संविधान पर संसद के विशेष सत्र में बहस की शुरुआत करते हुए रक्षामंत्री राजनाथसिंह को अपने भाषण में पं. जवाहरलाल नेहरू का नाम लेने में शरम आ रही थी. जबकि सच्चाई यह है कि संविधान निर्माण में जितनी भूमिका डॉ. भीमराव आंबेडकर की है उससे कम भूमिका पं. नेहरू की नहीं है. संविधान की उद्धेशिका, जिस पर संविधान का पुरा ढांचा खड़ा किया गया है वह पं. नेहरू की ही विचारसरणि की उपज है. देश के साम्प्रदायिक और दक्षिणपंथी संगठनों की पं. नेहरू के प्रति नफ़रत का प्रमुख कारण यह है कि आजादी के बाद इन संगठनों का सबसे अधिक विरोध यदि किसी ने किया तो वे पं. नेहरू ही थे. संसद में संविधान पर हो रही बहस के संदर्भ में मेरा यह पुराना आलेख पुनः प्रस्तुत है :प्रवीण मल्होत्रा
1957 तक डॉ. लोहिया सिद्धान्तकार थे। दो आम चुनावों में समाजवादियों की बुरी और निराशाजनक पराजय के बाद वे सिद्धान्तकार से राजनीतिज्ञ बन गए। 1966 में उन्होंने गैरकांग्रेसवाद की रणनीति प्रतिपादित की। सैद्धांतिक रूप से इस रणनीति में कोई खोट नहीं थी तथा यह समय और राजनीति की जरूरत थी। लेकिन उन्होंने इस रणनीति के तहत जिस संयुक्त मोर्चे का गठन किया उसमें समान विचारधारा के दलों की जगह देश के सारे दक्षिणपंथी – साम्प्रदायिक तत्वों को शामिल कर लिया।
डॉ. लोहिया पूंजीवाद और साम्यवाद के दानवों से तो सोशलिस्टों को सचेत करते रहे लेकिन उन्होंने हिन्दू राष्ट्रवाद के कट्टर दक्षिणपंथी और साम्प्रदायिक दानव की ओर से मुंह फेर लिया। पं. नेहरू ने सांप्रदायिकता के इस दानव से 1947 से ही लोहा लिया। इसीलिये आज भी पं. नेहरू हिंदुत्ववादियों की दृष्टि में सबसे बड़े खलनायक हैं।
1951-52 के प्रथम आमचुनाव में 30 सितंबर 1951 को लुधियाना (पंजाब) में पांच लाख लोगों की विशाल चुनावी जन सभा को सम्बोधित करते हुए नेहरू ने ‘सांप्रदायिकता के खिलाफ आर पार की लड़ाई छेड़ने का आव्हान किया।’ उन्होंने साम्प्रदायिक संगठनों की निंदा की, जो हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति के नाम पर मुल्क में फिरकापरस्ती फैला रही थी, जैसा एक जमाने में मुस्लिम लीग किया करती थी। नेहरू ने कहा, ‘ये शैतानी साम्प्रदायिक तत्व’ यदि सत्ता में आ गए तो देश में बर्बादी और मौत का तांडव लाएंगे।
महात्मा गांधी के जन्मदिन 2 अक्टूबर 1951 को दिल्ली की मुख्य जनसभा में अपने 95 मिनिट के भाषण में उन्होंने सांप्रदायिकता को अपना सबसे बड़ा दुश्मन करार दिया और कहा इसके लिये ‘देश में कोई भी जगह नहीं रहने दी जाएगी’ और हम ‘अपनी पूरी ताकत के साथ इसपर प्रहार करेंगे।’ जोरदार तालियों की गड़गड़ाहट के बीच उन्होंने कहा, ‘अगर कोई भी आदमी किसी दूसरे आदमी पर धर्म की वजह से हाथ उठाता है तो मैं सरकार का मुखिया होने के नाते और सरकार से बाहर भी, जिंदगी की आखिरी सांस तक उससे (सांप्रदायिकता से) लड़ता रहूंगा।’
जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी के गृहराज्य प.बंगाल में उन्होंने जनसंघ को ‘आरएसएस और हिन्दुमहासभा की नाजायज औलाद’ कहकर खारिज कर दिया। बिहार की जनसभा में उन्होंने जातिवाद के दानव की आलोचना की। भरतपुर (राजस्थान) और बिलासपुर (मध्यप्रदेश) में उन्होंने अपने वामपंथी (कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट) आलोचकों की हड़बड़ी की यह कहकर आलोचना की कि वे उनके साध्य से तो सहमत हैं लेकिन साधनों से नहीं। नेहरू ने कहा कि हिंदुस्तान में ‘एक-एक ईंट जोड़कर ही समाजवाद का महल खड़ा किया जा सकता है।’ सांप्रदायिकता के विरुद्ध पं.नेहरू के इस मुखर विरोध के कारण ही आरएसएस और जनसंघ उनके जीवित रहते भारत की समावेशी संस्कृति और राजनीति की मुख्यधारा में शामिल नहीं हो सके तथा राजनीतिक रूप से अस्पर्श्य ही बने रहे। लेकिन पं.नेहरू के निधन के बाद उन्हें संयुक्त मोर्चे की राजनीति में हिस्सेदार बन कर सिर उठाने का अवसर मिल गया।
(सभी उद्धरण इतिहासकार रामचन्द्र गुहा की पुस्तक ‘भारत:गांधी के बाद’ से लिये गये हैं)।
इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि पं.नेहरू से बड़ा धर्मनिरपेक्षतावादी नेता स्वातन्त्रयोत्तर भारत में दूसरा नहीं था। सांप्रदायिकता, धार्मिक कट्टरता, जातिप्रथा और अंधविश्वास के विरोध के कारण ही पं.नेहरू कट्टर धार्मिक और साम्प्रदायिक तत्वों के सबसे बड़े शत्रु बन गए थे और आज अपने निधन के 59 साल (अब 60 पढ़ें) बाद भी वे ही उनके सबसे बड़े शत्रु बने हुए हैं।
दूसरी ओर, डॉ. लोहिया ने कट्टर हिन्दुत्ववादी सांप्रदायिकता से संघर्ष करने के बजाय गुरु गोलवलकर और पं.दीनदयाल उपाध्याय के साथ मिल कर संयुक्त मोर्चा बना लिया। क्या डॉ. लोहिया की निगाह में गोपालन, नम्बूदरीपाद, बीटी रणदिवे, भूपेश गुप्त, ज्योति बसु, श्रीपाद अमृत डांगे जैसे ईमानदार और सिद्धान्तनिष्ठ नेता, गोलवलकर, दीनदयाल उपाध्याय, अटलबिहारी वाजपेयी जैसों से गये बीते थे? डॉ. लोहिया ने अपने राजनीतिक जीवन में जनसंघ के साथ गलबहियां कर शायद सबसे बड़ी राजनीतिक भूल की थी। इसके पीछे उनकी कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने की छटपटाहट थी। इसीलिये उन्होंने कहा था कि कांग्रेस को सत्ता से हटाने के लिये वे शैतान से भी हाथ मिलाने के लिये तैयार हैं।
इस वैचारिक स्खलन का परिणाम यह हुआ कि समाजवादियों का कोई राजनीतिक – सैद्धांतिक धर्म ही नहीं रहा और सत्ता के लिये वे अवसरवादी समझौते करने लगे और फिसलते ही चले गए। समाजवादी आंदोलन के पतन का सबसे बड़ा कारण यह वैचारिक स्खलन ही है। जनसंघ के लोग कभी इस वैचारिक पतन के शिकार नहीं हुए।
1925 में आज से 98 (अब 99 पढ़ें) साल पहले जिस उद्देश्य के लिये आरएसएस की स्थापना हुई थी, उसके प्रति वे हमेशा अडिग और निष्ठावान रहे। उन्होंने अन्य दलों के साथ जो समझौते किये वे तात्कालिक जरूरत और रणनीति को ध्यान में रखकर किये। जैसे 1977 में उन्होंने जयप्रकाश जी के आव्हान पर कुछ समय के लिये जनसंघ को विसर्जित कर दिया। लेकिन जैसे ही अवसर मिला जनसंघ को पुनर्जीवित कर भारतीय जनता पार्टी के रूप में अधिक जनाधार वाली पार्टी की स्थापना कर ली। जबकि समाजवादी पुनः सोशलिस्ट पार्टी को पुनर्जीवित नहीं कर पाए और दूसरे राष्ट्रीय नेताओं और जातिवादी पार्टियों की बैसाखी के सहारे राजनीति करने लगे। आरएसएस की सैद्धांतिक निष्ठा का परिणाम हम आज देख रहे हैं। वर्तमान में आरएसएस ने अपनी सभी विरोधी पार्टियों को हाशिये में धकेल दिया है और वह अपने लक्ष्य – हिन्दू राष्ट्र की स्थापना – की दिशा में निरन्तर आगे बढ़ रही है। इसलिये आज भी बार-बार पं.नेहरू याद आते हैं जिन्होंने जीवनपर्यंत कभी भी सांप्रदायिकता और धार्मिक कट्टरता के साथ समझौता नहीं किया तथा हमेशा सच्ची धर्मनिरपेक्षता का पक्ष पोषण किया।