अग्नि आलोक

*विनेश फोगट के अयोग्य ठहराए जाने से देश में सार्वजनिक आक्रोश*

Share

*(आलेख : जगमती सांगवान, इंद्रजीत सिंह ; अनुवाद : संजय पराते)*

पेरिस ओलंपिक में विनेश फोगट के असाधारण प्रदर्शन के बाद, स्वर्ण पदक कुश्ती के मुकाबले में उन्हें अयोग्य ठहराए जाने से देश में फैली नाराजगी उनके साथ अभूतपूर्व एकजुटता में बदल गई है। यह सार्वजनिक आक्रोश आसानी से दरकिनार नहीं किया जा सकता, क्योंकि फोगट कोई साधारण ओलंपियन नहीं हैं और  यह भारत के लिए सिर्फ एक और स्वर्ण पदक गंवाना भर नहीं है। 50 किलोग्राम वर्ग में मात्र 100 ग्राम के कारण उनके अयोग्य ठहराए जाने की चर्चा का एक विशेष संदर्भ है, जिस पर गहन विश्लेषण की आवश्यकता है। इस मुद्दे से निपटने के भारत सरकार के तरीके से भी आम जनता नाराज हैं।

Oplus_131072

हमें अपने सभी ओलंपियनों पर गर्व है — खासकर महिला खिलाड़ियों पर ; वे पदक के साथ या बिना पदक के भी हमारी संपत्ति हैं। फिर भी, पेरिस ओलंपिक खेलों के लिए क्वालीफाई करने से पहले ही फोगट कई लोगों के लिए खास थीं। अयोग्यता के बाद से उनका साहस और हिम्मत और मजबूत हो गया है।

फोगाट भारतीय महिला खिलाड़ियों के उस संघर्ष का प्रतीक हैं, जो उनके अपने संरक्षकों द्वारा यौन शोषण की व्यापक कुप्रथा के खिलाफ़ चलाया जा रहा है। उन्होंने और उनकी अन्य पदक विजेता साथियों ने भारतीय कुश्ती महासंघ (डबल्यू एफ आई) के घिनौने चेहरे को उजागर करने के लिए अपने उज्ज्वल करियर को जोखिम में डालकर बहुत साहस का परिचय दिया था। पहलवानों ने भाजपा के सबसे शक्तिशाली सांसदों में से एक, कुश्ती महासंघ के तत्कालीन अध्यक्ष बृज भूषण सिंह का, दृढ़ता से सामना किया था। इन खिलाड़ियों ने उन पर यौन उत्पीड़न और प्रताड़ना का आरोप लगाया था। जंतर-मंतर पर उनके धरने को देश भर के महिला संगठनों, किसान संगठनों और नागरिक समाज समूहों से भारी समर्थन मिला था। दिल्ली पुलिस को देर से ही सही, सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर, सिंह के खिलाफ़ एफआईआर दर्ज करनी पड़ी।

लेकिन इस लड़ाई की कीमत चुकानी पड़ी। साक्षी मलिक, जो एक ओलंपियन और साथी आंदोलनकारी हैं, ने कुश्ती से संन्यास ले लिया, जबकि फोगट को हर कदम पर दुश्मनी का सामना करना पड़ा। (इसके बाद भी) फोगट ने एक दिन में तीन बेहतरीन पहलवानों को हराकर अपनी ताकत साबित की, जिसमें अपराजित जापानी विश्व चैंपियन युई सुसाकी पर रोमांचक जीत भी शामिल है। लेकिन स्वर्ण पदक पर पक्की दावेदारी की खुशी कुछ ही घंटों बाद निराशा में बदल गई।

देशवासियों के मन में अभी कई सवाल हैं — जिनके संतोषजनक उत्तर दिए जाने की जरूरत है। सबसे पहले, फोगाट ने ओलंपिक के लिए क्वालीफाई करने के तुरंत बाद ही अपने डर को जाहिर कर दिया था। उन्हें डर था कि महिला पहलवानों के यौन शोषण के खिलाफ आंदोलन में उनकी भूमिका के लिए अधिकारी उन्हें डोपिंग मामले में फंसा सकते हैं।

कंगना रनौत जैसे भाजपा नेताओं द्वारा अपनी पार्टी से छूट पाकर की गई सार्वजनिक टिप्पणियों से फोगट के खिलाफ़ मजबूत आधिकारिक पूर्वाग्रहों की बू आती है। इसके अलावा, खेल मंत्री द्वारा संसद में फोगट के प्रशिक्षण पर खर्च किए गए धन का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करना अरुचिकर था, जबकि देशवासी उनकी अयोग्यता से बहुत दुखी थे और जवाबदेही तय करने की मांग कर रहे थे।

