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*लोकवार्ता-अध्ययन की प्रयोजन-मूलकता*

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      ~ पुष्पा गुप्ता

लोकवार्ता के अध्ययन का प्रयोजन मनुष्य और मनुष्यता की प्रतिष्ठा है। समष्टि  की प्रतिष्ठा है , समष्टि के कितने ही सोपान हो सकते हैं- व्यक्ति की सीमा से बाहर निकलें तो मोहल्ला भी समष्टि है  , उसके आगे समुदाय  है, जाति  है,जाति से बाहर वृहत्तर- समाज है।

     गाँव है ,जनपद है फ़िर प्रदेश है ,फिर राष्ट्र की प्रतिष्ठा है। परिवारों के परिवार का ही नाम समाज है और कुटुंबों के कुटुंब का नाम राष्ट्र ! उसके आगे विश्वचेतना है। लोकवार्ता के अध्ययन का प्रयोजन विश्वव्यापी चैतन्य-शक्ति का साक्षात्कार करना है , जिसे  महाकवि जयशंकर प्रसाद के शब्दों में विश्वचेतना कह सकते हैं।

     यहाँ यह स्पष्ट है कि किसी सबल राष्ट्र  अथवा वहाँ के राष्ट्रपति की आवाज विश्वचेतना की आवाज नहीं है, सबल राज सत्ता की आवाज है। विश्वचेतना के अध्ययन में समष्टि की वही क्रमिकता है- मोहल्ला, समुदाय, जाति, वृहत्तर- समाज, गाँव, जनपद , प्रदेश और फिर राष्ट्र  तथा उसके आगे विश्वचेतना। लोकवार्ता  के अध्ययन  की बेसिक रीडर तो गाँव और गली ही है किन्तु उसकी दिशा और प्रयोजन विश्वचेतना  ही है। गली वाला भी मनुष्य  है और उस सबल राष्ट्र का राष्ट्रपति भी मनुष्य है। लोकवार्ता उस समानता या एकता के सूत्र का अनुसंधान है।

     लोकवार्ता के अध्ययन के अनेक स्कूल [संप्रदाय] बने हैं ,लोकवार्ता के अध्ययन का प्रयोजन स्वयं मनुष्य को जानना है ,आदमी के भीतर बैठे एक और आदमी को जानना , संस्कृति की गति और प्रक्रियाओं को समझना। जनपदीय फिर अंतरजनपदीय, फिर अंतरप्रदेशीय राष्ट्रीय और फिर अंतरराष्ट्रीय-संदर्भ में मनुष्य और समष्टि का अध्ययन।

      हमें आदमी के भीतर के आदमी की पहचान करनी है।लोकवार्ता का सूत्र है-विशेष से सामान्य। सामान्य मनुष्य भी मनुष्य है।बड़े-बड़े आलोचक हीनता-बोध  से ग्रस्त हैं -हम जंगली हैं और वे लोग बहुत विकसित हैं ! उनकी विचारधारा वैश्विक है और हम कूपमंडूक हैं। इस हीनता-बोध  का कारण मनुष्य की सत्ता से अपरिचय है। मनुष्य और मनुष्य में समानताएं भी हैं और विविधता भी हैं।

     यह विविधता आनुवंशिक भी है और परिवेशगत भी है।विविधता में  भी एकता के सूत्र हैं , उनकी खोज करना लोकवार्ता के अध्ययन का प्रयोजन है। विश्व की  जनता का सम्मिलन और जन सहयोग। 

जातीय-स्मृतियों में  आनुवंशिक-तत्व है।  वाचिक-परंपरा जातीय-स्मृति के इन तत्वों से एक मनोवैज्ञानिक-परिवेश की रचना करती है। भारत के लोकजीवन की गहराई में जन- गण की मैत्री और सामंजस्य की शक्तियां किस प्रकार सक्रिय हैं , प्रांतभेद, मजहब , वर्ग -विषमता और विविधताओं के गर्भ में मनुष्य की संवेदना कितनी प्राणवान्‌  है !जनमानस और मुनिमानस का  द्वन्द्व चलता रहा है और आगे भी चलता रहेगा।

     शास्त्र पर लोक का प्रभाव तथा लोक पर शास्त्र का प्रभाव  समझना लोकवार्ता के अध्ययन का प्रयोजन है !

