~ पुष्पा गुप्ता
अपने लखनऊ प्रवास के जमाने में प्रेमचंद का परिचय एक पंडितजी से हुआ जो सनातन धर्म की वर्णाश्रम-व्यवस्था और कर्मकांड के प्रबल समर्थक थे। प्रेमचंद की रचनाओं में प्रतिबिम्बित हिन्दू सवर्ण समाज की छवि और छाप को देखकर वे मानसिक रूप से संतप्त रहते थे और लोगों से कहा करते थे, अंग्रेजी पढे-लिखे लोग भले ही उन्हें कथा-सम्राट कहते हों, जिसे संस्कृत, संस्कृति और संस्कार की समझ है, वह उन्हें हिन्दू कुलांगार ही मानेगा और उनकी तुलना विद्या-वरदान पूर्व के कालिदास से करेगा जो उसी शाखा को काट रहे थे जिसपर बैठे थे।
प्रेमचन्द जी भी पंडितजी के अविराम उपहास और आलोचना से त्रस्त थे, और संभवतः अपने मानसिक तनाव को दूर करने के लिये उन्होंने हास्य-व्यंग्य की तूलिका से “मोटेराम शास्त्री” के नाम से उनका चरित्र चित्रण किया।
‘निमंत्रण’ कहानी के आरंभ में प्रेमचंद ने पंडित जी के परिचय यह कहते हुये दिया, “मोटेराम शास्त्री ने अंदर जाकर अपने विशाल उदर पर हाथ फेरते हुए यह पद पंचम स्वर में गाया — अजगर करे न चाकरी”।
कहानी जिसका शीर्षक है “मोटेराम जी शास्त्री”, की शुरुआत इस तरह होती है: “पण्डित मोटेराम जी शास्त्री को कौन नही जानता! आप अधिकारियों का रूख देखकर काम करते है। स्वदेशी आन्दोलने के दिनों मे अपने उस आन्दोलन का खूब विरोध किया था। स्वराज्य आन्दोलन के दिनों मे भी अपने अधिकारियों से राजभक्ति की सनद हासिल की थी।” इस कहानी मे वे वैदराज का नकली चोंगा पहनकर लखनऊ मे गुप्त रोग के मरीजों का उपचार करते हैं, लेकिन जब एक विधवा रानी जब उनके पास चिकित्सा के लिये आती है, वे उसे प्रेमपाल मे आबद्ध करने के लिये ललायित हो जाते हैं, लेकिन लेकिन इसका परिणाम सुखद नहीं होता। रानी के दूसरे आशिक उनकी बुरी तरह मरम्मत करते हैं।
मोटेराम शास्त्री पर प्रेमचंद की अन्य प्रसिद्ध कहानी है ‘मोटर के छींटे’।
इस कथा के आरंभ में पंडितजी के व्यक्तित्व और विचार का वर्णन करते समय प्रेमचन्द हास्य-व्यंग्य की स्याही का किंचित उपयोग करते दिखाई देते हैं: “प्रात:काल स्नान-पूजा से निपट, तिलक लगा, पीताम्बर पहन, खड़ाऊँ पाँव में डाल, बगल में पत्रा दबा, हाथ में मोटा-सा शत्रु-मस्तक-भंजन ले एक जजमान के घर चला। विवाह की साइत विचारनी थी।
कम-से-कम एक कलदार का डौल था। जलपान ऊपर से। और मेरा जलपान मामूली जलपान नहीं है। बाबुओं को तो मुझे निमन्त्रित करने की हिम्मत ही नहीं पड़ती। उनका महीने-भर का नाश्ता मेरा एक दिन का जलपान है। “
” शास्त्री जी को एक निमंत्रण मिलता है और वह खूब सजधज कर यजमान के घर की ओर चलते हैं । भारी वर्षा होकर चुकी है और सड़कों पर पानी जमा है। पं० मोटेराम पानी बचाकर निकल रहे होते हैं कि एक मोटर तेजी उनके निकट से गुजरती है और शास्त्री जी सिर से पैर तक कीचड मे सराबोर हो जाते हैं। शास्त्री जी क्रोध में आकर भोजन का लालच छोड़कर वही बैठ जाते हैं, क्योकि राह ऐसी है कि देर या सवेर मोटर का इसी सड़क पर लोटना अवश्यंभावी है।
काफी देर बाद मोटर वापस आती है, तो शास्त्री जी एक बड़ा-सा पत्थर उसके सामने के शीशे पर मारते हैं, जो चकनाचूर हो जाता है।”
प्रेमचंद ने इस कथा की पृष्ठभूमि को स्पष्ट करते हुये जयचंद्र विद्यालंकार को बताया कि “मैं शास्त्री से भले हो नाराज रहा होऊं, पर अपनी कहानी के पात्र से तो नाराज नहीं हो सकता था ! अपने पात्र पं० मोटेराम शास्त्री से तो मुझे पूरा न्याय करना ही था। भले ही इस पात्र का निर्माण मैंने क्रोध में आकर किया हो, पर वह सब क्रोध उक्त पात्र के शारीरिक चित्रण तक ही सीमित रह पाया। कहानी में इस या किसी भी अपने अन्य पात्र से मैं स्वयं कैसे नाराज रह सकता हूं ?”
