अग्नि आलोक

केवल आत्मविश्वास राहुल गांधी का सहारा

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कनक तिवारी

संसद में जो शब्द इन्ही ओम बिड़ला ने प्रतिबंधित किए थे, उनमें मोदी जी ने आज ढेर सारे इस्तेमाल किेए और ओम जी भक्तिभाव से सुनते रहे. और प्रधानमंत्री देश की गरिमा को तार तार करके उनका इस्तेमाल करते रहे. इसमें बालबुद्धि भी है और चोर भी.

आप अपनी चिढ़ और कुंठा में उसे किसी दड़बे की मुर्गी कहते रहते हो. उसे कभी ‘बच्चा’ तो कभी ‘शहजादा’ कहते हो. ‘पप्पू’ तो गोदी मीडिया की मदद से आपने उसका विशेषण बना दिया था और आप अंदर ही अंदर अपनी खुद की समझ को दुलराते रहते हो. सियासत की पायदान वह धीरे-धीरे चढ़ रहा है. यह इतिहास और भविष्य देख रहे हैं. जिल्लत, अपमान, उपेक्षा, निंदा और चरित्र हत्या का अभियान उसके पीछे है. इस बात को वह जानता है.

उसे आत्मविश्वास के दम पर ऊपर उठने का इत्मीनान है. केवल आत्मविश्वास इसका सहारा है और जिनसे वह बात कर रहा है और जिनकी बातें कर रहा है, उस जनता पर उसको भरोसा है. यह किसी खानदान में पैदा तो हुआ है लेकिन यह नेता किसी की विरासत से पैदा होना नहीं दिखाना चाहता. अभी तो पूरा नेता बना भी नहीं है लेकिन वह खुद अपनी नीयत और अपनी मशक्कत से कुछ बनकर दिखने का जज़्बा लिए हुए है. एक इंसान दिखता है साधारण सा. उसका बहुत ज्या़दा अपमान करने से भी उसका कुछ बिगड़ने वाला नहीं है.

उसका हौसला मंद नहीं होता है. यही उसे हौसलामंद बनाए रखता है. उसे अपने आप में बहुत भरोसा है. यही तो ज़रूरत है किसी के भी लिए आगे बढ़ने की. यही तो एक सीढ़ी है. मैं उसे किसी बड़े विशेषण से नवाजना नहीं चाहता. लेकिन उसने राजनीति की फितरत को समझ लिया है. उन कमजोर बिंदुओं पर मलहम लगा रहा है जहां जनता के जख्म उसको रोज़ दिखाई देते हैं. अगर वह ऐसी लीक पर चलता रहा. अपने कौल पर कायम रहा तो भविष्य तो उसकी राह देख रहा है. हो सकता है वह धुंधलाता दिखता समय नज़दीक हो जब एक पूर्व प्रधानमंत्री और भावी प्रधानमंत्री का कोई संधि बिंदु वक्त का कैलेंडर हमको बता दे.

लोकसभा की बहस के दौरान राहुल गांधी के कारण एक किस्सा याद आ रहा है. राहुल ने स्पीकर ओम बिरला से आपत्ति करते हुए कहा था कि जब आप प्रधानमंत्री की ओर देखते हैं तो अदब से सिर झुकाते हैं और हमारी ओर देखें तो सीधे खड़े रहते हैं. ‌स्पीकर आप हैं कि नरेंद्र मोदी हैं ? तब स्पीकर ओम बिरला ने कुछ अजीब सा जवाब दिया. उसकी चर्चा करने की ज़रूरत नहीं है.

स्पीकर के पदेन आचरण को लेकर एक मनोरंजक किस्सा मध्य प्रदेश विधानसभा में वर्षों पहले हुआ था. वर्षों तक कुंजीलाल दुबे विधानसभा के स्पीकर हुआ करते थे. एक बार लेकिन काशी प्रसाद पांडे बन गए. कुंजीलाल दुबे के दिमाग से निकला ही नहीं था कि वे स्पीकर नहीं हैं और काशी प्रसाद पांडे के दिमाग में घुसा ही नहीं था कि वे स्पीकर हैं क्योंकि वे तो वर्षों तक विधायक ही रहे थे. अचानक बहस होने लगी.

