Site icon अग्नि आलोक

चुनावी पारदर्शिता और निष्पक्षता पर उठते सवाल?

Share

चैतन्य भट्ट

चुनाव चल रहे हैं। प्रचार की गर्मी मौसमी गर्मी पर भारी है। आरोपों – प्रत्यारोपों और जुमले बाजी शवाब पर है। मतदाता हैरान है। जितनी तेजी से मुद्दे बदल रहे हैं वैसे तो मौसम भी नहीं बदलते। विडंबना यह है कि निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव प्रक्रिया के लिए जिम्मेदार चुनाव आयोग की भूमिका भी बहस का मुद्दा बन गई है। कम वोटिंग के लिए आयोग पहले ही आलोचना के दायरे में था। मतों के प्रतिशत की आधिकारिक जानकारी में विलंब और चुनावी आचार संहिता के उल्लंघन के संदर्भ में की गई कार्यवाही ने उसे और भी निशाने पर ला दिया है।
आयोग के पास मतदान के आंकड़े मतदान वाले दिन से लेकर अगले दिन तक आते हैं। पीठासीन अधिकारी अपने पोलिंग बूथ के मतदान की जानकारी सेक्टर ऑफिसर, जिसके अंतर्गत आमतौर पर 10 पोलिंग बूथ होते हैं, के जरिए रिटर्निंग ऑफिसर को भेजते हैं। रिटर्निंग ऑफिसर अपने संसदीय क्षेत्र की जानकारी राज्य के मुख्य चुनाव अधिकारी कार्यालय को भेजता है और इसके बाद मुख्य चुनाव अधिकारी इन आंकड़ों को चुनाव आयोग को भेजता है। प्रारंभिक तौर पर यह आंकड़े अनंतिम होते हैं और चुनाव आयोग सम्पूर्ण प्रक्रिया संपन्न होने के बाद अंतिम जानकारी जारी करता है।
19 अप्रैल के पहले चरण के मतदान के बाद चुनाव आयोग ने एक प्रेस नोट जारी कर कहा था कि शाम 7 बजे तक मतदान का अनुमानित आंकड़ा 60% से अधिक था। 26 अप्रैल को दूसरे चरण के बाद भी मतदान का प्रारंभिक अनुमान 60.96% बताया गया । मगर इन दोनों चरणों के लिए अंतिम मतदान प्रतिशत जानकारी आयोग द्वारा 30 अप्रैल अर्थात पहले चरण के मतदान के 11 और दूसरे चरण के चार दिन बाद 30 अप्रैल को प्रकाशित की गई। इलेक्ट्रॉनिक मशीनों वाले चुनाव और पल पल में जानकारी अपडेट करने वाली इंटरनेट की दुनिया में इस विलंब को बहस का मौजू बनना ही था। उस पर कमाल यह हुआ कि मतदान प्रतिशत के अंतिम आंकड़े प्रारंभिक आंकड़ों से लगभग 6 प्रतिशत बढ़ कर आए। आयोग ने न तो मतदान प्रतिशत के अंतिम आंकड़े देर से जारी करने पर कुछ कहा न ही मतदान प्रतिशत के प्रारंभिक और अंतिम आंकड़ों के अंतर पर। सत्ता पक्ष ने भी इन दोनों पहलुओं पर खामोश रहना ही ठीक समझा। विपक्ष ने जरूर इस पर न सिर्फ गंभीर सवाल खड़े किए बल्कि फेर-बदल की आशंका भी जाहिर की । आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में आयोग के भेद-भाव पूर्ण रवैए ने अलग सवाल खड़े किए हैं।
2014 के लोकसभा चुनाव तक हर चुनावी चरण के बाद चुनाव आयोग में प्रेस कॉन्फ्रेंस की परंपरा थी। 2014 के बाद यह परिपाटी खत्म हो गई। इस परंपरा के चलते चुनाव आयोग और चुनावी प्रक्रिया से जुड़ी मशीनरी में भी मतदान के आंकड़े जारी करने का दबाव रहता था। 2019 के लोकसभा चुनाव में तो किसी भी चरण में चुनाव आयोग की तरफ से प्रेस वार्ता आयोजित नहीं की गई। इसके पहले के चुनावों में 24 से 48 घंटे के अंदर वोटिंग प्रतिशत के अंतिम आंकड़े प्रकाशित कर दिए जाते थे। उस आधार पर कहा जाए तो विलंब पर उठने वाले सवाल यक़ीनन जायज हैं।
