मनीष सिंह
धी का डैथ वारंट…वारंट पर दस्तखत खुद गांधी के थे. सजा तय कर दी थी, बस मौत का समय तय होना था. तय हुआ 25 जून 1934…! पूना के विश्रामबाग में हत्या तय हुई. डैथ वारंट, याने मौत के उस परवाने को पूना पैक्ट कहते हैं.
इस पैक्ट में गांधी ने, दलितों को मांग से दोगुनी सीट दे दी थी. दूसरे पक्ष, याने अम्बेडकर को सेपरेट इलेक्टोरेट से 65-70 सीट, दलितों के लिए मिलने की आशा थी.
गांधी सेपरेट इलेक्टोरेट के पक्ष में नहीं थे, क्योंकि यह हिन्दुओं को बांटने की बात होती. अगर सीट ही चाहिए, तो हम बिना सेपरेट इलेक्टोरेट के 149 सीट रिजर्व कर देंगे- ऑफ़र किया.
दोगुनी सीट कौन छोड़ता. अम्बेडकर को मानना ही था. समझौता हो गया. लेकिन ये समझौता, डैथ वारंट बनना था. एक्स्ट्रा सीटें सवर्ण हिन्दुओं की जेब से जो निकलनी थी.
सवर्णों में गांधी के प्रति चिढ़, गुस्सा और नफरत फैल गयी. पर गांधी को फर्क न पड़ा. वे तो वे जेल से छूटते ही अछूतोद्धार यात्रा पर निकल गए.
असहयोग आंदोलन, चंपारण, अहमदाबाद मिल, सविनय अवज्ञा, भारत छोड़ो आंदोलन के बारे में आपको पता है. पर क्या आपने कभी खोजा कि गांधी 1932 के बाद, जब भी जेल से बाहर रहे, कौन सा काम करते रहे ?? हरिजन यात्रा.
जो मुझसे पूछ रहे थे, गांधी ने दलितों के लिए क्या किया ?? सर्च कर लें. अछूतोद्धार की यात्रा, कम चर्चित पहलू है.
दरअसल सीटें, पद और आरक्षण से कुछ नहीं होता. 70 सालों में आज सैकड़ों दलित और आदिवासी MLA, MP, CM हो चुके. मंत्री, अफसर, पुलिस, प्रोफेसर, कलेक्टर, जज हो चुके.राष्ट्रपति भी हो चुके. दलित दिल पर हाथ रखकर कहें- क्या सम्मान मिल गया, बराबरी मिली ?? पद पर बैठकर भी क्या अपमान नहीं झेलते ??
अम्बेडकर को भरोसा था- बिलों, कानूनों और राजनीतिक अधिकारों से स्वर्ण-अवर्ण का भेद मिट जाएगा. गांधी ने उन्हें यह करने का अवसर दिया- पूना पैक्ट से,और कानून मंत्री बनवाकर. लेकिन गांधी हिंदुओं को बेहतर जानते थे. जानते थे, भेदभाव सिर्फ बिल से नहीं मिटेगा, दिल से मिटाना होगा. हरिजन यात्रा, जनता और समाज को यही समझाने की कोशिश थी.
तो 1933-34 में वो भारत घूम रहे थे. अंग्रेजों के खिलाफ नहीं, दलितों और सवर्णो के बीच सदियों से बनी मानसिक खाई को भरने के लिए, हिन्दूओं को एकता और बराबरी का संदेश देने के लिए. बेझिझक अपनी सीट पर एक दलित को अपना प्रतिनिधि चुनने का दम देने के लिए…और इसका नतीजा उन्हें भुगतना था.
तिलक का अखबार केसरी, उनकी मृत्यु के बाद उनके दामाद के पास था. वे हिन्दू महासभा से जुड़े था. कल्याण (गीताप्रेस) केसरी और उस समय के सारे अखबार, पत्रिकाएं जो ज्यादातर सवर्णो के हाथ में थे- गांधी के विरूद्ध गोदी मीडिया बन गए.
पहली बार गांधी को हिन्दू विरोधी बताना, मुसलमान समर्थक कहना, उनकी बातों का अन्यार्थ निकाल कर आलोचना करना शुरू हुआ. इस नफरत का गढ़ पूना था. और यहीं उनकी हत्या का पहला प्रयास हुआ. दूसरा, तीसरा, पांचवां भी. छठा सफल प्रयास भी इन्हीं लोगों ने किया.
गांधी की हरिजन यात्रा सीमित सफल रही. एक तबके में अस्पृश्यता के विरुद्ध जागृति आयी. कम से कम गांधी के भक्त समर्थक, अपने जीवन में इसे उतारने की कोशिश करने लगे.
मद्रास में कांग्रेस सरकार ने ‘सिविल डिसेबिलिटी एक्ट’ खत्म किया. जी हां-वहां कानूनन दलितों को सार्वजनिक सेवाओ का उपयोग करने की मनाही हुआ करती थी. फिर मालाबार टेंपल एंट्री एक्ट पास किया. इसमें अछूतों को मन्दिर प्रवेश की कानूनी अधिकारिता मिली.
यात्रा की कोशिश, दलितों के भीतर भी ताकत लाने की थी. उनमें शिक्षा, साफ सफाई और एकता का संदेश दिया. दलित भी नेशनल मूवमेंट और कांग्रेस से जुड़े. उस दौर का सबसे बड़ा चेहरा, गांधी उनके पक्ष है – ये बात उन्हें तनकर खड़े होने के लिए बड़ी हिम्मत देती.
यात्रा पूना में थी. विश्रामबाग सभा में गांधी जा रहे थे. दो कारें थी. पहली कार आगे निकल गयी. दूसरी कार, रेलवे क्रासिंग की वजह से रुक गयी. गांधी दूसरी कार में थे. पहली कार पर, गांधी के होने की उम्मीद में बम फेंका गया. 2 पुलिसवाले, नगरपालिका अध्यक्ष और अन्य सात लोग बुरी तरह घायल हुए. 25 जून 1934 को रेलवे क्रासिंग ने गांधी को बचा लिया. पर 30 जनवरी 1948 को नहीं.
गांधी को अंग्रेजों ने नहीं मारा. मुसलमानों ने नहीं मारा. बंटवारे, दंगे, 55 करोड़, गलियारा या किसी और कारण ने नहीं मारा. अंग्रेजी सत्ता हटते ही, एक सवर्ण हिन्दू ने मारा. वही हिन्दू जो पिछले 16 साल से उन्हें मारने की फिराक में था.
जी हां- गांधी पर बम फेंकने वाले उस दिन पकड़े नहीं गए, मगर गांधी के सचिव प्यारेलाल लिखते है कि इस षड्यंत्र में गोडसे शामिल था. हां, तो कोई पूछ रहा था, कि गांधी ने दलितों के लिए क्या किया है…?