जो लोग समझते हैं कि किसी व्यक्ति ने भाषा और संस्कृति बना दी ,किसी वर्ग ने धर्म बना दिया, किसी ने वर्णव्यवस्था बना कर सब लोगों पर लाद दी , वे प्रकारांतर से लाठी वाले की ही भैंस का प्रतिपादन करते हैं, वे मनुष्य को नहीं देख पाते। 

      सामूहिक-दृष्टि के विकास का अध्ययन समष्टि के सूत्रों की पहचान करने के लिए है , लोकोन्मुखी  दृष्टि के लिए है। दुख दर्द के प्रति करुणा और संवेदना के लिए है। लोकवार्ता में जनता के संघर्ष की आवाज है, लोकवार्ता में सबल के द्वारा किये गये  उत्पीड़न से ग्रस्त लोकमन की अनुभूति और अभिव्यक्ति है।

      सबल के द्वारा किये गये  उत्पीड़न का एक नाम सामन्ती भी है किन्तु वह  उसका  एक रूप है। महत्परिवर्तनं क्रन्ति: , परिवर्तन और क्रान्ति होती हैं और होंगी भी  लेकिन ध्यान रखने की बात है कि परिवर्तन का जन्म परंपरा के गर्भ से होता है। इसलिए परंपरा अथवा मनुष्यजीवन की निरन्तरता लोकवार्ता के अध्ययन का आधारभूत सूत्र है।

जातीय-अस्मिता की पहचान और सामूहिक स्मृतियों की  परंपरा  को समझना लोकवार्ता के अध्ययन का प्रयोजन है।संस्कृतियाँ किस प्रकार मिल जाती हैं ,किस प्रकार बिछुड़ जाती हैं , किस प्रकार लीन और विलीन हो जाती हैं ? उनके द्वंद और समायोजन की प्रक्रिया को समझना लोकवार्ता के अध्ययन अध्ययन का प्रयोजन है ! लोकवार्ता के अध्ययन का एक प्रयोजन यह भी है कि हम इस बात को समझ लें कि   किताब या शास्त्र के बाहर भी  ज्ञानविज्ञान की परंपरा है।

      भारतीय लोकसंस्कृति के अध्ययन का प्रयोजन विविधता में एकता की खोज है -भारत की आत्मा का साक्षात्कार ।विभिन्न संस्कृतियों के अंतर्भुक्ति को देखना। लोकजीवन के वेदांत को  समझना , जहां सर्वात्मभाव ,संपूर्णता, समानता, स्वतंत्रता और न्याय जैसे जीवन मूल्य हैं।

      लोकतंत्र को सुदृढ़ करना  लोकसंस्कृति के अध्ययन का  एक प्रयोजन है। लोकवार्ता लोकमानस और लोकजीवन को जानने का प्रयोजन यह भी है कि देश में शासक और शासित के जीवन में  सम और ताल को खोजा जा सके। लोकप्रशासन लोक का प्रशासन बने , जिसमें लोक  की भूमिका हो।लोकवार्ता का लोकतंत्र राजमहल में रहने वाले और गांव की झोंपड़ी में रहने वाले  इंसान को एक ही तराजू से तोलता है।

       लोकवार्ता के आंगन की परिधियां उतनी ही बड़ी हैं ,जितनी कि मानव-जीवन के विस्तार और मानव-जीवन की संभावनाएं हैं।जीवन के लिए जैसे दसों दिशाएं खुली हुई हैं, वैसे ही लोकवार्ता के आंगन की  सभी दिशाएं भी खुली हुई है, क्योंकि अंततः लोकवार्ता का अध्ययन मनुष्य और मनुष्य जीवन का अध्ययन है।  यह लोकवार्ता के  अध्येता  पर है  कि वह किस प्रयोजन से मनुष्य और मनुष्य जीवन को जानना चाहता है ? 

