अग्नि आलोक

प्रभाष जोशी: नए परिप्रेक्ष्य में गंभीरता से विचार करने, अनुसंधान करने की जरुरत

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जगदीश्वर चतुर्वेदी

प्रभाष जोशी हिन्दी के बड़े गद्यकार, संपादक और विचारक हैं. उनके गद्य को आधुनिक हिन्दी साहित्य और मीडिया के पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने की जरुरत है और उनके लिखे पर नए सिरे से मीडिया, खासकर इंटरनेट और वर्चुअल रियलिटी के नए परिप्रेक्ष्य में गंभीरता से विचार करने, अनुसंधान करने की आवश्यकता है. इस क्रम में साहित्य और मीडिया में गद्य लेखन के नए रुप और नई संभावनाओं पर विचार करने के लिए नए सवाल जन्म लेंगे.

साथ ही प्रभाष जोशी को लेकर जो पूजाभाव है या उपेक्षा भाव है, इन दोनों से मुक्ति मिलेगी. उनका गद्य आधुनिक गद्य का शानदार उदाहरण है. उससे बहुत कुछ सीख सकते हैं और उनके नज़रिए के अंतर्विरोधों से बचते हुए नए प्रगतिशील मार्ग पर चल सकते हैं. इससे हमें पत्रकारिता को रूढ़िवाद और सत्तापंथी भावबोध इन दोनों से मुक्ति दिलाने में सफलता मिलेगी.

यूजर जब भी नेट पर लिखता है, अथवा किसी लेखक के लिखे पर प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त करता है तो वह संवाद नहीं करता बल्कि भाषायी खेल खेलता है. नेट के वर्चुअल पन्‍ने पर लिखे संदेश, लेख या टिप्‍पणी को जब आप पढ रहे होते हैं तो आप अकेले नहीं पढ रहे होते हैं, आप जब प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त कर रहे होते हैं तो एक ही साथ अनेक लोग प्रतिक्रिया व्‍यक्‍त कर रहे होते हैं. ऐसे में यूजर के सामने कोई नहीं होता सिर्फ वर्चुअल पन्‍ने पर लिखा संदेश होता है जिसके साथ प्रतिक्रियाओं का आदान प्रदान चलता है.

नेट पर प्रभाष जोशी, राजेन्‍द्र यादव, नामवर सिंह आदि किसी के भी बारे में पढें या लिखें, यह संवाद नहीं खेल है, वैसे ही जैसे आप नेट पर गेम खेलते हैं. जैसे नेट पर गेम खेलते हुए एक नहीं हजारों यूजर एक ही साथ खेलते हैं, आप भी खेलते हैं. नेट संवाद वर्चुअल बहुस्‍तरीय भाषायी खेल है. ऐसे में आप वर्चुअल पन्‍ने को सम्‍बोधित करते हैं, किसी व्यक्ति को नहीं. आप इसी पन्‍ने के साथ खेल रहे होते हैं. यह ऐसा संवाद है जिसमें दो नहीं, दो से ज्‍यादा लोग एक ही साथ संवाद कर रहे होते हैं. यहां सारा खेल वर्चुअल पाठाधारित होता है.

इस भाषायी खेल में भाग लेने वालों को अपने ऑनलाइन व्‍यक्‍तित्‍व को ‘नाम’ के पीछे छिपाना होता है. यह ‘नाम’ सही, गलत, असली, नकली कुछ भी हो सकता है. हमारे तमाम युवा जोश में अनाप-शनाप टीका-टिप्‍पणी करते हैं. वे समझते हैं वे किसी से साक्षात बातें कह रहे हैं, जबकि वे साक्षात किसी से नहीं कहते बल्कि वर्चुअल पन्‍ने से कह रहे होते हैं. वे सोचते हैं, उन्‍होंने साक्षात किसी को गाली दे दी, लेकिन वे साक्षात किसी व्यक्ति को नहीं वर्चुअल पन्‍ने के सामने राय जाहिर कर रहे होते हैं.

नेट गेम के तो कुछ नियम भी हैं, मानवीय वर्चुअल संवाद या भाषायी खेल का कोई नियम नहीं है. यह नियम रहित संवाद है. इसमें संवाद के औपचारिक नियमों का भी पालन नहीं होता क्योंकि यह वर्चुअल संवाद है. इस संवाद में भाग लेने वाला किसी एक विषय, एक क्षेत्र तक सीमित नहीं रहता. वह इधर-उधर विचरण करता है, इधर उधर की हांकता है.

वर्चुअल संवाद की लगाम उसके हाथ में होती है जिसके पास पाठ के नियंत्रण की चाभी होती है. यूजर के हाथ में इसकी चाभी नहीं होती. आमतौर पर संवाद करने वालों के हाथ में संवाद का नियंत्रण होता है, नेट में ऐसा नहीं होता. नेट संवाद का नियंत्रक वह है जिसके हाथ में पाठ का नियंत्रण है. यह ऐसा संवाद है जो आर्थि‍क उत्‍पादन करता है. इस संवाद में यूजर का प्रत्‍यक्ष अप्रत्‍यक्ष पैसा खर्च होता है.

संवाद को संप्रेषित करने वाले सर्च इंजन मालिकों से लेकर नेट सेवा प्रदाता तक सभी को इससे बेशुमार लाभ होता है. यह लाभ छनकर नीचे तक आता है. इस अर्थ में नेट संवाद उत्‍पादक होता है. नेट संवाद में उम्र, जाति, धर्म, नस्‍ल, सामाजिक हैसियत आदि का कोई महत्‍व नहीं है. इसके बावजूद संवाद में भाग लेने वाले यूजर हमेशा उम्र, जाति, धर्म, नस्‍ल, रंग, आदि के सवाल वैसे ही उठाते हैं जैसे वे वाचिक संवाद या लेखन में उठाते हैं.

मजेदार बात यह है कि नेट संवाद में लिंग भी नहीं होता. आप यदि संवाद करने वाले को नाम से ‘स्‍त्री’ या ‘पुरूष’ के रूप में सम्‍बोधित करते हैं तो यह सही नहीं है. सुविधा के लिए करते हैं तो कोई बात नहीं है, वरना वर्चुअल पन्‍ने पर कोई लिंग नहीं होता, खाली संदेश होता है, आप संदेश को सम्‍बोधित करते हैं. वर्चुअल में जो भी बातें करने आया है उसे मरना ही है, वह जीवित नहीं होता. लिखते ही आप मर जाते हैं, खाली लिखा ही बचता है. वह भी जब पाठ का मालिक हटा देता है तो वह भी मर जाता है.