प्रसिद्ध अमेरिकी पहलवान जॉर्डन बरोज़ ने मुकाबलों के कार्यक्रम में एक दिन से दो दिन तक के परिवर्तन को देखते हुए, वजन को नियंत्रित करने वाले तकनीकी नियमों में तत्काल बदलाव का सुझाव दिया है।

जो भी हो, खेल अभी खत्म नहीं हुआ है ; अभी कई मुकाबले होने बाकी हैं। विनेश, आप तकनीकी मुद्दों पर भले ही हार गई हों, लेकिन यह न्याय को नकारने वाली व्यवस्था और उसे पाने की चाहत रखने वाले लोगों के बीच की जंग है। हम सब मिलकर इस जंग को जीतेंगे — न्याय, समानता और आत्म-सम्मान पर आधारित व्यवस्था बनाने के लिए।

*(जगमती सांगवान अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की उपाध्यक्ष और पूर्व वॉलीबॉल खिलाड़ी हैं। इंद्रजीत सिंह अखिल भारतीय किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। अनुवादक संजय पराते छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।)*

[13/08, 08:06] Sanjay Pareta Raipur: (अच्छा लगे, तो मीडिया के साथी *राजेंद्र शर्मा* के ये तीन व्यंग्य ले सकते हैं। सूचित करेंगे, तो खुशी होगी।)

*राजेंद्र शर्मा के तीन व्यंग्य*

*1. ज़रा नफ़रत तो बढ़ाओ, यारो!*

सच पूछिए तो हिंदू इसीलिए खतरे में है और खतरे में सिर्फ आज ही नहीं है, आगे भी खतरे में ही रहेगा। बल्कि इन नीरज चोपड़ाओं का बस चला, तो हिंदू हमेशा खतरे में ही रहेगा। अब बताइए, भाई साहब इस भारत वर्ष के रोल मॉडल हैं। आखिर ओलम्पिक मेडल विजेता हैं। जिस देश में ओलम्पिक मेडल विजेता उंगलियों पर गिने जा सकते हैं, वहां मेडल विजेता हैं। और कांसेवाले मेडल के नहीं, सोने-चांदी वाले मेडल के विजेता हैं। पिछली बार भाला फेंक में सोने वाला मेडल जीतकर लाए थे और इस बार भी सोने से जरा से चूक गए, पर चांदी का मेडल तो ले ही लिया। पर जनाब कर क्या रहे हैं? भाला-वाला तो खैर फेंक ही रहे हैं, पर उसके अलावा क्या कर रहे हैं, वहां पेेरिस में? जिसने इन्हें भाला फेंकने में पछाड़ दिया, उसी अरशद नदीम के साथ कुछ ज्यादा ही फ्रेंडली हो रहे हैं। हार-जीत के फैसले के बाद, अरशद को बुला-बुलाकर उसके साथ फोटो खिंचवा रहे हैं। उसका हाथ कंधे पर रखवाकर फोटो खिंचवा रहे हैं। और तो और भारत के झंडे के तले, उसे साथ में लेकर फोटो खिंचवा रहे हैं। 

माना कि ओलम्पिक खेल का मामला है। भाला फेंकना भी जब युद्ध का हिस्सा रहा होगा, तब रहा होगा, अब तो शुद्ध खेल की चीज है। खेल के साथ, खेल भावना भी होनी चाहिए। प्रतिस्पर्द्धी को दुश्मन नहीं, दोस्त मानना चाहिए, जिससे मुकाबले से पहले भी हाथ मिलाएं और मुकाबले के बाद भी। यह सब तो सही है। पर खेल भावना की भी कोई हद्द तो होती होगी। एक तो पट्ठे ने पोडियम पर सोने वाली सीढ़ी से धक्का देकर, हमारे नीरज को चांदी की सीढ़ी पर पहुंचा दिया। ऊपर से नाम भी अरशद नदीम। उसके भी ऊपर से पाकिस्तानी! इसके बाद भी कोई इतना फ्रेंडली कैसे हो सकता है!

