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राहुल गांधी :हां मैं सचमुच ‘बाल बुद्धि’ हूं!

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हरितेश्वर मिश्र 

  बड़े साहब ने मुझे ‘बाल बुद्धि’ कहा। उन्हें लगा मेरा मज़ाक बन रहा है। पर असलियत क्या है बताऊँ आपको?

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       बचपन से ही सिपाहियों ने मुझे घेरा हुआ था। मैं भी दूसरे बच्चों की तरह मिट्टी में खेलना चाहता था। बारिश में बहते पानी मे कागज की नाव बहाना चाहता था। मुझे भी गुल्ली डंडा जैसे खेल खेलना सीखना था। मैं भी बंगले के बाहर खेलते बच्चों के साथ हमराह होना चाहता था। पर माँ ने मुझे रोक रखा था। जिद करता था तो रोने लग जाती थी। बोलती थी कि तेरे पिता और दादी को सब मार दिए है। मैं तुझे खोना नहीं चाहती हूं राहुल। मैं ठहरा ‘बाल बुद्धि’। माँ की बातों में आ गया। अपने पूरे बचपन से समझौता कर लिया।

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     धीरे धीरे मैं बड़ा होने लगा। मेरे चारो तरफ सिपाहियों का पहरा और बढ़ता गया। मैं माँ से जिद करता रहा कि माँ ये सब क्यों कर रही है आप। क्यों मेरा बचपन छीन रहीं है आप। पर माँ तो ठहरी मां, उन्होंने एक बार आंख दिखाकर फटकार लगाई तो मैं चुप हो गया। मैं रोने लगा। तो माँ ने वो चीथड़े मुझे दिखाए। मुझे याद दिलाया कि मेरे पिता को कैसे चीथड़ों में उड़ा दिया गया था। उन्होने दादी की आपबीती कही। बताया कि दादी खून से लथपथ उनकी गोद मे ही कैसे दम तोड़ दी थी। मैं फिर सहम गया। बाल बुद्धि था न। डर गया था माँ की बातें सुनकर।

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     बाल बुद्धि का असल मतलब बचपना दिखाना होता है। मैं होश सम्हाल चुका था। सांसद भी बन गया था। खुद को देश सम्हालने के लिए तैयार भी कर लिया था। माँ ने कहा अभी सही वक्त नहीं है। तुम्हारे में अभी भी बचपना है राहुल। अभी तक तुमने दुनियां देखी नहीं है। पहले जाओ, इस दुनियां को देखकर आओ। सीखो की किस तरह से ये समाज, ये लोग अपने जीवन को गुजर बसर करते है। माँ के लिए तो मैं अभी भी बाल बुद्धि ही तो था। उन्होंने सही वक्त पे मुझे सही सलाह दिया। मैंने अपने पहरे से बाहर निकलकर दुनियां देखने के लिए निकल गया। मेरा देश, जिसकी मिट्टी में मेरे पिता समेत खानदान के तमाम लोग अपनी जान कुर्बान कर दिए। वो देश ही तो मेरे लिए मेरी दुनियां थी। वो बात अलग थी कि कुछ लोग पता नहीं किस कुंठा से मुझे और मेरी माँ को इस देश से अलग मानते थे। लेकिन इस देश की मिट्टी तो झूठ नहीं बोलेगी। वो कहेगी की जवाहरलाल से लेकर इंदिरा और राजीव इस मिट्टी में ही मिलकर आबाद हुए है। मैं ठहरा बाल बुद्धि। माँ की सुना और निकल गया सब पहरो को छोड़ इस देश और उसकी दुनियां से रूबरू होने के लिए। मुझे बाल बुद्धि को यह भी नहीं मालूम था कि कौन मेरा दोस्त है और कौन मेरा दुश्मन। मैं सबसे मिलता गया। सबको गले लगाता गया। सबसे मिलता रहा। 

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       जब मैं यात्रा में निकला था तो ये दुनियां मुझे नई सी लग रही थी। मैंने मेरे बचपन मे जो खोया था वो सब कुछ मुझे इस यात्रा में मिला। देश के बड़े बूढ़ों का प्यार भरा स्नेह। अच्छे अच्छे नौजवान दोस्त। संगी। यार।

      मैं ट्रक चलाने वाले ड्राइवर भैया से मिला। बचपन में ट्रकों को बालकनी से जाते हुए देखता था। आज वो बचपना याद आ गया। उनकी समस्याओं को भी ध्यान से सुना और समझा। मैं अपने बचपने वाली हर वो ख्वाहिश को पूरी कर रहा था अपने यात्रा में जो मैं अपने बचपन मे खो दिया था। चाहे वो डिलेवरी ब्वाय बने अपने भाइयों के साथ उनकी डिलेवरी बाइक में घूमना हो या अपने से उम्र दराज सामान ढोने वाले कुली भइया लोगो के साथ सामान उठाने की ख्वाहिश हो। मुझे बचपन से गाड़ियों की रिपेयरिंग देखना था कि होती कैसे है, मैंने मोटर मैकेनिक भाइयों के साथ अपनी वो ख्वाहिश भी पूरी की। मैं खेतों में गया। वहां की पानी और मिट्टी में पैर धंसा कर उसको करीब से अनुभव किया। अपने देश के किसानो के साथ हँसा और बोला। मैने मिस्त्री और मजदूरों के साथ सीमेंट से बनती इमारतें देखी। खुद भी बनाने की कोशिस की। लकड़ी और लोहे के काम को करने वाले बढ़ई और लुहार समाज से मिला। उन सभी के कामो को देखा और सीखा। ये सब मेरा बचपना ही तो था। आप मुझे बिल्कुल बाल बुद्धि बोल सकते है।

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      असल में मेरे पूर्वज और इस देश के पहले प्रधानमंत्री श्री नेहरू जी ने अपनी किताब “डिस्कवरी ऑफ इंडिया” में इस देश को सुंदरता से दिखाया है। इस देश की अनेकता में एकता का महीन वर्णन किया है। मैं नेहरू जी के विचारों को फॉलो करता हूँ। उनके विचारों से ही खुद को प्रेरित कर के अपनी यात्रा में इस अनेकता में बसी भारतीय परंपरा को मोहब्बत की एकता में पिरो रहा हूँ। उन्हें प्यार के रास्ते मे लाकर एक कर रहा हूँ। इस देश में विरोधी तत्वों ने खूब नफ़रत फैलाई है। मै ‘बाल बुद्धि’ होकर भी इसे देख सकता हूँ। 

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साभार;

हरितेश्वर मिश्र 

जन विचार संवाद

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