सुविधा के लिए ‘ऑनलाइन’ जो है वह ‘ऑफ लाइन’ से भिन्‍न है. आप जैसा ऑनलाइन व्‍यवहार करते हैं, ऑफ लाइन वैसा व्‍यवहार नहीं करते. इन दोनों में बुनियादी अंतर है. ऑनलाइन आप किसी से नहीं मिलते, सिर्फ वर्चुअल पन्‍ने से संवाद रूपी खेल खेलते हैं. इस खेल का सेतु है वेबसाइट. यह वर्चुअल जगह है, ठोस जगह नहीं है. यहां कोई नहीं है. बोलने वाला और सुनने वाला कोई नहीं है, यहां महज वर्चुअल संवाद है.

‘ऑनलाइन’ में शामिल व्यक्ति की इमेज पाठ से बनती है, पाठ के बाहर से नहीं, लेकिन यथार्थ इमेज के साथ इसका कोई मेल नहीं है. आप कुछ भी कहना चाहेंगे तो आपको मोबाइल, कम्‍प्‍यूटर और इंटरनेट कनेक्‍शन चाहिए. एक जगह चाहिए, एक पता चाहिए, संपर्क सूत्र चाहिए और यह सब चाहिए वर्चुअल स्‍थान में. इस अर्थ में वर्चुअल संवाद मंहगा है, इसके लिए पैसा चाहिए. यह सारी प्रक्रिया वर्चुअल वातावरण में चल रही है, यथार्थ वातावरण में नहीं. वर्चुअल पन्‍ने पर बन रही लेखकों की पहचान के साथ ही नेट यूजर अपनी पहचान भी जोडता है, इस या उसके बारे में अपनी राय व्‍यक्‍त करता है.

ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो उन्‍हें ‘जन संपादक’ और ‘जनता का बुद्धिजीवी’ मानते हैं. वे ‘जन संपादक’ नहीं ‘कारपोरेट संपादक’ थे. वे जनता के बुद्धिजीवी नहीं ‘पावर’ के बुद्धिजीवी हैं. ‘पावर’ का बुद्धिजीवी ‘विचार नियंत्रक’ होता है, जो दायरे के बाहर जाता है उससे कहता है ‘टिकोगे नहीं’, यह मर्द भाषा है, नियंत्रक की भाषा है, अलोकतांत्रिक भाषा है.

हिंदी में सही धारणाओं में सोचने की परंपरा विकसित नहीं हुई है, अत: ये सब बातें करना बड़ों का अपमान माना जाएगा. यह अपमान नहीं मूल्‍यांकन है. सच यह है प्रभाष जोशी कारपोरेट मीडिया में संपादक थे. एक ऐसे अखबार के संपादक थे, जिसका प्रकाशन हिंदुस्‍तान का प्रमुख कारपोरेट घराना करता है. प्रभाष जोशी ने ‘जनसत्‍ता’ के ‘कारे कागद’ स्‍तम्‍भ के एक लेख में जो बातें कहीं हैं, वे जनपत्रकारिता के बारे में नहीं हैं, बल्‍कि कारपोरेट पत्रकारिता के बारे में हैं.

जोशी ने लिखा, ‘जनसत्ता हिंदी का पहला अखबार है जिसका पूरा स्‍टाफ संघ लोक सेवा आयोग से भी ज्‍यादा सख्‍त परीक्षा के बाद लिया गया.’ यह असल में भर्ती की कारपोरेट संस्कृति है. परीक्षा, क्षमता, योग्‍यता और मेरिट आदि कारपोरेट संस्कृति के तत्‍व हैं. ‘जनसंपादन कला’ के नहीं. निराला, प्रेमचंद, महावीर प्रसाद द्विवेदी के यहां भर्ती के कारपोरेट नियम नहीं थे.

प्रभाष जोशी ने अपने समूचे पत्रकार जीवन में ‘अवधारणात्‍मक नियंत्रक’ का काम किया है.लिखा है, ‘अखबार मित्र की प्रशंसा और आलोचना के लिए ही नहीं होते. उनका एक व्‍यापक सामाजिक धर्म भी होता है.’ यह ‘सामाजिक धर्म’ क्‍या है ? इसे कारपोरेट मीडिया की भाषा में कहते हैं ‘अवधारणात्‍मक नियंत्रण.’ हिंदी पाठक किन विषयों पर बहस करे, किस नजरिए से बहस करे, इसका एजेण्‍डा इसी ‘सामाजिक धर्म’ के तहत तय किया जाता है.

इस ‘सामाजिक धर्म’ के बहाने किनका नियंत्रण करना है और किस भाषा में करना है यह भी उन्होंने बताया. लिखा, ‘वह दलितों-पिछड़ों की राजनीतिक ताकतों, वाम आंदोलनों और प्रतिरोध की शक्‍तियों का भी आंकलन मांगता है और जिसकी जैसी करनी उसको वैसी ही देने से पूरा होता है.’

सवाल यह है उनके संपादक काल में जनसत्ता ने इन सामाजिक-राजनीतिक शक्तियों को कितना कवरेज दिया ? कितने विचारकों को स्थान दिया ? किस तरह के पत्रकारों से मूल्‍यांकन कराया ? किसी प्रतिक्रियावादी से वाम का मूल्‍यांकन कराइएगा तो कैसा मूल्‍यांकन होगा ? एक दलित का गैर दलित नजरिए से कैसा मूल्‍यांकन होगा ? एक मुसलमान की समस्‍या पर गैर मुसलिम नजरिया कितना हमदर्दी के साथ पेश आएगा ? इन सभी सवालों पर विचार करने की जरुरत है।

उल्लेखनीय है अमेरिका में काले लोग जब मीडिया में काम करने आए तब ही काले लोगों का सही कवरेज हो पाया।लेकिन क्या हिन्दी प्रेस में ऐसा कुछ घटा ?

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प्रभाष जोशी धर्मनिरपेक्ष हैं, मुसलमानों के हिमायती हैं. यह भी विचार करें कि उनके संपादनकाल में मुसलमानों के कार्य व्‍यापार, जीवन शैली, सामाजिक दशा के बारे में कितने लेख छपे ? कितने अच्‍छे मुस्‍लिम पत्रकार जनसत्ता में थे ? यदि नहीं तो क्यों ? हिन्‍दू पत्रकारों ने मुसलमानों की जीवनदशा पर सकारात्‍मक नजरिए से समूचे संपादन काल में कितने लेख लिखे ? इस सबसे किसने रोका था ? कोई चीज थी जो रोक रही थी. अभी भी हालात ज्‍यादा बेहतर नहीं हैं.

आप मुसलमानों के बारे में वैसे सोच ही नहीं सकते क्योंकि शासकवर्ग नहीं सोचते. आपकी पिछड़ों और दलितों के प्रति कितनी और कैसी तटस्‍थ पत्रकारिता रही है, उसके बारे में भी वही सवाल उठता है जो मुसलमानों के बारे में उठता है. कारपोरेट पत्रकार-संपादक होने के नाते आपने जनप्रिय पदावली में ‘शासकवर्गों के लिए ‘अवधारणात्‍मक नियंत्रक’ की भूमिका अदा की. कारपोरेट प्रेस में ‘वस्‍तुपरकता’ और ‘तटस्‍थता’ को मीडिया की सैद्धान्‍तिकी में ‘मेनीपुलेशन’ कहते हैं.

