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आमजन और राजनीति?

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शशिकांत गुप्ते

राजनीति क्या है। यह सिर्फ चौराहों और व्हाट्सएप विश्वविद्यालय में जो की जाती है वह राजनीति नहीं है।
राजनीति शास्त्र है।
यह विश्वविद्यालय में पढ़ाया जाता है।
यह देश की आर्थिक,सामाजिक शिक्षा चिकित्सा,श्रम आदि के लिए बनने वाली नीति के निर्धारण का मोर्चा है।
प्रायः आमजन कहता है,राजनीति से हमें क्या लेना देना,कुछ लोग तो यहाँ तक कहतें हैं कि राजनीति पर चर्चा करना,मतलब में फजूल समय बर्बाद करना है।
एक अभिनेता ने एक नेता से सास पूछा आम चूस कर खाते हो या काट कर।
यहाँ आम से तात्पर्य फलों के राजा से है।
वास्तव में जो आमजन है,उससे ना तो अभिनेता को कोई सरोकार है,ना ही नेता को आमजन की चिंता है।
इस मुद्दे पर व्यंग्यकार सीतारामजी का कहना है कि,सच में आम आदमी के आय को महंगाई चूस रही है। चिकित्सा और शिक्षा का व्यय आम आदमी अपना पेट काटकर वहन कर रहा है। आमजन स्वयं की उदासीनता को भूल से सबूरी समझता है।
सबूरी का फल आमजन को कड़वा ही मिलता है। देश के धनकुबेरों को जरूर मीठा मिलता है। यदि आमजन बैंक का ऋण चुकाने में असमर्थ होता है,तो उसे उसकी संपत्ति कुर्क करने का नोटिस मिल जाता है। आमजन बेचारा समाज में अपना मूंह छिपाने की कोशिश करता है।
धनकुबेर समर्थ होते हुए भी ऋण चुकता नही है। देश की अर्थनीति को मुंह चिढ़ाते हुए विदेश भ्रमण करता है। धनकुबेर के इस कृत्य को सियासी साठ गांठ की भाषा में पलायन नहीं कहते हैं।
आम आदमी की समस्याएं के लिए कौन लड़ेगा कारण अब तो आम आदमी नमक दल भी राजनैतिक फलक पर उभर आया है। सबसे अलग पहचान बनाने का दावा और असल में विकल्प की जगह कार्बन कॉपी ही नजर आता है।
यदि बड़े मिया मंदिर निर्मित करेंगे तो छोटे मियां मुफ्त मंदिर दर्शन करवाएंगे। कारण मुफ्त की योजनाओं को मूर्त रूप देने में हमसे बढ़कर कौन?
आश्चर्य जनक किंतु सत्य कथन है।
आमजन स्वयं को राजनीति से दूर रखना चाहता है। लेकिन चुनाव के दौरान अपने पसंद के दल के उम्मीदवार को अपना समर्थन देने की परंपरा का निर्वाह बखूबी करता है।
निर्वाचित जन प्रतिनिधि आमजन की उदासीनता को बखूबी जानता है।
इस संदर्भ में शायर गुजरालजी का ये शेर मौजू है।
वह इंसान जो तुम्हे वक्त देना जरूरी नहीं समझता है।
तुम्हे क्या लगता है,वो तुम्हे साथ देगा?
दोषी कौन?

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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