किसी को बुरा लगे तो लगे, हम तो सच कह के रहेंगे। यह खेल भावना-वावना का नहीं, सिर्फ हिंदुओं को चिढ़ाने का मामला है। अरशद-नीरज की जोड़ी की तस्वीरें वायरल हो रही हैं। उनकी होड़ की कहानियां सुनायी जा रही हैं — होड़ हो तो ऐसी। मैदान में विश्व के सर्वश्रेष्ठ प्रतियोगी और मैदान के बाहर पक्के दोस्त। कहानियां बन रही हैं कि पिछली बार नीरज को सोना मिला था और अरशद को चांदी, तब भी दोनों में ऐसी ही दोस्ती थी; इस बार अरशद को सोना और नीरज को चांदी मिली है, तब भी दोनों में वैसी ही दोस्ती है। बल्कि होड़ का नतीजा कुछ भी हो, हर मुकाबले से उनकी दोस्ती और पक्की होती जाती है। हद्द तो ये है कि यारी-दोस्ती की इन कहानियों में तडक़ा लगाने के लिए, मम्मियां भी मैदान में कूद पड़ी हैं, अपने-अपने घर से ही। नीरज की मम्मी कह रही हैं कि सोने का अफसोस नहीं है, हमारे लिए तो चांदी का तमगा भी सोने जैसा ही है। खूब जश्न होगा। जिसने सोना जीता है, उसने भी मेहनत की है। वह भी हमारा ही बेटा है! बॉर्डर के इस पार से नीरज की मम्मी, सरोज देवी कह रही हैं कि अरशद भी हमारा ही बेटा है, उधर बॉर्डर के उस पार से अरशद की मम्मी, रजिया परवीन उनके सुर में सुर मिला रही हैं — नीरज भी हमारा बच्चा है। और तो और, मम्मियों की जोड़ी की तस्वीरें भी खूब वायरल हो रही हैं? बड़ी गुडी-गुडी सी फीलिंग फैल रही है और स्वयंभू हिंदू-रक्षकों की चिंताएं बढ़ा रही है।

बताइए, जिसका मन करेगा, ऐसे ही मोहब्बत की दुकान ही खोलकर बैठ जाएगा, फिर हिंदू को खतरे से निकालने के लिए हथियार कौन उठाएगा? इन नीरज चोपड़ाओं की भी हिंदू को खतरे से निकालने की कोई जिम्मेदारी बनती है या नहीं? बल्कि अगले को तो ज्यादा कुछ करने की भी जरूरत नहीं थी। होड़ थी। इधर हिंदू, उधर मुसलमान था। होड़ के नतीजे में भी उठा-पटक थी। हार में जरा चुटकी भर कडुआहट की ही तो जरूरत थी, बाकी सब काम तो गोदी मीडिया खुद कर देता। बल्कि बेचारे गोदी मीडिया ने तो पिछली बार भी कर दिया था। खबर चला दी थी कि बदमाश अरशद ने, शरीफ नीरज का भाला ही उड़ा लिया था। वह तो नीरज को टैम पर पता चल गया, वर्ना कुछ भी हो सकता था, वगैरह। लेकिन, नीरज ने ही बेचारों की सारी मेहनत पर यह कहकर पानी फेर दिया कि बड़े-बड़े खेलों में ऐसी गलतियां हो जाती हैं ; इसके पीछे कोई शरारत नहीं थी! इस बार तो खैर बंदों ने ऐसा कोई बहाना तक नहीं दिया। उल्टे अपनी मोहब्बतबाजी से बेचारे हिंदू के लिए खतरा कई गुना बढ़ा दिया।

क्या समझते हैं, पेरिस की इस मोहब्बत की दुकान से, बंगलादेश में हिंदुओं पर अत्याचारों की कहानियों का असर कमजोर नहीं हो रहा होगा? हो रहा है, बाकायदा हो रहा है। व्हाट्सएप पर कहानियों का रेला है, फिर भी हिंदू वैसे तैश में नहीं आ रहा है, जैसे उसे तैश में आना चाहिए था। उल्टे ज्यादा कहानियां तो फैलने से पहले ही फैक्ट चेकरों के चक्कर में फुस्स हो जा रही हैं। ऊपर से इसकी कहानियां और कि बंगलादेश के छात्र और बाकी लोग, हिंदुओं को बचाने के लिए इलाके-इलाके में रखवाली कर रहे हैं! फिर इसकी कहानियां भी कि हमले करने वालों के निशाने पर शेख हसीना की पुलिस, उनके संगी, उनकी पार्टी वाले हैं, मुसलमान भी और हिंदू भी। और इसकी कहानियां भी कि वहां जैसा-तैसा जो राज कायम हो रहा है, हिंदुओं की हिफाजत के लिए हाथ-पैर जरूर मार रहा है। फिर बेचारा हिंदू तैश में आए, तो आए कैसे? वहां आ नहीं सकता और यहां आए तो तब, जब भाई लोग आने दें।