प्रभाष जोशी लेखन की एक विशेषता है चीजों को व्‍यक्‍तिगत बनाने की, व्‍यक्‍तिगत चयन के आधार पर संप्रेषित करने की. मीडिया थ्‍योरी में इसे बुनियादी चीज से ध्‍यान हटाने की कला कहते हैं. अथवा जब किसी अंतर्वस्‍तु को पतला करना हो तो इस पद्धति का इस्‍तेमाल किया जाता है.

प्रभाष जोशी जिस वैचारिक संसार में मगन हैं वह ‘पावर’ का संसार है, कारपोरेट संसार है. उसे जनसंसार समझने की भूल नहीं करनी चाहिए. अपने इसी लेख में आपने उन तमाम लोगों, व्‍यक्‍तियों, नेताओं, पत्रकारों आदि का जिक्र किया है, जिनसे आपके व्‍यक्‍तिगत संबंध रहे हैं, और हैं. यह ‘मेनीपुलेशन’ की शानदार केटेगरी है.

जब आप किसी चीज को व्‍यक्‍तिगत चयन की केटेगरी में पेश करते हैं अथवा व्‍यक्‍तिगत बनाते हैं तो अतिरिक्‍त असत्‍य से काम लेते हैं. अतिरिक्‍त असत्‍य का सुंदर काल्‍पनिक भविष्‍य के साथ रिश्‍ता जोडते हैं. हमें यह भी देखना चाहिए कि प्रभाष जोशी ने सरकारी नीतियों और कारपोरेट घरानों पर केन्‍द्रित ढंग से कब हमला किया ?

मैं सिर्फ एक उदाहरण दूंगा. प्रभाष जोशी के संपादनकाल के दौरान हिंदुस्‍तान टाइम्‍स ग्रुप ने 130 से ज्‍यादा कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया. लंबे समय तक वे आंदोलन करते रहे, लेकिन जोशीजी और उनके अख़बार को उनकी याद नहीं आई !

जोशीजी शानदार पत्रकार हैं लेकिन कारपोरेट घरानों के ! जनता के नहीं ! क्योंकि उनको इस बात से कोई बेचैनी नहीं है कि प्रेस में आखिरकार विदेशी पूंजी तेजी से क्‍यों आ रही है, उन्होंने उसका कहीं पर भी प्रतिवाद नहीं किया ! चुप क्‍यों रहे ?

प्रभाष जोशी के संपादन की सबसे कमजोर कड़ी है विदेश की खबरें. विदेश की खबरें कम से कम छापी गईं. संपादकीय मेनीपुलेशन का सबसे नरम स्‍थल है यह. उन्होंने दुनिया को बदलने और देखने के बारे में अब तक जितने भी विकल्‍प सुझाएं हैं, वे किसी न किसी रूप में सत्ताधारी वर्ग के ही विकल्‍प हैं, जिसे सचमुच में विकल्‍प राजनीति कहते हैं, वह सत्ताधारी विचारों के परे होती है. आपने सारे जीवन पत्रकारिता कम प्रौपेगैण्‍डा ज्‍यादा किया है. प्रौपेगैंडि‍स्‍ट को ऑरवेल ने ‘बडे-भाई’ कहा था.

प्रभाष जोशी, ‘ईमानदार’ हैं. उन्‍होंने ‘सच’ कहा है. उसे गंभीरता से लेना चाहिए. पहला सच, प्रेस (संपादकों, पत्रकारों और प्रेस मालि‍कों) और राजनेताओं गहरा याराना होता है. उनका भी कितने ही प्रधानमंत्रियों और मुख्‍यमंत्रियों के साथ याराना था. कम से कम अखबार वालों के साथ राजनेता कभी ज्ञान, सलाह और समझ पाने के लिए दोस्‍ती नहीं करते, प्रचार पाने के लिए दोस्‍ती करते हैं. स्‍वयं प्रभाष जोशी यह काम करते रहे हैं, यह तथ्‍य भी वे लिख चुके हैं.

कौन नहीं जानता कि प्रत्‍येक संपादक अपने मालिक के लिए ‘जनसंपर्क’ का काम करता है. पूंजीपतियों के लिए ‘जनसंपर्क’ नहीं करेगा तो उसे कोई नौकरी पर रखने वाला नहीं है. रिटायर्ड होने के बाद भी जब पगार मिलती है तो उसका लक्ष्‍य लेखन नहीं कुछ और है.

प्रभाष जोशी पर विचार करते समय शोधार्थी कम से कम एक भी ऐसा रहस्‍योदघाटन बताएं जो कभी उन्‍होंने अपने दोस्‍त प्रधानमंत्री, मुख्‍यमंत्री अथवा अपने कारपोरेट आकाओं (जो उनके दोस्‍त थे या हैं) के बारे में किया हो ? कौन नहीं जानता चन्‍द्रशेखर जब प्रधानमंत्री बने थे तो प्रधानमंत्री कार्यालय में बैठकर सीधे सौदे पटते थे, प्रधानमंत्री कार्यालय में ही रकम सरेआम ली जाती थी. जोशी जी उन व्‍यक्‍तियों को भी जानते थे, जरा स्‍वयं ही सत्‍य बोल देते !

प्रभाष जोशी बडे पत्रकार हैं. मीडिया एथिक्‍स के आदर्श पुरूष हैं. वे मीडिया मुगलों के बारे में चुप रहे ! भारत में मीडिया मुगल सरेआम कानून की धज्‍जियां उडा रहे हैं. सभी नियमों को ताक पर रख रहे हैं. मीडिया का उनके हाथों केन्‍द्रीकरण हो रहा है. जिसके पास अखबार है, वही अब टीवी, रेडियो, केबल चैनलों का भी मालिक है. जिनके पास चैनल हैं वे अब प्रेस के धंधे में भी आ गए हैं.

मीडिया का बढता केन्‍द्रीकरण प्रभाष जोशी की चिन्ता के केन्द्र में प्रमुखता से नज़र नहीं आता. सवाल यह है हिंदी के बड़े पत्रकार मीडिया के केन्‍द्रीकरण के सवाल पर चुप क्‍यों हैं ? क्‍या यह सवाल जातिवाद, सतीप्रथा, शीला दीक्षित आदि से ज्‍यादा महत्‍वपूर्ण नहीं है ? इस सवाल पर मीडिया संगठनों की चुप्‍पी उन्‍हें परेशान करती है ? मीडिया की स्‍वतंत्रता के नाम पर मीडिया का केन्‍द्रीकरण बढ़ा है. लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए यह अशुभ संकेत हैं.

