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राहुल गांधी:विरासत के सहारे जीत की तलाश

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सुरेश हिंदुस्तानी

राजनीति में कब क्या हो जाए, कुछ भी नहीं कहा जा सकता। कांग्रेस की स्थिति कमोवेश ऐसी ही है, जिसमें कांग्रेस के बड़े बड़े नेता देश की संसद में पहुँचने के लिए सुरक्षित सीट की तलाश करते दिखाई दे रहे हैं। कांग्रेस में राहुल गांधी भले ही राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं हैं, लेकिन उनकी हैसियत आज भी अध्यक्ष से कहीं अधिक है। परन्तु सवाल यह है कि राहुल दो सीट से चुनाव क्यों लड़ रहे हैं। क्या उनको अपनी जीत के प्रति अंदेशा है या फिर उनको एक और पराजय का भय सता रहा है। पहले राहुल गांधी अमेठी में हार का स्वाद चख चुके हैं। अब वायनाड से रायबरेली आकर फिर से कई प्रकार से सवाल छोड़ दिए हैं। हालांकि कांग्रेस द्वारा राहुल गांधी को राष्ट्रीय नेता के रूप में प्रचारित किया जाता है, इसका तात्पर्य यही है कि राहुल को देश के किसी भी हिस्से से चुनाव लड़ने में किसी प्रकार का संशय नहीं होना चाहिए, लेकिन कांग्रेस उनके लिए सुरक्षित ठिकाने ढूंढकर खुद ही संशय की स्थिति निर्मित कर रही है।