कुछ क्षणों तक चुप रहने के बाद उन्होंने कहना शुरू किया, “इस कहानी द्वारा मैं यह भी कहना चाहता था कि जब कोई अमीर व्यक्ति अपने अभिमान मे किसी निर्धन व्यक्ति की अवमानना करता है, तो उसे कदापि सहन नहीं करना चाहिए। मोटेराम में यह साहस था कि वह अपनी कमजोरी छोड़कर वीर बन सके।”
अब आपको आलोचना-जगत की ओर ले चलते हैं। अज्ञेय या निर्मल वर्मा के वैचारिक संस्कार से नामवरजी की असहमति थी। नामवरजी मार्क्सवादी आलोचक थे, जबकि ये दोनो मार्क्सवाद के घोर विरोधी थे, फिर भी नामवरजी उन्हें बडा लेखक मानते थे।
नामवरजी क्षत्रिय थे। उन्होंने प्रेमचंद का जमाना देखा था। प्रेमचंद की ही जमीन पर, उनके ही जिला-जवार मे नामवरजी का जन्म हुआ था। नामवरजी ने प्रेमचंद के जमीर को जाना था, और उसे अपनाया भी था, इसलिए उनकी सहानुभूति प्रेमचंद के जमाने के ब्राह्मण से नही, ठाकुर से नहीं, मुंशी से नहीं, साहू से नहीं, बल्कि दलित समाज से थी जो बीमारी में भी बदबूदार पानी पीने को अभिशप्त था।
जोखू जानता था कि उसकी जोरू अगर एक लोटा पानी के लिए ठाकुर के कुंए के पास दबे पांव जायेगी, तो पकड ली जायेगी — ‘हाथ-पाँव तुड़वा आयेगी और कुछ न होगा।… ब्रह्म-देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेगें, साहूजी एक के पाँच लेंगे । गरीबों का दर्द कौन समझता है हम तो मर भी जाते है, तो कोई दुआर पर झाँकने नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएँ से पानी भरने देंगे ?’
नामवरजी ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ और ‘सलाम नामक कहानी-संग्रह संग्रह से बहुत प्रभावित हुये। उन्होंने लिखा, “जब मैंने पढ़ा तो मुझे कुछ ऐसे अनुभव हुए जो उसके पहले मैं नहीं जानता था । मरे हुए बैल की खाल निकालने का काम और मरे हुए जानवर को उठाना और उसको कैसे पहुँचाना बाजार में। कैसे उस समाज में रहने वाले लोग-सूअर मारने वाली घटना है-कैसे अपनी जात छुपाते हैं।
ये दर्द जब मैंने जाना, तो मुझे लगा कि कुछ ऐसे अनुभव हैं जो दलित-कुल में जन्म लेने के बाद ही कोई आदमी जान सकता है। इसलिए सच्चा दलित साहित्य तो वही होगा।”
मार्क्स, गाधी, अम्बेदकर की वैचारिक परम्परा से जुडा हुआ आदमी सामन्ती परम्परा के खिलाफ सीना तानकर खडा होता है।
अब आप हिन्दी संपादन के युग-पुरुष महावीर प्रसाद द्विवेदी की ओर दृष्टि डालिये। उन्होंने सरस्वती’ (सितंबर 1914, भाग 15, खंड 2, पृष्ठ संख्या 512-513) में हीरा डोम की कविता प्रकाशित की। हीरा डोम की भोजपुरी कविता मे भारतीय समाज मे ब्राह्मण और क्षत्रिय के प्रभुत्व का, सामाजिक विषमता-जन्य अत्याचार का, हजारों साल से दमन चक्र मे पिसते आ रहे दलित वर्ग का मर्मस्पर्शी वर्णन है, फिर भी आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सम्पादक धर्म का पालन करते हुये इस कविता को अपनी पत्रिका मे स्थान दिया।
सम्पादक का दायित्व और ब्राह्मणत्व का दंभ साथ साथ नहीं चल सकता। हीरा डोम कविता मे भी धन-धान्य सम्पन्न ठाकुर के कुंये का वर्णन है: हम लोग तो कुंए के नजदीक भी नहीं जा सकते हैं, पंकिल नदी-नाले से पानी भर भरकर पीते हैं।