देश अब तक के सबसे गंभीर संकट में है. आर्थिक मंदी सामान्‍य चीज नहीं है, लेकिन मीडिया की सतही रिपोर्टिंग लिखने के लिए बेचैन नहीं करती ? आखिरकार प्रभाष जोशी को इतनी बडी समस्‍याओं को देखकर भी गुस्‍सा क्‍यों नहीं आता ? हमेशा मरे हुए मसलों को ही क्‍यों उठाते हैं ? क्‍या कभी पाकिस्‍तान के परे जाकर अफगानिस्‍तान, इराक और फिलिस्‍तीन की भी याद आती है ? इस तरह विश्‍व हि‍त के सवालों पर कलम पर चुप क्‍यों रहते है ? क्‍या इन देशों की तबाही बेचैन नहीं करती, क्‍या हुआ है आपकी भारतीयचेतना को ? क्‍या पुराने पत्रकार ऐसे ही थे ? इराक और फिलिस्‍तीन के जनसंहार उनको कभी भी विचलित क्‍यों नहीं करते ?

बेहतर कारण तो आप ही बता पाएंगे, लेकि‍न हम इतना जानते हैं यह मीडिया मुगलों के सामने आत्‍मसमर्पण है. मीडिया मुगल नहीं चाहते कि अमरीकी साम्राज्‍यवाद और उसके सहयोगी देशों ने जो तबाही मचायी हुई है उसके खिलाफ कोई बोले. आश्‍चर्य कि बात है आपको जिन्‍ना, मुशर्रफ, जरदारी आदि पर बोलना अच्‍छा लगता है लेकिन पास ही में अफगानिस्‍तान, इराक और फिलिस्‍तीन में चल रहे जनसंहारों और गुलामी के तंत्र के खिलाफ बोलने की कभी भी इच्‍छा नहीं होती ?

प्रभाष जोशी ने जिस अखबार को आपने पाल पोसकर बडा किया, उसके पन्‍ने भी इन तीन देशों के जनसंहार के बारे में चुप रहते हैं. आपकी आंखों के सामने युद्धापराध हो रहे हैं लेकिन आप चुप हैं. आप अपनी ‘मैं सही’ की धुन पर कायम हैं. आप लोकतंत्र के भीतर बैठकर तीर चला रहे हैं, जबकि लोकतंत्र के बाहर जाकर ही लोकतंत्र की रक्षा संभव है.

क्‍या भारत के मीडिया मुगलों के द्वारा जिस तरह का खबरों के साथ जघन्‍य व्‍यवहार किया जा रहा है, उसे देखकर इनके खिलाफ बोलने की इच्‍छा नहीं करती यदि ? करती है तो बोलते क्‍यों नहीं ? यह क्‍या बनिया-ब्राह्मण लगा रखा है प्रेस में. सीधे सही नाम और सही परिभाषाओं में सटीक ढंग से क्‍यों नहीं लिखते ?

20वीं शताब्‍दी की तीन बडी परि‍घटनाएं हैं लोकतंत्र का विकास, कारपोरेट शक्ति का विकास और कारपोरेट प्रौपेगैंडा का विकास. इन तीनों ही क्षेत्रों में अभूतवूर्व विकास हुआ है. कारपोरेट प्रौपेगैण्‍डा का लक्ष्‍य है लोकतंत्र के बरक्‍स कारपोरेट हितों की रक्षा करना. आपकी परंपरा आत्‍म सेंसरशिप की परंपरा है. इसके जरिए पावरगेम में शामिल लोगों के हितों की कौशलपूर्ण ढंग से सेवा की जाती है. पत्रकार इन दिनों ‘लोकतंत्र के प्रौपेगैण्‍डा प्रबंधक’ हैं. इन प्रबंधकों का बुनियादी काम ही यही है प्रेस और मीडिया को लक्ष्‍मणरेखा में रखना, कारपोरेट हितों के खिलाफ न जाने देना.

प्रभाष जोशी चूंकि प्रौपेगैण्‍डा मॉडल को केन्‍द्र में रखकर लिखते हैं, फलत: उन्‍हें परंपरागत अभिजन परंपरा से खूब समर्थन मिलता है. कारपोरेट मीडिया उन्‍हें बेहद पसंद करता है. साधारण जनता को वे यह आभास देते रहते हैं कि वे सत्ता के साथ नहीं हैं. सत्ता के गुलाम नहीं हैं. प्रभाष जोशी अपने लेखन के जरिए जो राय, एटीटयूट, पूर्वाग्रह पहले से मौजूद हैं उनको ही पेश करते हैं. फलतः बुद्धिजीवी और शिक्षितों में जनप्रिय हैं.

यही वह तबका है जो कारपोरेट मीडिया प्रौपेगैण्‍डा के सामने सबसे ज्‍यादा असुरक्षित है. यह वह तबका है, जो सभी किस्‍म की सूचनाएं हजम कर जाता है. उन्‍हें मजबूर किया जाता है कि राय दें. फलत: वे अन्‍य की राय अथवा प्रौपेगैण्‍डा की चपेट में होते हैं. यह ऐसा तबका है जिसकी अपनी स्‍वतंत्र राय नहीं होती, वह कारपोरेट प्रौपेगैण्‍डा से ही अपनी राय बनाता है. इनके ही प्रभाष जोशी देवता भी हैं. हमारे तो ‘बडे भाई’ हैं.

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प्रभाष जोशी का मजबूत विचारधारात्‍मक किला है ‘आब्‍शेसन.’
हमें रहस्‍य खोलना चाहिए कि आखिरकार जातिप्रथा, सती प्रथा, स्‍त्री विरोधी रूझान आते कहां से हैं ? वे किस तरह के वातावरण में फलते फूलते हैं ?

प्रभाष जोशी का सती प्रथा का महिमामंडन और उसे परंपरा कहना मूलत: इन दिनों व्‍यापक स्‍तर पर पनप रही स्‍त्री विरोधी मानसिकता और स्‍त्री को एक बेजान इंसान समझने वाली विचारधारा की देन है. देखिए यह संभव नहीं है आप सचिन का समर्थन करें, क्रिकेट का समर्थन करें और विज्ञापन संस्कृति पर कुछ न बोलें.

अपना सचिन महान है, लाजबाव है, लेकिन अंतत: है तो विज्ञापन संस्कृति का खिलौना. सचिन के लिए खेल ही सब कुछ है. बाजार के लिए सचिन का ब्रॉण्‍ड ही सब कुछ है. सचिन को ब्रॉण्‍ड बनाने में कई फायदे हैं, क्रिकेट चंगा, वर्चस्‍वशाली जातियां और विचारधारा भी खुश. साथ ही प्रभाष जोशी जैसे दिग्‍गज भी मस्‍त !