फिर भी यहां-वहां स्वयंभू हिंदू रक्षकों ने, गरीब बंगालियों, गरीब मुसलमानों या सिर्फ गरीबों की झोंपडिय़ों पर युद्ध की कार्रवाइयां की हैं। आग-वाग लगायी है, लाठी-वाठी घुमायी है, झोंपडिय़ों में रहने वालों को खदेड़ा है। और चूंकि राज करने वाले उन्हें रोकने वाले नहीं हैं, इसलिए यह सब अभी और चलेगा। मगर, हिंदू का खून तो तमीज से खौल ही नहीं रहा है। योगी जी, लव जेहाद-कम-जबरन धर्मांतरण के लिए सजा बढ़ाने का कानून ले आए हैं, तब भी नहीं। मोदी जी वक्फ कानून को बदलने के लिए नया कानून ला रहे हैं, तब भी नहीं। मोदी जी गुपचुप, यू ट्यूबरों वगैरह पर लगाम लगाने का कानून बनवाए हैं, तब भी नहीं। राम माधव को बंगलादेश को धर्मनिरपेक्ष बने रहने का उपदेश देना पड़ रहा है, त भी नहीं। चुनाव में मोदी जी को जरा सा झटका क्या लग गया, हिंदुओं के खून का उबाल ही जैसे बैठ गया है। ऐसे तो हिंदू सदा खतरे में ही रहेगा। ये बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। ये नीरज चोपड़ाओं की और उनकी मम्मियों की भी, मुहब्बत की दुकानें बंद कराओ, यारो! हिंदू को खतरा तो दिखाओ, यारो! जरा नफरत तो बढ़ाओ, यारो! और ये विनेश फोगाट को भी फॉरगॉट कराओ यारो!

**********

*2. विनेश हारा नहीं करतीं!*

ये तो इंसाफ की बात नहीं है। विनेश फोगाट ने एक के बाद एक तीन मुकाबलों में विदेशी पहलवानों को पछाड़ कर, फाइनल तक पहुंचने का रिकार्ड बनाया पेरिस में और यहां इंडिया में भाई लोगों ने हल्ला मचा दिया कि विनेश ने, राजनीति के अखाड़े के पहलवान, ब्रजभूषण शरण सिंह को पटक दिया। कोई-कोई तो मोदी जी को पटखनी खिलवाने तक भी चला गया। कहते हैं कि इसी की खिसियाहट में तो साहब के मुंह सेे विनेश के लिए बधाई के दो शब्द तक नहीं निकले! यानी कुश्ती पेरिस में और हार-जीत इंडिया में ; कुश्ती नहीं हुई, मजाक हो गया।

पर बात इतने तक ही रहती, तो फिर बात समझ में आती थी। कहते हैं — जो जीता, सो सिकंदर। इंडिया का मुकाबला चाहे पेरिस में ही जीत रही थी, फिर भी विनेश फोगाट जीत तो रही थी। सोने की उम्मीद ही सही, पर चांदी की चमक को बाकायदा गले में डालकर दिखा रही थी। दुधारू गाय की तो दो लातें भी सहन करने में ही समझदारी मानी जाती है। पर आखिर में तो वह जीत भी नहीं रही। आखिरकार, सौ ग्राम वजन ने विनेश को ऐसा चित किया, ऐसा चित किया कि अर्श से उतारकर फर्श पर पटक दिया। पर उसके बाद भी भाई लोगों ने ब्रजभूषण शरण सिंह और मोदी जी का पीछा नहीं छोड़ा है। कोई षडयंत्र-षडयंत्र चिल्ला रहा है, तो कोई इसका इल्जाम लगा रहा है कि देश की बेटी के साथ अन्याय हो गया और राज करने वालों से ढंग से शोर भी नहीं मचाया गया। एक छोटे से देश ने तो अपने खिलाफ फैसला पलटवा लिया और अपना मैडल रखवा लिया, पर विश्व गुरु से उतना भी नहीं कराया गया। दुनिया में बजते डंके का क्या हुआ? छप्पन इंच की छाती कहां समा गयी? पर क्यों? क्यों, क्या, इच्छा ही नहीं थी। विनेश की जीत में, देश की जीत की जगह, अपनी हार जो दीखती थी! यानी चित भी विनेश की, पट भी विनेश की, ब्रजभूषणों की केवल हार!

जंतर-मंतर पर हार कर भी जीतने के बाद से इन महिला पहलवानों को हार कर जीतने की चाट लग गयी है। अब इन विनेशों को कोई हरा नहीं सकता। जंतर-मंतर पर हरा दिया, तो पलट कर पेरिस में चित कर देेंगी, विश्व मंच पर।  लड़ने वाले की हार नहीं होती है!

