श्रवण गर्ग
देश-हित में राहुल की यात्रा का योगदान यह माना जा सकता है कि नागरिक सत्तारूढ़ दल और उसके आनुषंगिक संगठनों के उग्रवादी कार्यकर्ताओं से कम डरने लगेंगे। गौर किया जा सकता है कि सांप्रदायिक विद्वेष की घटनाओं में कमी दिखाई देने लगी है। महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश जैसे भाजपा शासित और सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील प्रदेशों में भी यात्रा का हज़ारों नागरिकों द्वारा पूरे रास्ते बिना किसी भय के स्वागत किया गया। दल बदल नहीं करवाया गया होता तो दोनों राज्यों में इस समय जनता द्वारा चुनी गईं ग़ैर-भाजपाई सरकारें ही सत्ता में होतीं।
आने वाले सालों में जब एक दिन प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व का तिलिस्म किसी कमजोर पड़ते तूफ़ान की तरह फ़ीका पड़ने लगेगा या भाजपा को सत्ता हाथों से फिसलती दिखाई देगी, क्या नरेंद्र मोदी या उनकी पार्टी का कोई दूसरा नेता राहुल गांधी की तरह भारत की सड़कों पर पैदल निकल कर जनता का सामना करने की हिम्मत जुटा पाएगा ? क्या उन्हें भी इसी तरह की भीड़ और आत्मीयता की उम्मीद करना चाहिए ? कंठ -कंठ तक कष्टों से भरे लोगों के पास तब तक अपने मन की बात कहने और उनसे पूछने के लिए काफ़ी सवाल जमा हो जाएँगे।
प्रधानमंत्री ने मई 2014 में अपनी संसदीय पारी देश को कांग्रेस से मुक्त करने के संकल्प के साथ प्रारंभ की थी। अपने साढ़े आठ साल के एकछत्र शासनकाल के दौरान वे तो विपक्ष-मुक्त भारत की स्थापना नहीं कर पाए पर राहुल गांधी से उम्मीद की जा सकती है कि युवा नेता अपनी पाँच महीनों की पैदल यात्रा से ही कांग्रेस और देश को भाजपा से भय-मुक्त कर देंगे। किसी समय जो डर कांग्रेस के चेहरे पर उसके अस्तित्व को लेकर पैदा कर दिया गया था वही इस समय उन भाजपा सरकारों की पेशानियों से टपकता नज़र आ रहा है जहां-जहां से राहुल की यात्रा गुज़र रही है। कोई आश्चर्य नहीं कि मुख्यमंत्रियों को राहुल के चेहरे में सद्दाम हुसैन नज़र आने लगे हैं। अभी तो काफ़ी यात्रा भी बची हुई है।
सचाई यह भी है कि राहुल गांधी की एक यात्रा भर से ही दिल्ली की सल्तनत कांग्रेस को हासिल नहीं होने वाली। मल्लिकार्जुन खड़गे ने चाहे घोषणा कर दी हो कि 2024 के लोकसभा चुनावों में राहुल गांधी विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे, दूर की कोड़ी है कि नए कांग्रेस अध्यक्ष की कामना आसानी से पूरी भी हो जाएगी। पाँच महीनों की एक पदयात्रा से इतने बड़े फल की प्राप्ति नहीं हो सकती। अगर पदयात्राओं में ही स्वराज और सरकारें उगलने का सामर्थ्य उत्पन्न हो जाता तो महात्मा गांधी अंग्रेजों का बनाया नामक क़ानून तोड़ने के लिए साबरमती से डांडी तक 385 किलोमीटर ही चलने के बजाय कन्याकुमारी से लाहौर तक सात हज़ार किलो मीटर की पैदल यात्रा पर निकलते। ग्राम स्वराज आंदोलन के प्रणेता आचार्य विनोबा भावे की भूदान यात्रा भी व्यापक जन-समर्थन के बावजूद अपने उद्देश्यों में पूरी सफल नहीं हो पाई।
राहुल की यात्रा ने दो बड़े काम कांग्रेस के हित में और दो अन्य देश की जनता और संघ-भाजपा के लिए अवश्य कर दिखाए हैं। महाराष्ट्र प्रवास के दौरान सावरकर को लेकर की गई विवादास्पद टिप्पणी को अगर छोड़ दिया जाये तो राहुल ने अपनी अब तक की रीब बाईस सौ किलोमीटर की यात्रा में कोई ऐसी बड़ी रणनीतिक चूक नहीं की जिसे भाजपा का चतुर मीडिया सेल और क्रूर गोदी मीडिया के अराजक रिपोर्टर-एंकर ढूँढ़-ढूँढ़ कर अपनी नक़ली खोजी पत्रकारिता की राई का पहाड़ खड़ा कर सकें।