अब हम क्रिकेट नहीं देखते,.बल्‍कि उसका उपभोग करते हैं. क्रिकेट देखते तो मैदान में जाते टिकट खरीदते, मुहल्‍ले में मैदान बनाने के लिए संघर्ष करते, स्‍कूल,कॉलेजों में टीम बनवाने के लिए प्रयास करते, खेल का मैदान बनाने की जद्दोजहद करते लेकिन यह सब करते नहीं हैं. सिर्फ टीवी पर क्रिकेट देखते हैं.  यही हमारा खेल ‘प्रेम’ है.

इसी तरह प्रभाष जोशी जैसे पत्रकार की सारी चिन्‍ताएं मायावती, लालू यादव, मुलायम सिंह, दिग्‍विजय सिंह आदि के इर्द-गिर्द घूमती हैं. थोडा जोर लगाया तो साम्‍प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता, आतंकवाद आदि पर जमकर बरस पड़े. ये सारे एजेण्‍डा जनता के नहीं वर्चस्‍वशाली ताकतों के हैं, हमें लेखक के नाते अंतर करना होगा हमारी जनता का एजेण्‍डा क्‍या है ? सवाल किया जाना चाहिए प्रभाष जोशी ने जनता के एजेण्‍डे पर कितना लिखा और सरकारी एजेण्‍डे पर कितना लिखा ?

प्रभाष जोशी के लेखन की विशेषता है ‘आब्‍शेसन’, ‘आब्‍शेसन’ शासकीय विचारधारा का ईंधन है. प्रभाष जोशी कुछ विषयों के प्रति अपने ‘आब्‍शेसन’ को छिपाते ही नहीं बल्कि महिमामंडित करते हैं, उनके लेखन के ‘आब्‍शेसन’ हैं.

क्रिकेट, साम्‍प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता, कांग्रेस, आरएसएस आदि.
लेखन में ‘आब्‍शेसन’ वर्चस्‍वशाली ताकतों का कलमघस्‍सु बनाता है, रूढिवादी बनाता है. लकीर का फकीर बनाता है. ‘आबशेसन’ में आकर जब लेखन किया जाएगा तो वह छदम गतिविधि कहलाता है. इसे परिवर्तनकामी लेखन अथवा परिवर्तनकामी पत्रकारिता समझने की भूल नहीं करनी चाहिए.

लेखन में सत्‍य गतिविधि का जन्‍म तब होता है जब आप शासकवर्गों के एजेण्‍डे के बाहर आकर वैकल्‍पिक एजेण्‍डा बनाते हैं, वैकल्‍पिक एजेण्‍डे पर लिखते हैं. भूमंडलीकरण, समलैंगिकता, अपराधीकरण, साम्‍प्रदायिकता, भ्रष्‍टाचार, ओबीसी आरक्षण, अयोध्‍या में राममंदिर आदि, शासकवर्ग का एजेण्‍डा हैं, इन्‍हें जनता का एजेण्‍डा समझने की भूल नहीं करनी चाहिए. हमारे प्रभाषजी की कलम की सारी स्‍याही इसी शासकीय एजेण्‍डे पर खर्च हुई है. उन्‍होंने विकल्‍प के एजेण्‍डे पर न्‍यूनतम लिखा है.

‘आब्‍शेसन’ में लिखे को पढने में मजा आता है और वह चटपटा भी होता है, उसकी भाषा हमेशा पैनी होती है, और ये सभी तत्‍व संयोग से प्रभाष जोशी के यहां भी हैं. ’आब्‍शेसन’ में लिखा लेख अपील करता है और आपका तर्क छीन लेता है, आलोचनात्‍मक बुद्धि छीन लेता है.

‘आबशेसन’ में लिखे को जब एकबार पढना शुरू करते हैं तो धीरे-धीरे लत लग जाती है और यही ‘लत’ प्रभाष जोशी के पाठकों को भी लगी हुई है. वे हमेशा मुग्‍धभाव से उन्‍हें पढते हैं और जरूर पढते हैं, वे नहीं जानते कि आब्‍शेसन में लिखे विचार इल्‍लत होते हैं. ‘आब्‍शेसन’ में लिखे को पढकर आप सोचना और बोलना बंद करके अनुकरण करने लगते हैं. हां में हां मिलाना शुरू कर देते हैं, वाह वाह करने लगते हैं, बुद्धि खर्च करना बंद कर देते हैं.

इस तरह आप दरबारी भी बना लेते हैं, आज की भाषा में कहें तो प्रशंसक भी बना लेते हैं. ‘आबशेसन’ में लिखने के कारण अपना लिखा सत्‍य नजर आने लगता है, आपकी बातें ‘वास्‍तविक’ एजेण्‍डा नजर आने लगती हैं, हकीकत में ऐसा होता नहीं है, हकीकत में ‘आब्‍शेसन’ में लिखने के कारण प्रभाष जोशी एक ही विचार और भाव के इर्दगिर्द चक्‍कर लगाते रहे हैं, यही ‘आब्‍शेसन’ का दार्शनिक खेल है.

प्रभाष जोशी के नज़रिए की एक झलक देखें – ‘जैसे सिलिकॉन वैली अमेरिका में नहीं होता, अगर दक्षिण भारत में आरक्षण नहीं लगा होता. दक्षिण के आरक्षण के कारण जितने भी ब्राह्मण लोग थे, ऊंची जातियों के, वो अमरीका गये और आज सिलिकॉन वेली की हर आईटी कंपनी का या तो प्रेसिडेंट इंडियन है या चेयरमेन इंडियन है या वाइस चेयरमेन इंडियन है या सेक्रेटरी इंडियन है, क्यों ? क्योंकि ब्राह्मण अपनी ट्रेनिंग से अव्यक्त चीजों को हैंडल करना बेहतर जानता है. क्योंकि वह ब्रह्म से संवाद कर रहा है.

तो जो वायवीय चीजें होती हैं, जो स्थूल, सामने शारीरिक रूप में नहीं खड़ी है, जो अमूर्तन में काम करते हैं, जो आकाश में काम करते हैं. यानी चीजों को इमेजीन करके काम करते हैं. सामने जो उपस्थित है, वो नहीं करते. ब्राह्मणों की बचपन से ट्रेनिंग वही है, इसलिए वो अव्यक्त चीजों को, अभौतिक चीजों को, अयथार्थ चीजों को यथार्थ करने की कूव्वत रखते है, कौशल रखते हैं. इसलिए आईटी वहां इतना सफल हुआ. आईटी में वो इतने सफल हुए.’

अब गंभीरता से इस पर विचार कीजिए कि दक्षिण भारत में सिलीकॉन वैली इसलिए नहीं बना क्योंकि दक्षिण भारत में आरक्षण था. गोया आरक्षण न होता तो कम्‍प्‍यूटर की दुनिया में हमने छलांग लगा दी होती ! प्रभाषजी जानते ही नहीं हैं कि भारत सरकार की तरफ से विज्ञान और खासकर सूचना तकनीकी से संबंधित बुनियादी शोध पर आज भी एक फूटी कौड़ी खर्च नहीं की जाती.