प्रतिपक्ष के किसी सदस्य का जवाब देने कुंजीलाल दुबे खड़े हुए. तीखी बहस होने लगी. तब प्रतिपक्ष के सदस्य ने स्पीकर से शिकायत की कि आप इन्हें बैठने कहिए. यह बीच-बीच में कुछ भी कह रहे हैं (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे करने लगे थे राहुल गांधी के भाषण के दरमियान). स्पीकर काशी प्रसाद पांडे ने कुंजीलाल दुबे को कहा बैठ जाइए. नहीं बैठे. तब स्पीकर ने दो-तीन बार तीखी आवाज़ में कहा आप बैठ जाइए. मैं आपसे कह रहा हूं और ऐसा कहते-कहते स्पीकर खुद खड़े हो गये.

आसंदी का आशय था कि अब तो आप को बैठना ही है. कुंजीलाल दुबे भूल गए थे कि वे स्पीकर नहीं हैं. उन्होंने उतनी ही तेज़ आवाज़ में स्पीकर से कह दिया – ‘आप बैठ जाइए’ और काशी प्रसाद पांडे स्पीकर बैठ गए और कुंजीलाल दुबे फिर भी खड़े रहे. उसके बाद विधानसभा में विधायकों की हंसी का फव्वारा फूट पड़ा. राहुल गांधी जी ! कई बार ऐसा होता है कि स्पीकर किसी मंत्री के आगे इसी तरह झुक जाते हैं ! वे भूल जाते हैं कि वे स्पीकर हैं, पता नहीं क्यों ?

संसद में जो शब्द इन्ही ओम बिड़ला ने प्रतिबंधित किए थे, उनमें मोदी जी ने आज ढेर सारे इस्तेमाल किेए और ओम जी भक्तिभाव से सुनते रहे. और प्रधानमंत्री देश की गरिमा को तार तार करके उनका इस्तेमाल करते रहे. इसमें बालबुद्धि भी है और चोर भी.

  1. Jumlajeevi
  2. Baal buddhi
  3. Covid spreader
  4. Snoopgate
  5. Ashamed
  6. Abused
  7. Betrayed
  8. Corrupt
  9. Drama
  10. Hypocrisy
  11. Incompetent
  12. Anarchist
  13. Shakuni
  14. Dictatorial
  15. Taanashah
  16. Taanashahi
  17. Jaichand
  18. Vinash purush
  19. Khalistani
  20. Khoon se kheti
  21. Dohra charitra
  22. Nikamma
  23. Nautanki
  24. Dhindora peetna
  25. Behri sarkar
  26. Bloodshed
  27. Bloody
  28. Betrayed
  29. Abused
  30. Cheated
  31. Chamcha
  32. Chamchagiri
  33. Chelas
  34. Childishness
  35. Corrupt
  36. Coward
  37. Criminal
  38. Crocodile tears
  39. Disgrace
  40. Donkey
  41. Drama
  42. Eyewash
  43. Fudge
  44. Hooliganism
  45. Hypocrisy
  46. Incompetent
  47. Mislead
  48. Lie
  49. Untrue
  50. Gaddar
  51. Girgit
  52. Goons
  53. Ghadiyali ansu
  54. Apmaan
  55. Asatya
  56. Ahankaar
  57. Corrupt
  58. Kala din
  59. Kala bazaari
  60. Khareed farokht
  61. Danga
  62. Dalal
  63. Daadagiri
  64. Dohra charitra
  65. Bechara
  66. Bobcut
  67. Lollypop
  68. Vishwasghat
  69. Samvedanheen
  70. Foolish
  71. Pitthu
  72. Behri sarkar
  73. Sexual harassment

कभी कभार कांग्रेसी हिन्दुत्व

हिन्दुत्व शब्द का उल्लेख सावरकर और उनके भी पहले कांग्रेस नेता लाला लाजपत राय ने किया था. हिन्दुत्व के नाम पर वोट मांगना कुछ मुकदमों में सुप्रीम कोर्ट ने जायज भी ठहराया लेकिन कुछ फैसलों में हिन्दुत्व और हिन्दुइज़्म को अलग करार दिया. रामकृष्ण मिशन ने भी एक मुकदमे में मांग की थी कि वह हिन्दू धर्म का अनुयायी नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने दलील नहीं मानी. कई आदिवासी समूह हिन्दू घोषित किए जाने पर कहते हैं कि वे हिन्दू धर्म के अनुयायी नहीं है. संविधान में हिन्दू, इस्लाम, ईसाई, बौद्ध, पारसी, सिक्ख, जैन आदि धर्मों की परिभाषा नहीं दी गई है.

