदमार्गी नकली कम्युनिस्टों से तो यह उम्मीद ही नहीं की जा सकती थी। लेकिन इतना तय है कि वर्ग संघर्ष के फ्रेमवर्क में ही जाति-उन्मूलन की कोई क्रांतिकारी व्यावहारिक परियोजना बनाई जा सकती है और उसे अमली जामा पहनाया जा सकता है।

     भारतीय समाज की इस घृणित पुरातन व्याधि के नाश का भविष्य भी इस बात पर निर्भर करता है कि राख से जन्म लेने वाले फ़ीनिक्स पक्षी की तरह कम्युनिस्ट आंदोलन का क्रांतिकारी पुनरुत्थान यहाँ कब और कैसे होगा!

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