सूचना तकनीक के किसी भी बुनियादी अनुसंधान के क्षेत्र में भारत से लेकर अमेरिका तक किसी भी ब्राह्मण का कोई पेटेंट नहीं है. आज तक किसी भी भारतीय को सूचना तकनीक के किसी भी बुनियादी अनुसंधान का मुखिया पद अमेरिकी की सिलीकॉन बैली में नहीं दिया गया है, सिलीकॉन बैली में बुनियादी अनुसंधान में आज भी गोरों और अमेरिकी मूल के गोरों का पेटेण्‍ट है. आज इस संबंध में सारे आंकड़े आसानी से वेब पर उपलब्‍ध हैं.

प्रभाष जी ऐसे पांच ब्राह्मणों के नाम बताएं जिन्‍होने सूचना तकनीक के क्षेत्र में बुनियादी अनुसंधान का काम किया हो. वे पता करें कि भारत के आईआईटी में कहां सूचना तंत्र से जुड़ी समस्‍याओं पर बुनियादी अनुसंधान हो रहा है ?

एक और दिलचस्‍प बात बताऊं, हम जिस यूनीकोड मंगल हिन्‍दी फाण्‍ट में काम कर रहे हैं, उसका निर्माण भी किसी ब्राह्मण ने नहीं माइक्रोसॉफ्ट कंपनी के गोरे वैज्ञानिकों ने किया है. इसके लिए भारत सरकार ने उन्‍हें 11 हजार करोड़ रूपये दिए. काश यह काम कोई ब्राह्मण भारत में कर देता ! आईआईटी वाले कर देते ? प्रभाष जानते हैं कि दुनिया ‘धारण’ करने वाले ब्राह्मण नहीं गोरे जाति के लोग हैं. दूसरी बात यह कि कितने ब्राह्मण हैं जो सिलिकॉन बैली में हैं ? और वे किस क्षेत्र में बुनियादी रिसर्च का काम कर रहे हैं ? अमेरिका में सभी क्षेत्रों में बुनियादी रिसर्च गोरों के क़ब्ज़े में है.

हैदराबाद और बैंगलौर में सूचना कंपनियों में काम करने वाले ब्राह्मण क्‍या काम कर रहे हैं ? सबसे बड़ा ब्राह्मण तो सत्‍यम कंपनी का मालिक था. कहने की जरूरत नहीं है कितना ईमानदार और देशभक्‍त था ?

भारत की सूचना कंपनियां क्‍या काम कर रही हैं ? कम से कम वे सूचना के क्षेत्र में बुनियादी शोध का काम तो नहीं कर रही हैं. हमें सोचना चाहिए अरबों डालर कमाने वाला भारत का सूचना उद्योग सूचना के क्षेत्र में बुनियादी शोध पर फूटी कौड़ी खर्च नहीं कर रहा. वे आउटसोर्सिंग कर रहे हैं. यह बुनियादी रिसर्च नहीं जबकि यह सच है भारत के सूचना उद्योग में सवर्णों की संख्‍या ज्‍यादा है.

प्रभाष जोशी ने लिखा है, ‘मान लीजिए कि सचिन तेंदुलकर और विनोद कांबली खेल रहे हैं. अगर सचिन आउट हो जाये तो कोई यह नहीं मानेगा कि कांबली मैच को ले जायेगा क्योकि कांबली का खेल, कांबली का चरित्र, कांबली का एटीट्यूड चीजों को बनाकर रखने और लेकर जाने का नहीं है. वो कुछ करके दिखा देने का है. जिताने के लिए आप को ऐसा आदमी चाहिए, जो लंगर डालकर खड़ा हो जाये और आखिर तक उसको ले जा सके यानी धारण शक्ति वाला.’

प्रभाषजी से सवाल किया जाना चाहिए कि उनकी ब्राह्मण मंत्रमाला इतनी छोटी क्‍यों है, जिसमें 11 ब्राह्मण खिलाड़ियों की विश्‍व टीम तक नहीं बन पा रही है ? हम एक प्रस्‍ताव देते हैं कि‍ प्रत्‍येक राज्‍य और भारत के लिए कम से कम 11-11 ब्राह्मण खिलाड़ियों के नाम क्रिकेट टीम के रूप में प्रभाषजी घोषित करें, इसके बाद महिला टीम के लिए भी इतनी ही महिला ब्राह्मणियों के नाम सुझाएं. ज्‍यादा नहीं ऐसी टीमें वे फुटबाल और हॉकी के लिए कम से कम सुझाएं और यह भी बताएं कि आखिरकार कितने ब्राह्मण खिलाडी अब तक अर्जुन पुरस्‍कार ले चुके हैं ? खेल रत्‍न ले चुके हैं ? ओलम्‍पिक और एशियाई खेलों में कितने ब्राह्मण बटुक पदक प्राप्‍त कर चुके हैं ?

थोड़ा दूर जाएं तो मामला एकदम गडबडा जाएगा प्रभाषजी का. वेस्‍ट इंडीज, दक्षिण अफ्रीका का क्‍या करें वहां कोई ब्राह्मण नहीं, इसके बावजूद लंबे समय से वेस्‍टइंडीज की टीम शानदार खेलती रही है. काश वेस्‍टइंडीज वाले ब्राह्मण होते और वहां भी जातिप्रथा होती तो कितना अच्‍छा होता ! प्रभाषजी को ब्राह्मणों का जयगान करने में सहूलियत होती.

प्रभाष जी ने लिखा है, ‘अब धारण शक्ति उन लोगों में होती है, जो शुरू से धारण करने की प्रवृत्ति के कारण आगे बढ़ते है. अब आप देखो अपने समाज में, अपनी राजनीति में. अपने यहां सबसे अच्छे राजनेता कौन हैं ? आप देखोगे जवाहरलाल नेहरू ब्राह्मण, इंदिरा गांधी ब्राह्मण, अटल बिहारी वाजपेयी ब्राह्मण, नरसिंह राव ब्राह्मण, राजीव गांधी ब्राह्मण, क्यों ? क्योंकि सब चीजों को संभालकर चलाना है इसलिए ये समझौता, वो समझौता वो सब कर सकते हैं. बेचारे अटल बिहारी बाजपेयी ने तो इतने समझौते किये कि उनके घुटनों को ऑपरेशन हुआ तो मैंने लिखा कि इतनी बार झुके हैं कि उनके घुटने खत्म हो गये, इसलिए ऑपेरशन करना पड़ा.’