हमनी के राति दिन मेहत करीजां,
दुइगो रूपयावा दरमहा में पाइबि ।
ठाकुरे के सुखसेत घर में सुलत बानीं,
हमनी के जोति-जोति खेतिया कमाइबि ।
बाभने के लेखे हम भिखिया न मांगबजां,
ठाकुर क लेखे नहिं लउरि चलाइ बि।
सहुआ के लेखे नहि डांड़ी हम जोरबजां,
अपने पहसनवा के पइसा कमादबजां
घर भर मिलि जुलि बांटि-चोटि खदवि।
हड़वा मसुदा के देहियां बभनओं के बानी,
ओकरा के घरे पुजवा होखत बाजे,
ओकरे इलकवा भदलें जिजमानी।
सगरै इलकवा भइलैं जिजमानी।
हमनी के इनरा के निगिचे न जाइलेजां
पांके में से भरि भरि पियतानी पानी
हमने के एतनी काही के हलकानी ||५||
अंत मे आज की भारतीय राजनीति पर एक नजर डालते हैं।
पहले देश-दुनिया की गहरी समझ रखने वाले लोग संसद मे जनता का प्रतिनिधित्व करते थे, वे अपने विचारों को निर्भीकतापूर्वक अभिव्यक्त करते थे और प्रधानमंत्री भी उनके विचारों को ध्यानपूर्वक सुनते थे। लेकिन आज हालत कितनी बदल गई है?
आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे
अपने शाहे-वक़्त का यूँ मर्तबा आला रहे
एक जन सेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए
चार छह चमचे रहें माइक रहे माला रहे। (अदम गोंडवी).
विपक्ष के कुछ सांसद जब आंख खोलकर और अक्ल से भरे दिमाग लेकर संसद में बोलते हैं, तो कभी सत्तादल की अभिनेत्री हवा मे लहराते उसके हाथ को उडन-चुम्बोला की अश्लील हरकत और हरासमेन्ट करार कर उसकी मिट्टी पलीद करने की कोशिश करता है, कभी सत्तादल का पहलवान उसे प्रधानमंत्री के सामने ही उठाकर पटकने की कोशिश करता है या फिर सत्तादल के दलाल उसकी बातों को तोड-मरोडकर इस तरह पेश करते हैं जैसे उसने कोई जघन्य अपराध किया हो।
डाक्टर मनमोहन सिंह ने कहा था कि भारत के संसाधनों पर पहला हक दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक समुदाय का है, हासियाकृत जन का है, लेकिन इस्लाम-घृणा की आग मे दग्ध भारत के साम्प्रदायिक तत्व ने इस वक्तव्य को इतना विकृत किया कि यह वक्तव्य तुष्टीकरण नीति के सर्वाधिक प्रखर उदाहरण के रूप मे पेश किया जाने लगा।
मनोज झा ने भी संसद में यही बात कही कि खेत मे फसल उगाते हैं तथाकथित नीची जाति के गरीब किसान, लेकिन उनका चूल्हा रोता है, चक्की उदास रहती है और तोंद फूलता है, पंडितजी का, ठाकुर जी का, मुंशीजी का, सावजी का।
कुआँ ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्ले ठाकुर के
फिर अपना क्या?
यह मनोज झा की गलती नहीं है कि आज उत्तर भारत के अधिकांश नेताओं के अक्ल पर ताले लगे हैं।
“कुंआ ठाकुर का” आज के भारत की सच्चाई है।
लेकिन सासद मनोज झा पर इसलिए आफत आई है
क्योंकि अधिकांश सांसद की तरह वह अंधा-बहरा नही है।
वह नहीं कह सकता कुंआ पर ठाकुर का पहरा नहीं है।
साहसी लोग कहते रहेंगे कि आकाश मे कुहरा घना है, स्वार्थ के न्यस्त पुतले इसे व्यक्तिगत आलोचना मानते रहेंगे और साहसी लोगों पर प्रहार करते रहेंगे और इसी तरह दुनिया चलती रहेगी।