मनुष्य का अध्ययन करने वाले अनुशासनों में लोकविज्ञान अधुनातन और विकासशील अनुशासन है।लोकवार्ता का अध्ययन करने वाले व्यक्ति को सबसे पहले अपने पढ़े लिखे होने का अभिमान छोड़ना पड़ेगा क्योंकि किताबी  सिद्धांतों का  आग्रह यहाँ  काम नहीं आता। लोकवार्ता का कोई निर्धारित  व्याकरण नहीं है।लोक  की अभिव्यक्तियाँ अनगढ़  होती हैं। उन पर निरंतर विभिन्न वर्गों ,विभिन्न संस्कृतियों की तह  चढ़ती चली जाती है ,लोकवार्ता का अध्ययन अंतर -अनुशासनिक  अध्ययन है , लोकवार्ता में मानव शास्त्र  है ,इतिहास है ,समाजशास्त्र है , मनोविज्ञान है, भाषा विज्ञान है, नीतिविज्ञान है ,साहित्यशास्त्र काव्यशास्त्र है ,सौंदर्यविज्ञान है, कला है, संगीत है, लोकमंच है।

     अब  परिनिष्ठित-साहित्य के शास्त्रीय- अध्ययन से ही काम नहीं चल सकेगा। साहित्य और जनजीवन के अंत:संबंधों को जानने के लिए लोकजीवन की प्रयोगशाला में जाना जरूरी होगा।

        मनुष्य   का समग्र जीवन भूख , आराम, रक्षा , रति , आत्मगौरव, प्रभुता , सिसृक्षा , जिज्ञासा , होड़[अनुकरण] लोभ [संग्रह या वित्तैषणा ] की मूलप्रवृत्तियों से संचालित-प्रेरित होता है ! ये प्रवृत्तियाँ ही परिवेश से द्वन्द्व और सहयोग प्राप्त करते हुए , परिवेश के साथ समायोजन करते हुए जीवन व्यतीत करती हैं ।ये प्रवृत्तियाँ ही  मनुष्य के चिन्तन की प्रेरक हैं।

      मानवमन की भावना , संवेदना , आवेग  और अन्त: प्रज्ञा इन प्रवृत्तियों की परिक्रमा करती रहती हैं !मनुष्य  मन की भावना अथवा आवेग इन प्रवृत्तियों को उत्तेजित  भी  करती हैं और शान्त  भी करती हैं ! मानव-मन के भाव  मूलप्रवृत्तियों  से  अविच्छिन्न  हैं   या उन के रूपान्तर हैं  , जैसे रक्षा प्रवृत्ति और भय का भाव , जिज्ञासा और   विस्मय का भाव , सिसृक्षा  और वात्सल्य का भाव , द्रव्यसंग्रह और लालच का भाव , प्रभुता और आत्मगौरव के साथ अभिमान का भाव ! संवेदना  शक्ति  के द्वारा मनुष्य  अनुभूति करता है और बाह्य परिवेश को आन्तरिक बनाता है,  अपने मन-मस्तिष्क  में  बाह्यपरिवेश का बिंब और चित्र  बनाता है।

       इस प्रकार चिन्तन, भावना और संवेदना  मनुष्य की मूल-प्रवृत्तियों की गति में सहायक होती है, और वे सब मिल कर समायोजन की निरन्तर प्रक्रिया के द्वारा पारवेश की रचना और विकास करती है।भौतिक और सांस्कृतिक परिवेश वास्तव में मानवीय शक्ति और स्वभाव का ही विस्तार है।कहते हैं कि मकड़ी  अपने ही शरीर में संचित  रासायनिक  तत्त्वों  के द्वारा जाले  को बुनती है, इसी प्रकार मनुष्य  विराट प्रकृति के आँगन में अपने द्वारा ही बनाये कृत्रिम पारवेश में रहता है तथा उस परिवेश में निरंतर  परिवर्तन  करता है। यह परिवर्तन व्यष्टि के रूप में भी होता है और समष्टि के रूप में भी होता है !  मनुष्य के सांस्कृतिक-परिवेश के  ताने-बाने वास्तव में मानव की प्रवृत्तियों, क्षमताओं, गुणों और स्वभावों के ताने-बाने हैं।

भाषा , धर्म , साहित्य, संस्कृति , कला ,समाज और मानव-इतिहास में  सामान्य मनुष्य की भूमिका को समझना लोकवार्ता का प्रयोजन है। आज भी बड़े-बड़े आलोचक  भाषा , साहित्य, संस्कृति , धर्म ,कला ,समाज और इतिहास को केवल प्रभुवर्ग  और पुरोहित-वर्ग  की रचना समझते हैं।  वे देख कर भी नहीं देख पाते कि लोकमानस ईश्वर को अपना जैसा बना कर ही स्वीकार करता है।शास्त्र के लिए  जो चिदाकाश है,महाकाल है,वह लोक का भोला बाबा है।शास्त्र के लिए  जो अमेया है,कार्यकारण-निर्मुक्ता है,वह लोक की भोरी मैया है।

