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भाजपा और आरएसएस के बीच विश्वास और अविश्वास की छद्म तलवार

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जेपी सिंह

जब से लोकसभा का चुनाव संपन्न हुआ है और भाजपा अकेले दम पर बहुमत हासिल नहीं कर पाई है तब से भाजपा और आरएसएस के बीच विश्वास और अविश्वास की छद्म तलवार खींची हुई है। देखने में और सुनने में जो नजर आ रहा है उस पर बड़े से बड़े राजनीतिक पंडित को विश्वास नहीं हो रहा है, कि क्या असली है और क्या बनावटी है। दरअसल संघ की विश्वसनीयता इस दौर में शिखर से शून्य पर पहुंच गई है। राजनीति में जो दिखता है वह होता नहीं और जो नहीं दिखता देर सबेर वही घटता है।

दरअसल जिस तरह पिछले 10 साल के दौरान संघ प्रमुख मोहन  भागवत ने चुप्पी साधे रखी उससे राजनीतिक क्षेत्र में यही संदेश गया कि संघ का पूर्ण समर्थन मोदी के प्रति है क्योंकि मोदी एक के बाद एक संघ के ही एजेंडे को अमली जामा पहना रहे थे। भले महंगाई बेरोजगारी किसानों के एमएसपी पर जन आकांक्षा के अनुरूप मोदी काम नहीं कर सके।

इस परिप्रेक्ष्य में जब मोहन  भागवत ने नसीहत देते हुए कहा कि एक “सच्चे सेवक” में “अहंकार” नहीं होता है ; लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान “मर्यादा का पालन नहीं किया गया”; देश को “आम सहमति” से चलाने की जरूरत है; विपक्ष “विरोधी” नहीं बल्कि “प्रतिस्पर्धी” है; और मणिपुर की स्थिति पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। तो राजनीतिक पंडित इसकी अलग अलग व्याख्या करने लगे। किसी ने कहा संघ देर सबेर मोदी को निपटायेगा तो किसी ने कहा कि यह सब दिखावटी है और संघ मोदी के बीच नूरा कुश्ती है।

अब जैसे ही संघ प्रमुख मोहन  भागवत की तरफ से नसीहत आई तो उसे असली समझकर संघ के सीनियर नेता इंद्रेश कुमार ने कटाक्ष कर किया। इसकी राजनीतिक व्याख्या होने लगी तभी 24 घंटे के भीतर ही इंद्रेश कुमार ने पलटी मार दी और अपनी तरफ से भूल सुधार जैसी कोशिश की। यहीं से संकेत पलटने लगे।

इसी बीच गोरखपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रम में मोहन  भागवत के पहुंचने के साथ ही नई चर्चा शुरू हो गई, क्योंकि चर्चा में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का नाम जुड़ गया।

अब तो हालत ये हो गई है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के  बनारस दौरे से पहले यूपी की राजनीति का केंद्र बिंदु गोरखपुर बन गया है। लोकसभा चुनाव के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 18 जून को पहली बार अपने संसदीय क्षेत्र  वाराणसी जाने वाले हैं और संघ के कार्यकर्ता विकास वर्ग प्रशिक्षण सम्मेलन के बीच योगी आदित्यनाथ गोरखपुर जाकर  लखनऊ लौट आये हैं। अचानक ही योगी आदित्यनाथ बहुत मजबूत नज़र आने लगे हैं जबकि राजनीतिक गलियारों में यही कयास लग रहे थे कि तीसरी बार मोदी पीएम बनेंगे तो योगी हटेंगे।

योगी आदित्यनाथ के गोरखपुर दौरे से पहले से ही संघ प्रमुख मोहन  भागवत से उनकी मुलाकात की जोरदार चर्चा रही। मीडिया में तो मुलाकात तक की खबरें भी आ गईं। इंडियन एक्सप्रेस ने तो एक दिन में दो दो मुलाकातों की खबर दे दी, समय और स्थान के साथ – लेकिन सूत्रों के हवाले से।

