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सत्ता मोदी की सबसे बड़ी कमजोरी

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अरुण माहेश्वरी 

ईश्वर मर गया है। अब ऐसा लगता है कि उसकी प्रेत छाया मंडराती रहेगी।’ नीत्शे का यह कथन तब यथार्थ में साफ़ नज़र आया जब एनडीए की सभा में मोदी के भाषण से मोदी उड़ गया और एनडीए छा गया।

सीएसडीएस का ताज़ा सर्वे बताता है कि उत्तर प्रदेश की जनता में प्रधानमंत्री के रूप में राहुल गांधी उनकी पहली पसंद हैं। मोदी राहुल से पीछे हैं। राहुल को चाहने वालों की संख्या 36 प्रतिशत हो गई है और मोदी को पसंद करने वालों की संख्या 32 प्रतिशत रह गई है। 

ज़ाहिर है कि मोदी अब एक पतनोन्मुख शक्ति है। सत्ता उनकी सबसे भारी कमजोरी है। इसके विपरीत राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस दल उर्ध्वमुखी विकास के घोड़े पर सवार हो गया है। सत्ता का न होना अभी उसकी उड़ान को आसान बनाता है। 

डूबते हुए शासक दल के पूरी तरह से डूबने से बचने में उसके पास राजसत्ता का होना एक भारी बाधा की भूमिका अदा करता है और उदीयमान विपक्ष के विस्तार के लिए राजसत्ता का अभाव तीव्र प्रेरणा का काम करता है। 

इस 2024 के चुनाव ने विपक्ष और पीड़ित जनता के मिलन का एक वैसा ही दृश्य पेश किया है जैसा फ़िल्मों में खलनायक की डरावनी बाधा को पार कर प्रेमी और प्रेमिका के मिलन का दृश्य होता है। इस चुनाव में विपक्ष के प्रति जनता का आवेग बिछड़े हुए प्रेमी-प्रेमिका के मिलन के आवेग से कमतर नहीं था। यह प्रेम ही आगे एक नई राजनीति के निर्माण की ज़मीन तैयार करेगा। 

मोदी ने अपनी तमाम जनतंत्र-विरोधी करतूतों से राजनीति के सामने वह चुनौती पैदा की थी जिसका मुक़ाबला करके ही विपक्ष और जनता के मिलन की आकांक्षा की पूर्ति हो सकती थी। चुनौती स्वयं में ही किसी भी इच्छा और ज़रूरत का कम बड़ा कारक नहीं होती है।

यह चुनाव एक घटना है क्योंकि इसने भारत के ऐसे सत्य को सामने ला दिया है जिसे पहले जान कर भी लोग मानने को तैयार नहीं थे। यह अनेकों के लिए किसी इलहाम से कम साबित नहीं होगा। जीवन में इसे ही घटना कहते हैं। 

दुनिया की किसी भी घटना का अर्थ उसके घटित होने में नहीं, उससे दुनिया को देखने-समझने के हमारे नज़रिये में हुए परिवर्तन में निहित होता है। मोदी की इस हार से जाहिरा तौर पर भारत के लोगों के दिमाग़ों की जड़ता टूटेगी। जब लोग अपनी अंतरबाधाओं से मुक्त होंगे, तभी उन्हें जीवन की गति की तीव्रता का अहसास होगा। सामान्य जीवन की शक्ति का परिचय अंदर की जड़ताओं से मुक्ति के बाद ही संभव होता है। 

परिप्रेक्ष्य के बदलने के साथ ही जिसे कोरी फैंटेसी समझा जाता था, वही सबसे जीवंत, ठोस यथार्थ नज़र आने लगता है। इस चुनाव के बीच से अब जनतंत्र, धर्म-निरपेक्षता, समानता और नागरिकों की स्वतंत्रता संविधान की किताब की सजावटी इबारतें भर नहीं, दैनंदिन राजनीति के संघर्ष के जीवंत मसले बन गये हैं। स्वयं संविधान आम मेहनतकश जनता के संघर्ष का हथियार बन चुका है।

भारत जोड़ो यात्रा 

पिछले दिनों राहुल और उनकी भारत जोड़ो यात्रा ने देश के डरावने और निरंकुश हालात में एक प्रमुख दिशा सूचक संकेतक की भूमिका अदा की। राजनीति की दिशाहीनता ख़त्म हुई, उसे अर्थ से जुड़ी स्थिरता मिली। 

भारत जोड़ो यात्रा का रास्ता कठिन था पर यह किसी को भी हंसते हुए राजनीति की इस कठिनाई को झेलने के लिए तैयार करने का एक सबसे प्रभावी रास्ता भी था। इस ओर बढ़ने में कोई बुराई नहीं है, यही बात इस लड़ाई में तमाम लोगों के उतर पड़ने के लिए काफ़ी थी।

भारत जोड़ो यात्रा की राजनीति वास्तव में कोई सुरक्षा कवच में आरामतलबी की राजनीति नहीं थी। इसमें कोई जादू भी नहीं था कि छड़ी घुमाते ही फल मिल जायेगा। यह किसी भी अघटन के प्रति अंधा भी नहीं बनाती थी। पर इतना तय है कि यह किसी भी अघटन के डर से बचाती थी। ‘डरो मत’ का राहुल का नारा इसका एक प्रमुख लक्ष्य भी था। 

भारत जोड़ो यात्रा ने ही प्रेम और संविधान को राजनीति का समानार्थी शब्द बना दिया। इस प्रकार, इसने सभ्यता के मूल्यों के अंत और जीवन में तबाही की आशंका का एक समुचित उत्तर पेश किया। इन यात्राओं का यह एक सबसे महत्वपूर्ण सर्वकालिक पहलू रहा है। 

अब मोदी की राजनीति के दुष्प्रभावों से बचने का एक सबसे उत्तम उपाय यह है कि हम समझ लें कि इस राजनीति में भारतीय जीवन के यथार्थ का लेशमात्र भी नहीं है। वह समग्रतः एक निरर्थक बकवास है। व्हाट्सअप विश्वविद्यालयों के ज्ञान की तरह की ही झूठी बकवास। और चूंकि कोरी बकवास से कभी कोई संवाद संभव नहीं होता है, इस राजनीति से भी कोई संवाद नहीं हो सकता है। इससे सिर्फ़ संघर्ष ही हो सकता है। 

मोदी अभी कुछ दिन और प्रेत बन कर हमारे सर पर मंडरायेंगे। पर बहुत ज़्यादा दिनों तक नहीं। उन्हें दफ़नाने की सारी रस्म अदायगी भी जल्द ही पूरी हो जायेगी। 

मोदी का फिर से प्रधानमंत्री बनना ही साबित करता है कि पूरी बीजेपी भारत की जन-भावनाओं के खिलाफ खड़ी हो गई है। इसीलिए जनतंत्र में अब उसकी कोई भूमिका नहीं बची है। उसकी जगह अब सिर्फ़ इतिहास के कूड़ेदान में है। 

जिन राहुल गांधी से उनकी संसद की सदस्यता को जबरन छीन लिया गया था, अब वे बाकायदा लोक सभा में विपक्ष के नेता होंगे। और जैसा कि सीएसडीएस का सर्वे संकेत दे रहा है, वे शीघ्र ही भारत के प्रधानमंत्री भी होंगे। कभी नेहरू जी को भारत के युवाओं का हृदय सम्राट कहा गया था, आज राहुल को कहा जाने लगा है। राजनीति के भविष्य का अनुमान लगाने के लिए इतना ही काफ़ी है। 

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