     जो इंद्र को झुका सकता है, ब्रह्मा को भुला सकता है, शास्त्र का जो अनादि-अनंत है,वह लोक में -ताहि अहीर की छोहरियां छछिया भर छाछ पै नाच नचावत कैसे बन जाता है। भाषा की रचना प्रक्रिया को नहीं समझ पाते , वे नहीं देखते कि तद्भवीकरण की समस्त प्रक्रिया लोकजीवन में होती है।

वे धर्म और धर्मसंस्था के अंतर को नहीं समझ पाते। वे वर्गचेतना और लोकचेतना के अंतर को स्पष्ट नहीं कर सकते। ये सभी बिंदु लोकवार्ता के अध्ययनबिंदु हैं।

     लोकसंस्कृति के अध्ययन का प्रयोजन देशज-चिन्तन और लोकजीवन  को समझना है ।विद्वानों या नेताओ के  दृष्टिकोण  का महत्त्व वहीं तक है,  जहाँ  उनके व्यक्ति की सीमा टूट गयी है , जहाँ उनके अपने निजी हानि-लाभ का हिसाब जीवित है , वहाँ आकर उनके मत का  समाज के लिए कोई महत्त्व नहीं है। विचार का जन्म देशकाल में होता है। बड़े से बड़ा विचारक अपने देशकाल की ही व्याख्या करता है।

     गांधीवाद, राष्ट्रवाद  या मार्क्सवाद का महत्त्व  उसी स्थिति में है  , जिस स्थिति में उसे  पचाया जा चुका है , उसे सनातन की तरह प्रतिपादित करना  एक तरह का रूढ़िवाद है। जिस देश और जिस काल में हम जीवित हैं , वह हमारी समस्या का भी आधार है और समाधान का भी। अनुकरण या होड़ से समाधान न पहले कभी निकल सका है और न आगे कभी निकलेगा।

     अनुकरण या होड़ से हम चलना सीख सकते हैं परन्तु चलने के लिए पैर अपने होंगे और रास्ता भी अपना ही होगा । समस्या का विश्लेषण भी लोकजीवन में ही हो सकता है ,और समाधान के विचार भी लोकजीवन में से ही निकलेंगे। बुद्ध हों या महावीर , कबीर हों अथवा महात्मागांधी , इनके विचार किसी पुस्तक में से नहीं आये , लोकजीवन में से ही निकले , समष्टिमन , समष्टि-मेधा।

       उस जमाने में भारत की लोकसंस्कृति पर हमला हुआ था ,तब मन्दिर तोडे गये थे ,मूर्तियां तोडी गयी थीं ,जजिया-कर लगाया गया था किन्तु भारत की जीवन-पद्धति ने भारत के जीवन-दर्शन ने हार नहीं मानी ! हमारी परिवार-संस्था बनी रही ! मनुष्य और मनुष्य का रागात्मक-संबंध बना रहा , मनुष्य और प्रकृति के बीच पारंपरिक-संबंध कायम रहा।

       गंगा और यमुना की धार अविरल बहती रही ! आज जब पश्चिम की बयार बह रही है , भारत की जीवन-पद्धति और भारत के जीवन-दर्शन पर आक्रमण हो रहा है। हम टुकुर- टुकुर देख रहे हैं कि इस पछैयां-ब्यार में सब कुछ उडा जा रहा है , जीवन-पद्धति भी , जीवन-दर्शन भी ! भाषा भी ,कला भी ,संगीत भी । बाजारवादी दर्शन ! नाता रिश्ता  मुनाफे के लिए ! अपने लिए ! सिर्फ अपनी  अपनी चिन्ता ! बाजारवाद मनुष्य को अकेला बना करके मारता है ! इसके कारण लोकदृष्टि का महत्त्व आज  बढ़ गया है।

     लोग अपनी जीविका की खोज में एक प्रान्त से दूसरे प्रान्त में और संसार के विभिन्न देशों में जा रहे हैं, उनका नाता धरती से ही नहीं अपनी समष्टि से भी टूट रहा है। ऐसी स्थिति में समष्टि-भाव और समष्टि मेधा की खोज इतनी महत्त्वपूर्ण हो गयी है , जितनी आज से पहले कभी नहीं थी।

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