प्रभाषजी, राजनीति की इतनी घटिया तुलनाएं हिन्‍दी पत्रकारिता में खूब बिकती हैं, राजनीति और राजनीति विज्ञान में नहीं. यह पत्रकारिता नहीं सस्‍ती चाटुकारिता है. राजनीति की विकृत प्रस्तुति है. प्रेस या मीडिया की भाषा में ‘डिस -इनफॉरर्मेशन’ है. दूसरी बात यह कि राजनीति का इतना सतही और विकृत तुलनात्‍मक रूप सिर्फ हिन्‍दी का ही कोई पत्रकार दे सकता है.

प्रभाषजी ने अपनी तुलनात्‍मक प्रस्तुति में प्रकारान्‍तर से जनता के विवेक का भी अपमान किया है. जनता ने उनके बताए नेताओं को ब्राह्मण होने के कारण वोट नहीं दिए, देश की जनता ने समग्रता में जाति के नाम पर कभी भी वोट नहीं दिया है, वोट राजनीति के आधार पर पड़ते रहे हैं. नेता लोग अपनी राजनीति का प्रतिनिधित्‍व करते थे, जाति का नहीं.

प्रभाषजी ने जिन नेताओं के नाम गिनाए हैं कम से कम उनमें से किसी भी नेता ने कभी चुनाव में अपने लिए और अपनी पार्टी के लिए जाति के नाम पर सार्वजनिक तौर पर वोट नहीं मांगा. यह बात कहने का अर्थ यह नहीं है कि राजनीति में जातिवाद नहीं चलता, चलता है, किंतु निर्णायक भूमिका जात की नहीं, राजनीति की है.

प्रभाषजी ने लिखा है, ‘जिन लोगों को सदियों से जिस प्रकार के काम को करने की ट्रेनिंग मिली है, वे उस काम को अच्छा करते हैं.’ सवाल यह है हमारे समाज में सदियों से किसे काम करने की ट्रेनिंग मिली है ? ब्राह्मण कब से कारीगरी का काम करने लगे ? कारीगरी और मेहनती हुनर वाले किसी भी काम को ब्राह्मणों ने अतीत में सीखने से इंकार किया.

प्रभाष जोशी ने लिखा है, ‘मैं यह मानता हूं कि सती प्रथा के प्रति जो कानूनी रवैया है, वो अंग्रेजों का चलाया हुआ है. अपने यहां सती पति की चिता पर जल के मरने को कभी नहीं माना गया. सबसे बड़ी सती कौन है आपके यहां ? सीता. सीता आदमी के लिए मरी नहीं. दूसरी सबसे बड़ी सती कौन है आपके यहां ? पार्वती. वो खुद जल गई लेकिन पति का जो गौरव है, सम्मान है वो बनाने के लिए, उसके लिए. सावित्री. सावित्री सबसे बड़ी सती मानी जाती है. सावित्री वो है, जिसने अपने पति को जिंदा किया, मृत पति को जिंदा किया.

‘सती अपनी परंपरा में सत्व से जुड़ी हुई चीज है. मेरा सत्व, मेरा निजत्व जो है, उसका मैं एसर्ट करूं. अब वो अगर पतित होकर… बंगाल में जवान लड़कियों की क्योंकि आदमी कम होते थे, लड़कियां ज्यादा होती थीं, इसलिए ब्याह देने की परंपरा हुई. इसलिए कि वो रहेगी तो बंटवारा होगा संपत्ति में इसलिए वह घर में रहे. जाट लोग तो चादर डाल देते हैं, घर से जाने नहीं देते. अपने यहां कुछ जगहों पर उसको सती कर देते हैं. आप अपने देश की एक प्रथा को, अपने देश की पंरपरा में देखेंगे या अंग्रेजों की नजर से देखेंगे, मेरा झगड़ा यह है. मेरा मूल झगड़ा ये है.’

प्रभाषजी ने सही फरमाया है, हमें अपनी परंपरा को अंग्रेजों की नजर से नहीं भारतीय नजर से देखना चाहिए. समस्‍या यह है कि क्‍या हमारी कोई भारतीय नजर भी है ? किस भारतीय नजर की बात कर रहे हैं प्रभाषजी ? हम सिर्फ इतना ही कहना चाहेंगे कि सतीप्रथा पर पुरातनपंथियों और राममोहनराय के समर्थकों के बीच में जो बहस चली उसके अलावा भी सतीप्रथा को देखने का क्‍या कोई स्‍त्रीवादी भारतीय नजरिया भी हो सकता है या नहीं ? किसने कहा है कि स्‍त्री समस्‍या को मर्द की ही आंखों से ही देखो ?

सती समस्‍या स्‍त्री समस्‍या है और इसके बारे में सबसे उपयुक्‍त भारतीय नजरिया स्‍त्रीवादी नजरिया ही हो सकता है, प्रभाषजी जिस नजरिए से सती प्रथा को देख रहे हैं, वैसे न तो ईश्‍वरचन्‍द्र विद्यासागर ने देखा था और नहीं आज के स्‍त्रीवादी ही रैनेसां के नजरिए से देखते हैं. ऐसे में भारतीय नजरिया क्‍या होगा, यह विवाद की चीज है और प्रभाषजी का नजरिया मूलत: स्‍त्रीविरोधी है, क्‍योंकि वे सतीप्रथा को ही नहीं स्‍त्री को भी मर्दवादी नजरिए से देख रहे हैं.

प्रभाषजी का मूल झगड़ा क्‍या है ? मूल लक्ष्‍य क्‍या रहा है ? मर्दवाद की प्रतिष्‍ठा करना और स्‍त्री को वायवीय बनाना. जबकि स्‍त्री ठोस हाड़मांस का मानवीय सार है. वह ‘सत्‍व’ नहीं है, सार है, वह स्‍त्री है. आपके मुंह से एक पत्रकार नहीं एक मर्दवादी बोल रहा है, जिसका हमारे समाज में, मीडिया में आज भी स्‍वाभाविक स्‍वराज है. आपकी भाषा स्‍वाभाविक मर्दवादी भाषा है और मर्दवाद प्रेस में ही नहीं मीडिया में सबसे बिकाऊ माल है.

प्रभाष जी ने सती के ‘सत्‍व’ और ‘निजत्‍व’ की मौलिक खोज की है. वे जरा प्रमाण दें सती के ‘सत्‍व’ के ? उनकी सती का ‘सत्‍व’ सावित्री तक ही क्‍यों रूका हुआ है ? वह वर्तमान काल में क्‍यों नहीं आता ? कृपया रूपकंवर के ‘सत्‍व’ का रहस्‍य बताएं ? क्‍या राजस्‍थान में सती के मंदिर स्‍त्री के ‘सत्‍व’ और ‘निजत्‍व’ के प्रदर्शन के लिए बने हैं ? कृपया सतीमंदिरों को सती के ‘सत्‍व’ में रूपान्‍तरित करके देखें क्‍या अर्थ निकलता है ?