विनायक दामोदर सावरकर के उल्लेख के कारण हिन्दुत्व पर बहुत बहस मुबाहिसा, विचार विमर्श और चिल्लपों का भी बाजार गर्म होता रहा है. उसके उलट गांधी की हिन्दू धर्म की प्रयोगधर्मी, सेक्युलर और समावेशी समझ के साथ कांग्रेस एवं अन्य लोग आज़ादी की लड़ाई के दौर में मध्यमार्गी विचारधारा की तरह विकसित होते रहे.

लोकमान्य तिलक की अगुवाई में भी संतुलन रहा. जवाहरलाल नेहरू के कारण कांग्रेस को वामपंथ की ओर झुकाने का सिलसिला शुरू हुआ. गांधी, नेहरू, पटेल और मौलाना आज़ाद के कारण अम्बेडकर को संविधान का खाका बनाने केन्द्रीय भूमिका सौंपी गई. संविधान में धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी होने के बावजूद हिन्दुत्व समर्थकों का आरोप रहा है कि हिन्दू कोड बिल के जरिए हिन्दुओं के निजी अधिकारों में दखल दिया गया है, जबकि मुसलमानों के निजी मजहबी कानून जस के तस बने हुए हैं.

संविधान सभा में कांग्रेस कुल या उसके समर्थन के कई सदस्यों ने मजहब आधारित अधिकारों में रियायत का विरोध किया. किसी सदस्य को तो अल्पसंख्यक शब्द तक से परहेज़ था. सी.पी. और बरार के पी.एस. देशमुख ने 27 अगस्त 1947 को संविधान सभा में कहा कि भारतीय इतिहास में अल्पसंख्यक से ज़्यादा राक्षसी कोई शब्द नहीं दिखा, जो देश की तरक्की में अड़ंगे अटकाएगा. आर. के. सिधवा ने अल्पसंख्यक शब्द को इतिहास की पोथी से ही मिटा देने की मांग की. आशंका भी जाहिर की कि अल्पसंख्यकों को तालीमी संस्थाएं स्थापित करने के अधिकार देने से राष्ट्रीय एकता खंडित होगी और सांप्रदायिक तथा राष्ट्रविरोधी दकियानूसियां पनपेंगी.

26 मई 1949 को अल्पसंख्यकों की रिपोर्ट पर बहस करते कांग्रेस सदस्यों से नाराज एंग्लो-इण्डियन फ्रैंक एन्थोनी ने कटाक्ष किया, ‘बिना दुर्भावना के कह रहा हूं-बहुत से सदस्य फकत नियम भर से कांग्रेसी हैं, लेकिन दरअसल विचारों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दू महासभा के सदस्य हैं. उनके भाषण अखबारों में पढ़ते हैं कि भारत की आज़ादी और संस्कृति का हिन्दू राज और हिन्दू संस्कृति के अलावा और मायने क्या हो सकता है ?

3 दिसम्बर तथा 6 दिसम्बर, 1948 को सबसे उत्तेजक जिरह करते कांग्रेसी लोकनाथ मिश्र ने कहा –

‘अनुच्छेद 13 (अब 19) स्वतंत्रता का घोषणापत्र है, लेकिन अनुच्छेद 19 (अब 25) हिन्दुओं को गुलाम बनाने का घोषणापत्र. यह बेहद अपमानजनक अनुच्छेद मसौदे का सबसे काला दाग है. धर्म प्रचार के कारण ही देश पाकिस्तान और भारत में बंट गया. हर व्यक्ति को धर्म प्रचार का मूल अधिकार देना ठीक नहीं है. क्या यह सचमुच हमारा विश्वास है कि जीवन से धर्म को बिलकुल अलग रखा जा सकता है ?

‘हज़रत मोहम्मद या ईसा और उनके विचारों और कथनों से हमारा झगड़ा नहीं है, लेकिन धर्म का नारा लगाना खतरनाक है. धर्मप्रचार शब्द के नतीजतन हिन्दू संस्कृति तथा हिन्दुओं की जीवन तथा आचार पद्धति के पूरे विनाश का ही मार्ग प्रशस्त होना है. इस्लाम ने हिन्दू विचारधारा के खिलाफ दुश्मनी का ऐलान कर रखा है. ईसाइयों ने हिन्दुओं के सामाजिक जीवन में दबे पांव प्रवेश किया है.