और फिर ये भी खबर आने लगी कि  भागवत और योगी की गोरखपुर में कोई मुलाकात नहीं हुई है। संघ प्रमुख पहले भी गोरखपुर जाते रहे हैं, और योगी आदित्यनाथ से मुलाकात भी होती रही है, लेकिन ऐसा कन्फ्यूजन तो पहले नहीं देखा गया।

दरअसल 4 जून को चुनाव नतीजे आने के बाद से ही योगी आदित्यनाथ को सवालों के कठघरे में खड़ा किया जाने लगा है । करीब करीब वैसे ही जैसे 2017 के गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव पर खड़ा किया जा रहा था। कोई प्रयोग हो, या संयोग दो बार बीजेपी की हार के कारण ही सवाल उठे।

लेकिन संघ प्रमुख के बयान के बाद मामले में नया ट्विस्ट आ गया । कुछ ऐसा लगा जैसे सवालों का वो कठघरा योगी आदित्यनाथ के इर्द गिर्द से शिफ्ट होकर मोदी-शाह के आस-पास खड़ा हो गया है- सन्नाटा तो नहीं लेकिन सस्पेंस जरूर छाया हुआ है। इसको राजनितिक घटाटोप कहा जाता है।

केंद्र की सत्ता में बीजेपी की दस साल पहले वापसी हुई थी। और 2014 से अब तक यूपी में दो विधानसभा के लिए और दो लोकसभा के चुनाव हो चुके हैं। 2014 के आम चुनाव को मिला कर गिनें तो कुल पांच बड़े चुनाव कह सकते हैं।

2014 में योगी आदित्यनाथ उतनी ही चर्चा में थे, जितने पहले के चुनावों में हुआ करते थे। वो खुद भी गोरखपुर लोकसभा सीट से पांचवीं पर चुनाव मैदान में थे, और हर बार की तरह जीते भी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार में बहुत सारे नेता मंत्री बनाये गये लेकिन योगी आदित्यनाथ को मौका नहीं दिया गया।

तीन साल बाद भी जब 2017 में यूपी में विधानसभा के चुनाव हो रहे थे तब भी योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री पद की रेस में कहीं नजर नहीं आये थे। बहुत सारे नाम चर्चा में हुआ करते थे, लेकिन योगी आदित्यनाथ का नाम या तो नहीं होता, या फिर सूची में सबसे नीचे हुआ करता था।

2014 की ही तरह यूपी में 2017 का विधानसभा चुनाव भी बीजेपी ने मोदी के नाम पर ही जीता था। ऐसा ही कहा भी गया, माना भी गया और समझा भी गया। और उसी तरह 2019 के बाद 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में भी अमित शाह मोदी के ही नाम पर वोट मांग रहे थे। चुनावी रैलियों में सुनने को तो अपील यही की जाती रही कि लोग योगी को इसलिए मुख्यमंत्री बनायें ताकि 2024 में मोदी फिर से प्रधानमंत्री बन सकें। 2022 में तो यूपी के लोगों पर अमित शाह की अपील पूरा असर हुआ, लेकिन 2024 के नतीजे आने तक तो ऐसा लगा जैसे सब कुछ बेअसर हो गया था।

ताजा लोकसभा चुनाव के नतीजों की जिम्मेदारी एक बार फिर योगी आदित्यनाथ से लेकर मोदी-शाह के बीच झूल रही है और बीजेपी के चुनावी प्रदर्शन में संघ की भी भूमिका देखी जा रही है।

चुनाव नतीजे आने के बाद पहली बार संघ प्रमुख मोहन  भागवत की जो भी नसीहत सामने आई, सुन कर तो ऐसा ही लगा जैसे निशाने पर बीजेपी नेतृत्व ही हो। अब बीजेपी नेतृत्व माने बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा, केंद्रीय मंत्री अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी।

संघ प्रमुख की एक टिप्पणी में तो बीजेपी नेतृत्व ही निशाने पर लगता है, ‘ये सही नहीं है कि टेक्नोलॉजी की मदद से झूठ फैलाया जाये। केंद्र में भले ही एनडीए सरकार वापस आ गई है, लेकिन देश के सामने चुनौतियां खत्म नहीं हुई हैं।और उसके ठीक बाद संघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य इंद्रेश कुमार का कहना, ‘राम राज्य का विधान देखिये… जिनमें राम की भक्ति थी और धीरे-धीरे अहंकार आ गया, उन्हें 240 सीटों पर रोक दिया… जिन्होंने राम का विरोध किया, उनमें से राम ने किसी को भी शक्ति नहीं दी। संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर में बहुत कुछ लिखा गया और निशाने पर बीजेपी ही रही।