प्रभाष जोशी के मिजाज, नजरिए और शैली का एक और नमूना देखें- जसवंत सिंह प्रकरण पर जसवंत सिंह के बारे में लिखा है, ‘अपने काम, अपनी निष्‍ठा और अपनी राय पर इस तरह टिके रहकर जसवंत सिंह ने अपनी चारित्रिक शक्ति और प्रमाणिकता को ही सिद्ध नहीं किया है, अपने संविधान में से दिए गए अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार को भी बेहद पुष्‍ट किया है.’

आश्‍चर्यजनक बात यह है कि प्रभाषजी एक ऐसे व्‍यक्‍ति के बारे में यह सब लिख रहे हैं जो खुल्‍लमखुल्‍ला भारत के संविधान और संप्रभुता को गिरवी रखकर कंधहार कांड का मुखिया था. इस व्यक्ति को मौलक अधिकार का इस्‍तेमाल करने का अधिकार देने का अर्थ है हिटलर की टीम के गोयबल्‍स को बोलने का अधिकार देना. सवाल यह है गोयबल्‍स यदि हिटलर से अपने को अलग कर लेगा तो क्‍या उसके इतिहास में दर्ज अपराध खत्‍म हो जाएंगे ?

प्रभाषजी जब जसवंत सिंह की पीठ थपथपा रहे हैं तो प्रकारान्‍तर से जसवंत सिंह के ठोस राजनीतिक कुकर्मों, राष्ट्रद्रोह और सत्‍य को भी छिपा रहे हैं. क्‍या भाजपा और शिवसैनिकों के द्वारा किए गए सांस्‍कृतिक हमले और अभिव्यक्ति की आजादी पर किए गए हमलों का जसवंत सिंह द्वारा किया गया समर्थन हम भूल सकते हैं ? क्‍या बाबरी मस्‍जिद विध्‍वंस और दंगों में संघ और उनके संगठनों की भूमिका और उसके प्रति जसवंत सिंह का समर्थन भूल सकते हैं ?

प्रभाषजी जब संघ के बारे में, कांग्रेस के बारे में लिखते हैं तो उन्‍हें अतीत की तमाम सूचनाएं याद आती हैं, घटनाएं याद आती हैं, लेकिन जसवंत सिंह प्रकरण में उन्‍हें जसवंत सिंह की कोई भी पिछली घटना याद नहीं आयी ! इसी को कहते हैं सत्‍य का अपहरण और ‘डि‍स- इनफॉरर्मेशन.’

प्रभाष जी यदि जसवंत सिंह को अपनी एक सड़ी गांठ खोलने के लिए यदि साढे छह सौ पेज चाहिए तो आपको जसवंत सिंह के राजनीतिक सत्‍य को उजागर करने के अभी कितने पन्‍ने चाहिए ? प्रभाषजी जैसा महान पत्रकार यह विश्‍वास कर रहा है कि जसवंत सिंह को किताब लि‍खने के कारण निकाला गया.

सच यह है कि राजस्‍थान के अधिकांश भाजपा विधायक और उनकी नेत्री चाहती थी कि पहले अनुशासनहीनता के लिए जसवंत सिंह को पार्टी से निकालो, वरना वे सब चले जायेंगे. भाजपा ने हानि लाभ का गणित बिठाते हुए जसवंत सिंह को निकालने में पार्टी का कम नुकसान देखा. उनके निष्‍कासन में अन्‍य किसी कारक की खोज करना ग़लत है.क्षइससे भी बड़ी बात यह है कि इतिहास के प्रति प्रभाषजी का किस्‍सा गो का रवैय्या रहा है.

प्रभाष जोशी के संपादकत्‍व में ‘जनसत्ता’ में किस तरह पत्रकारिता हो रही थी, उसके संदर्भ सिर्फ राममंदिर आंदोलन के दौर के जनसत्ता को देखें. कम समय हो तो ‘टाइम्‍स सेंटर ऑफ मीडिया स्‍टडीज’ के द्वारा उस दौर के कवरेज के बारे में तैयार की गयी विस्‍तृत सर्वे रिपोर्ट ही पढ़ लें. यह रिपोर्ट प्रसिद्ध पत्रकार मुकुल शर्मा ने तैयार की थी.

‘टाइम्‍स सेंटर ऑफ मीडिया स्‍टडीज’ की रिपोर्ट के अनुसार ‘जनसत्ता’ अखबार ने जो उन दिनों दस पन्‍ने का निकलता था, लिखा है – ‘दस पेज के इस अखबार में 20 अक्‍टूबर से 3 नवंबर तक कोई दिन ऐसा नहीं रहा, जिस दिन रथयात्रा अयोध्‍या प्रकरण पर 15 से कम आइटम प्रकाशित हुए हों. किसी-किसी रोज तो यह संख्‍या 24-25 तक पहुंच गई है.’

इसी प्रसंग में ‘जनसत्ता’ की तथाकथित स्‍वस्‍थ और धर्मनिरपेक्ष पत्रकारिता की भाषा की एक ही मिसाल काफी है. ‘जनसत्ता’ ने (3 नवंबर 1990) प्रथम पृष्‍ठ पर छह कॉलम की रिपोर्ट छापी. लिखा – ‘अयोध्‍या की सड़कें, मंदिर और छावनियां आज कारसेवकों के खून से रंग गईं. अर्द्धसैनिक बलों की फायरिंग से अनगिनत लोग मरे और बहुत सारे घायल हुए.’ यहां पर जो घायल हुए उनकी संख्‍या बताने की बजाय ‘बहुत सारे’ कहा गया लेकिन मरने वाले उनसे भी ज्‍यादा थे. उन्‍हें गिना नहीं जा सकता था. ‘अनगिनत’ थे.

प्रभाष जोशी के संपादकत्‍व में ‘जनसत्ता’ ने संघ की खुलकर सेवा की है. समूचा अखबार यही काम करता था. इसका एक ही उदाहरण काफी है. 27 अक्‍टूबर के जनसत्ता में निजी संवाददाता की एक रिपोर्ट छपी है. इस रिपोर्ट में लिखा है – ‘भारत के प्रतिनिधि राम और हमलावर बाबर के समर्थकों के बीच संघर्ष लंबा चलेगा.’ क्‍या यह पंक्‍तियां संघ पक्षधरता के प्रमाण के रूप में काफी नहीं हैं ?

संघ के भोंपू की तरह ‘जनसत्ता’ उस समय कैसे काम कर रहा था इसके अनगिनत उदाहरण उस समय के अखबार में भरे पडे हैं. कहीं पर भी प्रभाष जोशी के धर्मनिरपेक्ष विवेक को इस प्रसंग में संपादकीय दायित्‍व का पालन करते नहीं देखा गया. बल्कि उनके संपादनकाल में संघ के मुखर प्रचारक के रूप में ‘जनसत्ता’ का कवरेज आता रहा. संपादक महोदय ने तथ्‍य, सत्‍य और झूठ में भी अंतर करने की कोशिश नहीं की.

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