कांग्रेस नेता राहुल गांधी उत्तरप्रदेश की अमेठी लोकसभा सीट से चुनाव न लड़ पाने की हिम्मत के बाद आखिर परम्परागत रायबरेली से नामांकन दाखित कर दिया। यह बात सही है कि राहुल गांधी के अमेठी छोड़ने के बाद कांग्रेस राजनीति में कोई ठोस सन्देश देने में सफल नहीं हो रही थी, जिसके कारण कांग्रेस के कई नेता अमेठी के बारे में बोलने से किनारा करने लगे थे। अब राहुल गांधी अपने दादा फिरोज खान, दादी इंदिरा गांधी और माँ सोनिया गांधी की विरासत को बचाने के लिए मैदान में आ गए हैं। यहाँ सवाल यह नहीं हैं कि राहुल गांधी और उनकी कांग्रेस ने रायबरेली को क्यों चुना, बल्कि सवाल यह है कि राहुल गांधी ने अमेठी को क्यों छोड़ा। क्या वास्तव में राहुल गांधी को फिर से अपनी पराजय का डर लगने लगा था? अगर यह सही है तो फिर ऐसा क्यों है कि राहुल गांधी हर बार अपने लिए सुरक्षित स्थान की तलाश क्यों करते हैं। उल्लेखनीय है कि जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी को अमेठी में अपनी ज़मीन खिसकती दिखाई दी, तब उन्होंने एकदम सुरक्षित लगने वाली सीट केरल की वायनाड को चुना। वहाँ से चुनाव जीते जरूर, लेकिन अमेठी की हार कांग्रेस परिवार की हार थीं, जिसे कांग्रेस आज तक भुला नहीं पायी है। ऐसे में कांग्रेस द्वारा राहुल गांधी को अमेठी से चुनाव लड़ाना खतरे से खाली नहीं था।
कांग्रेस की ओर से राहुल गांधी के नामांकन जमा करने के समय जिस प्रकार से बड़े नेताओं का जमघट लगा, वह भले ही जनता में प्रभाव डालने के लिए किया हो, लेकिन इससे यह भी राजनीतिक सन्देश सुनाई दे रहा है कि अब रायबरेली की सीट भी कांग्रेस के लिए आसान नहीं है। यह इसलिए भी कहा जा सकता है कि वहाँ लगभग सभी बड़े नेता उपस्थित हुए। यहाँ तक कि प्रियंका वाड्रा के पति रोबर्ट वाड्रा भी कांग्रेस के विरासती राजनेता के तौर पर उपस्थित हुए। ऐसे में एक सवाल यह भी आता है कि एक ही परिवार के चार व्यक्तियों को कांग्रेस के बड़े नेताओं के रूप में प्रचारित करना निसंदेह कांग्रेस पर परिवारवादी होने को ही प्रमाणित करता है। जिस परिवारवाद के आरोप के कारण कांग्रेस असहज हो जाती है, आज कांग्रेस ने फिर से उसी रास्ते पर कदम बढ़ाने को अपनी नियति मान लिया है। हालांकि कांग्रेस ने आनन फानन में राहुल गांधी को रायबरेली से उम्मीदवार बनाकर यह तो सन्देश दिया ही है कि भारत में रायबरेली ही राहुल गांधी के लिए सबसे सुरक्षित लोकसभा सीट है। यहाँ कांग्रेस का परम्परागत मतदाता है, वहीं यह क्षेत्र नेहरू गांधी परिवार की विरासत भी है। कहा जाता है कि दुनिया का कोई भी व्यक्ति अगर अपनी विरासत को विस्मृत कर देता है, तो उसे नए सिरे से अपनी ज़मीन तैयार करनी पड़ती है। और अगर विरासत के आधार पर अपने कदम बढ़ाता है तो उसकी आधी राह आसान हो जाती है। राहुल गांधी के सामने तमाम सवाल होने के बाद भी ऐसा लगता है कि उन्होंने अपनी आधी बाधा को पार कर लिया है। रायबरेली को कांग्रेस का गढ़ इसलिए भी माना जाता है कि क्योंकि यहाँ से इंदिरा गांधी के पति फिरोज खान दो बार सांसद रहे, उसके बाद इंदिरा गांधी भी सांसद रहीं। अब पिछले पांच बार से सोनिया गांधी लोकसभा का चुनाव जीती हैं। मजेदार बात यह भी है कि वर्ष 1977 के आम चुनाव में जनता लहर में इंदिरा गांधी को भी पराजय का दंश भोगना पड़ा। उसके बाद एक बार भाजपा ने भी परचम लहराया है। इसलिए यह कहा जाना कि रायबरेली में कांग्रेस आसानी से विजय प्राप्त करेंगी, कठिन ही है। आज कांग्रेस की स्थिति देखकर यह भी कहने में गुरेज नहीं होना चाहिए कि आज की कांग्रेस के पास इंदिरा गांधी जैसा नेता नहीं है। ज़ब इंदिरा गांधी चुनाव हार सकती हैं, तब आज तो कांग्रेस की स्थिति बहुत कमजोर है। ऐसा तो तब हुआ, ज़ब उत्तरप्रदेश में समाज़वादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का कोई अस्तित्व नहीं था, इसलिए कांग्रेस उत्तरप्रदेश में अच्छी खासी जीत हासिल करती थी। लेकिन अब उत्तरप्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य बदला हुआ है। अब कांग्रेस के पास पहले जैसा वोट बैंक भी नहीं है, हालांकि इस चुनाव में सपा का समर्थन कांग्रेस के पास है, इसलिए चुनाव में सपा के कार्यकर्ता भी राहुल का प्रचार करेंगे, ऐसे में निश्चित ही कांग्रेस का वजूद बढेगा ही, यह तय है, लेकिन कितना बढ़ेगा, यह कहने में जल्दबाजी ही होगी।
वर्तमान में कांग्रेस के लिए यह पेचीदा सवाल ही था कि कांग्रेस की ओर से अमेठी और रायबरेली से किसको प्रत्याशी घोषित किया जाए, क्योंकि इन दोनों सीटों पर प्रथम तो गांधी परिवार का पुख्ता दावा बनता था। इसलिए दोनों क्षेत्रों में से किसी एक से प्रियंका वाड्रा को चुनाव मैदान में उतारने की क़वायद भी की जा रही थी, लेकिन प्रियंका को इस बार चुनाव लड़ने से दूर कर दिया। लेकिन सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या राहुल गांधी के रायबरेली से उम्मीदवार बनाए जाने के बाद कांग्रेस अमेठी के चुनाव को गंभीरता से लेगी, क्योंकि अब कांग्रेस का पूरा जोर राहुल गांधी को जिताने में लगेगा। राहुल गांधी को जिताना कांग्रेस की मज़बूरी है, क्योंकि अब राहुल गांधी ही नहीं, पूरी कांग्रेस की साख दांव पर लगी है। अगर कांग्रेस रायबरेली से चुनाव हारती है तो देश में कांग्रेस के बारे में गलत सन्देश जाऐगा। यहां पर एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी आ रहा है कि राहुल गांधी द्वारा पिछले चुनाव में भी दो स्थानों से चुनाव लड़े थे, जिसमें अमेठी में उन्हें हार का सामना करना पड़ा। अब वायनाड से उम्मीदवारी के बाद रायबरेली की रुख करके फिर से संदेह को जन्म दिया है। ऐसा लग रहा है कि इस बार वायनाड का चुनाव बहुत ही टक्कर का माना जा रहा है। कुछ खबरें तो राहुल गांधी के हारने तक की बात कह रही हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि इसलिए ही राहुल गांधी को फिर से दो स्थानों से चुनाव लड़ाया जा रहा है। राहुल गांधी का उत्तरप्रदेश से चुनाव लड़ना कोई नया नहीं है, वे अमेठी से भी चुनाव लड़ चुके हैं। इसलिए उनके नाम का जादू कोई नया प्रभाव छोड़ेगा, यह पूरी तरह विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता।

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