अब एक विचार यह सामने आया कि क्या यह महज संयोग है कि देश के मतदाताओं ने जैसे ही विपक्ष को ताकत बख्शी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक मोहन  भागवत ‘लोकतांत्रिक मूल्यों व मर्यादाओं के पैरोकार’ बनकर अपने राजनीतिक फ्रंट भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) व उसके ‘महानायक’ नरेंद्र मोदी को ‘आईना दिखाने’ का भ्रम रचने लगे कि देर से ही सही, आरएसएस व भाजपा-मोदी के अंतर्विरोधों की परतें उलझ़ने व उधड़ने लगी हैं?

आरएसएस व भाजपा की रीति-नीति को ठीक से समझने वाले प्रेक्षकों के निकट इस सवाल का एक ही जवाब है कि यह संयोग नहीं, अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रीकाल में शुरू हुए आरएसएस के बेहद महत्वाकांक्षी प्रयोग की पुनरावृत्ति है और इसका एकमात्र उद्देश्य सत्ता के साथ विपक्ष की भूमिका को भी हथिया लेना है। ताकि इनमें से कोई भी पक्ष परिवार की पहुंच से बाहर न रहे और दोनों में उसकी भरपूर रसाई हो।

जमीनी हालात के मूल्यांकन में मोदी व भाजपा से हुई गलती में आरएसएस का भी हिस्सा है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा की करारी हार के बाद चुनाव जीतने के लिए हिंदुत्व और मोदी का नाम पर्याप्त नहीं रह जाने की बात लिखते हुए उसके अंग्रेजी मुखपत्र ‘ऑर्गेनाइजर’ ने यह भी कहा था कि हिंदुत्व और मोदी का नाम तभी काम करते हैं, जब राज्यों में अच्छा शासन हो। लेकिन मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनावों में भाजपा की शानदार जीत के बाद ऐसी कोई कड़ी बात कहने से वह सायास परहेज बरतता रहा।अब जरूर फिर से तेवर दिखा रहा है।

इस देश में यह हकीकत कौन नहीं जानता कि मोदी के दस साल के राज में आरएसएस के स्वयंसेवकों ने सारी लोकतांत्रिक शुचिताओं पर पाद-प्रहार करते हुए न सिर्फ केंद्र व ज्यादातर राज्य सरकारों के नेतृत्व बल्कि शीर्ष संवैधानिक पदों व संस्थाओं पर भी कब्जा कर लिया और लगातार उनकी गरिमा के क्षरण में लगे रहे, तो भी  भागवत को किसी लोकतांत्रिक मर्यादा की याद नहीं आई। उन्होंने कभी ऐसा कोई संकेत नहीं दिया कि आरएसएस अभीष्ट हिंदू राष्ट्र के लिए लोकतांत्रिक भारत से कभी प्रत्यक्ष तो कभी प्रच्छन्न दुश्मनी की अपनी पुरानी नीति से परहेज बरतेगा या अपने नजरिये को प्रतिगामिताओं से मुक्त करेगा।

नरेंद्र मोदी आरएसएस के असली ‘सपूत’ हैं और संघ मोदी का सबसे बड़ा लाभार्थी। देश इस भ्रम का शिकार नहीं है कि  भागवत भी उसी लोकतंत्र की बात कर रहे हैं, जिसकी विपक्ष करता है। पूरा देश जानता है कि संघ के विकल्प बिल्कुल साफ हैं-हिंदू लोकतंत्र, कॉरपोरेटी लोकतंत्र, इन दोनों के घालमेल वाला लोकतंत्र।

मोदी के मातहत भले ही संघ अप्रासंगिक हुआ हो पर आरएसएस भी अच्छी तरह जानता है कि 2014 के बाद से उसे क्या लाभ हुआ है। 

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