‘यह इस कारण कि हिन्दुओं ने अपनी हिफाजत के लिए दीवारें नहीं खड़ी कीं. हिन्दुओं के उदार ख्यालों का दुरुपयोग करते राजनीति ने हिन्दू संस्कृति को ही कुचल दिया. धर्म की आड़ में गरीबी और अज्ञान धार्मिक उन्माद के छाते के नीचे पनाह ले रही हैं. दुनिया के किसी संविधान में धर्म प्रचार को मूल अधिकार नहीं कहा है. धार्मिक प्रचार से लोगों में दुश्मनी बढ़ेगी.’

28 अगस्त 1947 को अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर रिपोर्ट पेश करते सरदार पटेल ने कह दिया था कि मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों का संशोधन मुझे मालूम होता तो उनके किसी प्रकार के संरक्षण के लिये राजी नहीं होता. वे उन्हीं तरीकों को अपना रहे हैं जिन्हें उन्होंने पृथक निर्वाचक मण्डल जारी करते वक्त अपनाया था. मुसलमानों के दो दल रहे हैं-एक राष्ट्रीय अर्थात् कांग्रेसी मुसलमानों का दल और दूसरा मुस्लिम लीग का. उनमें इलाहाबाद में समझौता हो गया. हमने उस समझौते को नहीं माना. देश विभाजित हो गया. वही ढंग फिर अपनाया गया जो देश के विभाजन के लिये अपनाया गया था.

तो मैं कहूंगा जो लोग इस तरह की बातें चाहते हैं उनके लिये पाकिस्तान में जगह है, यहां नहीं. कांग्रेसी गोविन्ददास ने राष्ट्रभाषा के सवाल पर जिरह करते कटाक्ष किया ‘उर्दू साहित्य में हिमालय का नहीं, उसकी जगह कोहकाफ़ का वर्णन मिलेगा. देश की कोयल नहीं, सिर्फ बुलबुल का वर्णन मिलेगा. भीम और अर्जुन की जगह रुस्तम का वर्णन मिलेगा. मैं कहना चाहता हूं कि हम पर साम्प्रदायिकता की तोहमत लगाना बिल्कुल गलत है. मैं यह अवश्य कहूंगा कि हिन्दी के समर्थक साम्प्रदायिक नहीं, जो उर्दू का समर्थन करते हैं, वे साम्प्रदायिक हैं.’

तैश में आकर आर. वी. धुलेकर ने कह दिया कि कुछ मुसलमानों के अपवाद को छोड़कर ज़्यादातर ने आज़ादी के आन्दोलन में हिस्सा नहीं लिया था. उनमें से कई द्विराष्ट्रवाद के समर्थक भी थे. ‘पिछले अड़तीस वर्षों में, जब से मैं कांग्रेस में था, इसे मानने अथवा इस मैत्री की नीति, अथवा इस हिन्दुस्तानी के मामले का जो इतिहास रहा उसे कुछ याद करने की ज़रूरत है. मैं कहता हूं कि कुछ हजार मुसलमानों के अतिरिक्त, जो इस देश के सपूत हैं, और जो अब भी हमारे साथ हैं, अन्य सभी मुसलमान हमारे साथ नहीं रहे, वे इस देश को अपना देश नहीं समझते थे, इसी कारण वे पृथक होना चाहते थे. वे पृथक निर्वाचन क्षेत्र चाहते थे.

हिन्दू धर्म में पाखंड देखकर विवेकानन्द गरजे थे कि 33 करोड़ देवी देवताओं के बदले दलितों और अकिंचनों को उनकी जगह स्थापित कर दिया जाए. संविधान सभा में नेहरूवादी तथा हिन्दू राष्ट्रवादी वैचारिकों के बीच लगातार विवाद होता रहा है. धार्मिक अल्पसंख्यकों को न तो विधायिका में आनुपातिक प्रतिनिधित्व मिला और न ही सरकारी नौकरियों और नियोजन में. अल्पसंख्यकों को दिए गए गारंटीशुदा अधिकार और समान नागरिक संहिता के संकेत मुसलमानों के खातों में रह गए.

कांग्रेस आज़ादी की लड़ाई में राजनीतिक पार्टी से ज़्यादा आंदोलन रही है. मदन मोहन मालवीय जैसे कद्दावर नेता कांग्रेस और हिन्दू महासभा दोनों के अध्यक्ष लगभग एक समय ही रह पाए थे. नेहरूवादी दृष्टि का पूरा स्वीकार कांग्रेसियों ने अपने आचरण में नहीं किया. यही वजह है कांग्रेस आज अपने राजनीतिक आदर्शों को लेकर अतीत की अंतध्वनियों को सुनती भर रहती है.

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