**********

*3. वास्तुकला का मोदी युग*

मोदी जी गलत नहीं कहते हैं। इन विपक्ष वालों को भारत की तरक्की मंजूर ही नहीं है। अव्वल तो ये तरक्की होने ही नहीं देंगे। और इनके रोकते-रोकते भी तरक्की हो भी जाएगी, तो ये शर्मा-शर्मी भी तरक्की का गौरव-गान नहीं करेेंगे। उल्टे जहां तक बस चलेगा, तरक्की को गिरावट ही साबित करने में जुट जाएंगे। अब संसद के टपकने का ही मामला ले लीजिए। बारिश के मौसम में संसद जरा सी टपकने क्या लगी, भाई लोगों ने ये क्या हो रहा है, कैसे हो रहा है का ऐसा शोर मचा दिया, जैसे आफत ही टूट पड़ी हो। और यह सारा हंगामा भी तब, जबकि मोदी सरकार ने कमाल की मुस्तैदी से काम किया था और पानी के टखनों से ऊपर पहुंचने से पहले ही, हर टपकन की जगह के ठीक नीचे, प्लास्टिक की बाल्टी रखवाने का इंतजाम कर दिया था। यानी टपके की जो भी बूंद आए, सीधे बाल्टी में जमा हो जाए। पानी तो सिर्फ टपक रहा था, बिना किसी को परेशान किए, लेकिन विरोधियों ने शिकायत कर-कर के बेचारी सरकार के कान खा लिए।

और बात सिर्फ विपक्ष और सरकार की कहा-सुनी तक ही रहती, तब तो फिर भी गनीमत थी। मोदी को घसीटा सो घसीटा, भाई लोगों ने मोदी जी के प्रिय वास्तुकार बिमल पटेल को भी इस झगड़े में घसीट लिया। कहते हैं कि मोदी जी ने नयी संसद बनवाई है, तो बिमल पटेल ने नई संसद बनायी है। नयी संसद में टपके का, मोदी के संग-संग बिमल पटेल को भी जवाब देना होगा। उधर मीडिया वालों ने भी 4 जून के बाद से धीरे-धीरे पल्टी मारनी शुरू कर दी है। आगे देखा न पीछे, पट्ठे गिनाने लग गए कि इस बार की बरसात में और क्या-क्या टपका है! अयोध्या में राम मंदिर के टपकने की खबर तो खैर इस बार पहली बारिश के बाद ही आ गयी थी। बारिश के बीच तक पहुंचते-पहुंचते, दिल्ली में संसद टपकने लगी, तो यूपी की विधानसभा भी कहां पीछे रहने वाली थी — उसने भी टपकना शुरू कर दिया। जहां-जहां नया निर्माण, वहां-वहां टपका!

तब तक सोशल मीडिया पर खबर चलने लगी कि टपकना सिर्फ मोदी जी के नये निर्माणों का गुण नहीं है। टपकती तो सरदार पटेल की तीन हजार करोड़ से ज्यादा वाली विशालकाय मूर्ति भी है। यानी नया हो या पुराना, मोदी जी ने जो भी बनवाया है, टपकना बनवाया है। वह तो शुक्र है मोदी के वास्तुकला विशेषज्ञों का, जो उन्होंने हमारी आंखों से भ्रम का पर्दा हटा दिया और टपकती छतों के पीछे का वास्तु चमत्कार देश को दिखा दिया। बारिश में टपकने वाली छत, वास्तुकला का खोट नहीं, डिजाइन है, नवाचार है। यह वास्तुकला की भारतीयता का उदघोष है। यह अंगरेजों की बनायी पुरानी संसद से, मोदी जी की नयी संसद की तात्विक यानी जल तत्व से जुड़ी भिन्नता है। और टपके के पानी को संचित करने के लिए रखी गयी प्लास्टिक की बाल्टी, वास्तुकला की इस भारतीयता को रेखांकित करती है, बल्कि टपके और बाल्टी का यह योग तो भारतीय वास्तुकला के नये युग का एलान है। यह वास्तुकला के नये युग की पहचान है, जिसे कई लोगों ने भारतीय वास्तुकला का मोदी युग कहना शुरू कर दिया है। बाल्टी का नीला रंग, इसमें भी मोदी जी के समावेशीपन का संकेतक हैै। विकसित भारत बनने के रास्ते पर इस महान उपलब्धि को शर्म का बायस कौन भकुआ बनाना चाहता है।       

*(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)*

Exit mobile version