इस मामले को लेकर एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स ने उच्चतम न्यायालय की शरण ली है। उनके द्वारा दायर याचिका में कहा गया है कि 30 अप्रैल के चुनाव आयोग की अंतिम आधिकारिक जानकारी में 5 प्रतिशत से अधिक के असामान्य संशोधन, अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्र और मतदान केंद्र के आंकड़ों की जानकारी की अनुपस्थिति और अंतिम आंकड़े जारी करने में अत्यधिक विलंब ने गंभीर आशंकाएं पैदा की हैं जिन्हें दूर किया जाना चाहिए। अदालत से आग्रह किया गया है कि वह चुनाव आयोग को मौजूदा लोकसभा चुनावों में प्रत्येक चरण के मतदान के बाद मतदान केंद्रों पर दर्ज वोटों की स्कैन की गई सुपाठ्य प्रतियों को अपनी वेबसाइट पर अपलोड करके मतदान के प्रमाणित रिकॉर्ड का खुलासा करने का निर्देश दे। याचिकाकर्ताओं ने निर्वाचन क्षेत्र और मतदान केंद्र के अनुसार मतदाता और मतदान के आंकड़ों को पूर्ण संख्या और प्रतिशत के रूप में प्रकाशित करने की भी मांग की है। चुनाव आयोग को यह निर्देश देने का भी आग्रह किया गया है कि वह परिणामों के संकलन के बाद उम्मीदवार वार मतगणना परिणाम का खुलासा करे। उच्चतम न्यायालय मामले पर 17 मई को सुनवाई करेगा।
पारदर्शिता और तकनीक के इस्तेमाल की बात करने वाले चुनाव आयोग के लिए ढीलम ढाली के यह आरोप दुर्भाग्य पूर्ण हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में होने वाले चुनावों की सारे विश्व में प्रतिष्ठा है। कितने ही देश इन चुनावों के अध्ययन के लिए प्रतिनिधि मंडल भेजते रहे हैं ताकि ऐसी ही पारदर्शिता और निष्पक्षता अपना सकें। पिछले कुछ घटनाक्रमों ने इस प्रतिष्ठा पर सवाल खड़े किए हैं। आयुक्तों की नियुक्ति प्रक्रिया में सरकार के बहुमत से निष्पक्षता प्रभावित हुई है। एक चुनाव आयुक्त के अचानक इस्तीफे और उसके बाद दो चुनाव आयुक्तों की ताबड़तोड़ नियुक्ति ने और भी सवाल खड़े किए हैं। राजनीतिक दलों से चर्चा से परहेज़ और प्रजातंत्र के चौथे स्तंभ प्रेस से किनाराकशी से आशंकाएं और भी बलवती हुई हैं।
सूरत और इंदौर लोकसभा क्षेत्रों में जिस बेशर्मी से मतदाता के मताधिकार द्वारा प्रतिनिधि के चुनाव का गला घोंटा गया है, वह तकनीकी आधार पर भले ही उचित हो, लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है। ऐसी घटनाओं पर रोक लगाने के समुचित प्रयास वक्त की जरूरत हैं। चुनाव आयोग की आशंकाओं और विवादों में घिरी निष्पक्षता और पारदर्शिता तो उम्मीद नहीं जगाती। अंतिम परिणाम ही निश्चित करेंगे कि आने वाला तंत्र लोक का रहेगा या “ माई वे या हाई वे “ वाली शैली का। बहरहाल, उम्मीद पे दुनिया कायम है।

Exit mobile version